पाचवा पोस्ट
संक्षेप में, मार्क्सीय दार्शनिक
भौतिकवाद के मुख्य लक्षण ये हैं।
यह समझना आसान है कि सामाजिक जीवन के अध्ययन पर, समाज के
इतिहास के अध्ययन पर, दार्शनिक भौतिकवाद के उसूलों को
लागू करना कितने भारी महत्व की बात है और समाज के इतिहास और सर्वहारा वर्ग की
पार्टी की अमली कार्यवाही पर उन्हें लागू करना कितने भारी महत्व की बात है।
अगर प्रकृति के घटना प्रवाह परस्पर सम्बन्धित और
निर्भर हैं और यह प्रकृति के विकास का नियम है, तो उससे नतीजा निकलता है कि
सामाजिक जीवन के घटना प्रवाहों का परस्पर सम्बन्ध और निर्भरता समाज के
विकास का नियम है और आकस्मिक बात नहीं है।
इसलिये सामाजिक जीवन, समाज का इतिहास, ’आकस्मिक
घटनाओं’ का संग्रह नहीं है। वह निश्चित नियमों के
अनुसार समाज के विकास का इतिहास बन जाता है और सामाजिक इतिहास के अध्ययन का
विज्ञान बन जाता है।
इसलिये, सर्वहारा वर्ग की पार्टी की
अमली कार्यवाही का आधार ’महापुरुषों’ की शुभ कामनाओं को न बनाना
चाहिये, ’बुद्धि’ की पुकार को न बनाना चाहिये, ’विश्वजनीन
नैतिकता’ वगैरह को न बनाना चाहिये, बल्कि
सामाजिक विकास के नियमों को और इन नियमों के अध्ययन को बनाना चाहिये।
और भी, अगर संसार जाना जा सकता है और
प्रकृति के विकास के नियमों की हमारी जानकारी प्रामाणिक जानकारी है, जिसकी
प्रामाणिकता वस्तुगत सच्चाई जैसी है, तो उससे नतीजा निकलता है कि सामाजिक जीवन, सामाजिक
विकास भी जाना जा सकता है और सामाजिक विकास के नियमों के बारे में
विज्ञान की दी हुई सामग्री सच्ची सामग्री है जिसकी प्रामाणिकता वस्तुगत सच्चाई
जैसी है।
इसलिये, समाज के इतिहास का विज्ञान, सामाजिक जीवन
के पेचीदे घटना प्रवाह के बावजूद, उतना ही निश्चयात्मक विज्ञान हो
सकता है जितना, मिसाल के लिये, प्राणि-शास्त्र (बायलाॅजी), और वह अमली
उद्देश्य के लिये सामाजिक विकास के नियमों से लाभ उठा सकता है।
इसलिये, सर्वहारा वर्ग की पार्टी को
अपनी अमली कार्यवाही में अनिश्चित उद्देश्यों से अपना रास्ता न निश्चित करना
चाहिये बल्कि सामाजिक विकास के नियमों से, और इन नियमों से
अमली नतीजे निकाल कर, निश्चित करना चाहिये।
इसलिये, समाजवाद मानव जाति के सुन्दर
भविष्य के लिये एक सपना न रह कर विज्ञान बन जाता है।
इसलिये, विज्ञान और अमली कार्यवाही का
सम्बन्ध, सिद्धांत और अमल का सम्बन्ध, उनकी एकता, सर्वहारा
वर्ग की पार्टी के लिये ध्रुव नक्षत्र बन जानी चाहिये।
और भी, अगर प्रकृति, सत्ता, भौतिक संसार
मूल है और चेतना, विचार गौण है। उससे उत्पन्न्ा है, अगर भौतिक
संसार ऐसी वस्तुगत सच्चाई है जो मनुष्यों की चेतना से स्वतंत्र है, जबकि चेतना
इसी वस्तुगत सच्चाई का प्रतिबिम्ब है; तो नतीजा यह निकलता है
कि समाज का भौतिक जीवन, उसकी सत्ता भी मूल है और उसका मानसिक जीवन
गौण है, उससे उत्पन्न्ा है, और समाज का भौतिक जीवन ऐसी
वस्तुगत सच्चाई है जो मनुष्यों की इच्छा से स्वतंत्र है, जबकि समाज का
मानसिक जीवन इस वस्तुगत सच्चाई का प्रतिबिम्ब है, सत्ता का
प्रतिबिम्ब है।
इसलिये, समाज के मानसिक जीवन के निर्माण
का स्रोत, सामाजिक विचारों, सामाजिक सिद्धांतों, राजनीतिक
मतों और राजनीतिक संस्थाओं का स्रोत्र खुद विचारों, सिद्धांतों, मतों और
राजनीतिक संस्थाओं में न ढूंढना चाहिये बल्कि समाज के भौतिक जीवन की
परिस्थितियों में, सामाजिक सत्ता में ढूंढ़ना चाहिये, जिनका
प्रतिबिम्ब ये विचार, सिद्धांत, मत वगैरह
हैं।
इसलिये, सामाजिक इतिहास के विभिन्न्ा
युगों में विभिन्न्ा सामाजिक विचार, सिद्धांत, मत और
राजनीतिक संस्थायें देखी जाती हैं। अगर गुलामी की प्रथा वाले समाज में कोई
खास सामाजिक विचार, सिद्धांत, मत और राजनीतिक संस्थायें मिलती हैं, सामंतशाही
में दूसरी मिलती हैं और पंूजीवाद में और भी दूसरी, तो इसका कारण विचारों, सिद्धांतों, मतों और
राजनीतिक संस्थाओं की खुद उनकी ’प्रकृति’ उनके ’गुणों’ में नहीं है
बल्कि इसका कारण सामाजिक विकास के विभिन्न्ा युगों में, समाज के
भौतिक जीवन की विभिन्न्ा परिस्थितियों में है।
समाज की जो भी सत्ता होती है, समाज के भौतिक जीवन की जो भी परिस्थितियां होती हैं, वैसे ही उस
समाज के विचार, सिद्धांत, राजनीतिक मत और राजनीतिक संस्थायें
होती हैं।
इस सिलसिले में, माक्र्स ने लिखा है: “मनुष्य की
चेतना उनकी सत्ता की नियामक नहीं है बल्कि इसके विपरीत, उनकी सामाजिक
सत्ता उनकी चेतना की नियामक है।” (कार्ल माक्र्स, संÛग्रंÛ , अंÛसंÛ, मास्को,
1946, खण्ड 1, पृष्ठ 300)।
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिये जरूरी है, हम निष्क्रिय
सपने देखने वालों की जगह न ले लें। इसके लिये जरूरी है कि
सर्वहारा वर्ग की पार्टी अपनी कार्यवाही का आधार ’मानव विवेक के’ हवाई ’सिद्धांतों’ को न बनाये
बल्कि समाज के भौतिक जीवन की ठोस परिस्थितियों को बनाये, जो कि सामाजिक
विकास की नियामक शक्ति हैं; ’महापुरुषों’ की शुभ
कामनाओं को न बनाये बल्कि समाज के भौतिक जीवन के विकास की सच्ची
आवश्यकताओं को बनाये।
कल्पनावादियों, जिनमें लोकवादी शामिल हैं, अराजकवादियों
और समाजवादी क्रांतिकारियों का पतन इसलिये भी हुआ कि वे सामाजिक
विकास में समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों की प्रमुख भूमिका को नामंजूर
करते थे। भाववाद की सतह तक उतर कर, वे अपनी अमली कार्यवाही का आधार
समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताओं को न बनाते थे बल्कि इन
आवश्यकताओं से स्वतंत्र और उनके बावजूद ’आदर्श योजनाओं’ और ’व्यापक
कार्यक्रम’ को बनाते थे, जो समाज के वास्तविक
जीवन से दूर थे।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शक्ति और सजीवता इस बात में
है कि उनकी अमली कार्यवाही का आधार समाज के भौतिक जीवन के विकास की
आवश्यकताएं हैं। वह अपने को समाज के वास्तविक जीवन से कभी अलग नहीं करता।
लेकिन, मार्क्स के शब्दों से यह नतीजा
नहीं निकलता कि समाज के जीवन में सामाजिक विचारों, सिद्धांतों, राजनीतिक
मतों और राजनीतिक संस्थाओं का कोई महत्व नहीं, और वे बदले
में सामाजिक सत्ता, सामाजिक जीवन की भौतिक परिस्थितियों के विकास पर असर
नहीं डालतीं। अभी तक हम सामाजिक विचारों, सिद्धांतों, मतों और राजनीतिक
संस्थाओं के स्रोत की बात कर रहे थे, उनका जन्म कैसे होता है – इसकी चर्चा कर रहे
थे, समाज का मानसिक जीवन उसके भौतिक जीवन की परिस्थितियों का
प्रतिबिम्ब है, - इसकी चर्चा कर रहे थे। जहां तक सामाजिक विचारों, सिद्धांतों, मतों और
राजनीतिक संस्थाओं के महत्व का सवाल है, इतिहास में उनकी भूमिका का सवाल है, वहां उसे
अस्वीकार करना तो दूर, ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक जीवन में, समाज के
इतिहास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका और उनके महत्व पर ज़ोर देता है।
सामाजिक विचार और सिद्धांत तरह-तरह के होते हैं।
पुराने विचार और सिद्धांत होते हैं, जिनके दिन बीत चुके हैं और जो
समाज की उन शक्तियों का हित साधते हैं जिनकी गति रुक गयी है। उनका
महत्व इस बात में है कि वे समाज के विकास, उसकी प्रगति को रोकते हैं। फिर, नये और आगे
बढे़ हुए विचार और सिद्धांत होते हैं, जो समाज की आगे बढ़ी हुई
शक्तियों का हित साधते हैं। उनका महत्व इस बात में है कि वे समाज के विकास, उसकी प्रगति
को आसान बनाते हैं। उनका महत्व उतना ही बढ़ जाता है जितना ही सही-सही
वे समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताओं को प्रकट करते हैं।
नये सामाजिक विचार और सिद्धांत तभी पैदा होते हैं जब
समाज के भौतिक जीवन का विकास समाज के सामने नये काम पेश कर चुका होता है।
लेकिन, एक बार पैदा हो जाने पर वह बहुत ही समर्थ शक्ति
बन जाते हैं। यह शक्ति उन नये कामों को पूरा करने में मदद देती
है जिन्हें समाज के भौतिक जीवन के विकास ने पेश किया था। वह ऐसी शक्ति है जो
समाज की प्रगति में मदद देती है। ठीक यहीं पर नये विचारों, नये
सिद्धांतों, नये राजनीतिक मतों और नयी राजनीतिक संस्थाओं का भारी
संगठन करने वाला, बटोरने वाला और
तब्दीली करने वाला मूल्य प्रकट होता है। नये सामाजिक विचार ठीक इसीलिये
पैदा होते हैं कि वे समाज के लिये जरूरी हैं, इसलिये कि
अगर वह संगठित करने, बटोरने और तब्दील करने का काम न करें तो समाज के
भौतिक जीवन के विकास के लिये जरूरी काम पूरे करना मुमकिन हो जाये। नये
सामाजिक विचार और सिद्धांत उन नये कामों से पैदा होते हैं जिन्हें समाज के भौतिक
जीवन का विकास पेश करता है।
फिर, वे अपना रास्ता बना लेते हैं, वे आम जनता
की सम्पत्ति बन जाते हैं, समाज की गतिहीन शक्तियों के खिलाफ़ उसे
बटोरते और संगठित करते हैं और इस तरह, समाज के भौतिक
जीवन को रोकने वाली इन शक्तियों को परास्त करने में मदद देते हैं।
इस तरह, सामाजिक विचार, सिद्धांत और
राजनीतिक संस्थाएं समाज के भौतिक जीवन के विकास, सामाजिक सत्ता के विकास के
जरूरी कामों के आधार पर पैदा होते हैं। उसके बाद वे खुद सामाजिक सत्ता पर, समाज के
भौतिक जीवन पर असर डालते हैं। वे ऐसी परिस्थितियां तैयार करते हैं जो
समाज के भौतिक जीवन के लिये जरूरी कामों को पूरी तरह करने के लिये और समाज के
भौतिक जीवन का अगला विकास मुमकिन बनाने के लिये आवश्यक होते हैं।
इस सिलसिले में, मार्क्स ने लिखा है:
“जनता के हृदय में घर कर लेने पर, सिद्धांत एक
भौतिक शक्ति बन जाते हैं।” (हेगेल के दर्शन की आलोचना )।
इसलिये, समाज के भौतिक जीवन की
परिस्थितियो पर असर डालने के लिये और उनके विकास और सुधार की गति
को तेज़ करने के लिये, सर्वहारा वर्ग की पार्टी को ऐसे सामाजिक सिद्धांत
का भरोसा करना चाहिये जो सही तौर पर समाज के भौतिक जीवन के विकास की
आवश्यकताओं को ज़ाहिर करता हो और इसलिये, जो इस योग्य हो
कि विशाल जनता को गतिशील बना सके और सर्वहारा पार्टी की भारी फ़ौज के रूप
में उन्हें बटोर सके और संगठित कर सके। यह ऐसी फौज होगी जो प्रतिक्रियावादी
शक्तियों का ध्वंस करने के लिये और समाज की प्रगतिशील शक्तियों का रास्ता
साफ़ करने के लिये तैयार हो।
’अर्थवादियों’ और मेन्शेविकों का पतन इसलिये
भी हुआ कि वे प्रगतिशील सिद्धांत, प्रगतिशील विचारों को बटोरने वाली, संगठित करने
वाली और तब्दीली करने वाली भूमिका को नामंजूर करते थे। घटिया भौतिकवाद की सतह पर
आकर, उन्होंने इन चीजों की भूमिका नहीं के बराबर
कर दी थी और इस तरह पार्टी को निष्क्रिय और निठल्ली बनी
रहने के लिये छोड़ दिया था।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शक्ति और सजीवता इस बात में
है कि वह प्रगतिशील सिद्धांत का सहारा लेता है, ऐसे सिद्धांत
का जो समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताओं को सही तौर पर
प्रतिबिम्बित करता है। वह सिद्धांत को उचित सतह तक उठाता है और अपना
कर्तव्य समझता है कि इस सिद्धांत में जो बटोरने, संगठित करने और तब्दील करने की
ताक़त है, उसे रत्ती-रत्ती इस्तेमाल कर ले।
सामाजिक सत्ता और सामाजिक चेतना का सम्बन्ध क्या है, भौतिक जीवन
के विकास की परिस्थितियों और समाज के मानसिक जीवन के विकास का
सम्बन्ध क्या है, इस सवाल का यही जवाब ऐतिहासिक भौतिकवाद देता है।
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