Wednesday, April 29, 2020

छात्रों के प्रति - बर्तोल्त ब्रेख्त

तुम वहाँ बैठते हो
पढ़ने के लिए।
और कितना खून बहा था
कि तुम वहाँ बैठ सको।
क्या ऐसी कहानियाँ तुम्हें बोर करती हैं?
लेकिन मत भूलो कि पहले
दूसरे बैठते थे तुम्हारी जगह
जो बैठ जाते थे बाद में
जनता की छाती पर।
होश में आओ!
तुम्हारा विज्ञान व्यर्थ होगा, तुम्हारे लिए
और अध्ययन बांझ, अगर पढ़ते रहे
बिना समर्पित किए अपनी बुद्धि को
लड़ने के लिए
सारी मानवता के सारे शत्रुओं के विरुद्ध
मत भूलो,
कि आहत हुए थे तुम जैसे आदमी
कि पढ़ सको तुम यहाँ,
न कि दुसरे कोई
और अब मत मूंदों अपनी आँखें, और
मत छोड़ो पढ़ाई
बल्कि पढ़ने के लिए पढ़ो
और पढ़ने की कोशिश करो कि क्यों पढ़ना है?

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जातिए रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।


भगतसिंह (साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज)

Monday, April 27, 2020

समाजवाद क्यों? अल्बर्ट आइंस्टाइन (1949)


क्या किसी ऐसे व्यक्ति के लिए समाजवाद के विषय पर विचार व्यक्त करना उचित है कि जो आर्थिक और सामाजिक मुद्दों का विशेषज्ञ नहीं है? मैं यह मानता हूँ कि अनेक कारणों की वजह से यह (उचित) है। हमें इस प्रश्न पर पहले वैज्ञानिक ज्ञान की दृष्टि से विचार करना चाहिए। ऐसा प्रकट हो सकता है कि खगोल विज्ञान और अर्थशास्त्र के बीच कोई प्रणाली संबंधी मौलिक अंतर नहीं है: वैज्ञानिक दोनों क्षेत्रों में तथ्यों के एक सीमित समूह के लिए सामान्य स्वीकार्यता के कानूनों को खोजने का प्रयास करते हैं ताकि वे इन तथ्यों के एक दूसरे के संबंध को संभव रूप से ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट बना सकें।
लेकिन वास्तव में ऐसे प्रणाली संबंधी अंतर मौजूद हैं। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में सामान्य कानूनों की खोज उस हालत से मुश्किल बना दी जाती है जिस का मानना है कि आर्थिक तथ्य अक्सर उन बहुत से कारकों से प्रभावित होते हैं जिन का अलग से मूल्यांकन करना बहुत कठिन है। इसके अलावा, मानव इतिहास के तथाकथित सभ्य अवधि की शुरुआत से जमा किया गया अनुभव, जैसा कि अच्छी तरह से ज्ञात है, काफी हद तक उन कारणों से प्रभावित और सीमित किया गया है जो किसी भी तरह से प्रकृति में पूरी तरह से आर्थिक नहीं रहे हैं। उदाहरणतः इतिहास के प्रमुख राज्यों में से अक्सर अपने अस्तित्व के प्रति विजय के आभारी हैं। जीतने वाले लोगों ने, कानूनी और आर्थिक रूप से, स्वयं को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के रूप में स्थापित किया। उन्हों ने खुद के लिए भूमि स्वामित्व का एकाधिकार जब्त कर लिया और अपने स्वयं के वर्गों के बीच से ही एक पुजारी नियुक्त किया।
पुजारियों ने, शिक्षा के नियंत्रण में, समाज के वर्ग विभाजन को एक स्थायी संस्था बना दिया और मूल्यों का एक ऐसा सिस्टम बनाया जिस के द्धारा लोग उस समय, एक बड़ी हद तक अनजाने में, अपने सामाजिक व्यवहार में निर्देशित किए गए। लेकिन ऐतिहासिक परंपरा, ऐसा कहना है, तो कल की बात है; कहीं भी नहीं हम वास्तव में उस चीज को हरा सके जिसे थोर्सटेन वेब्लेन (Thorstein Veblen) ने मानव विकास का "हिंसक चरण" कहा है। पालनीय आर्थिक तथ्यों का संबन्ध उसी चरण से है और इस तरह के कानून जैसा कि हम उन से प्राप्त कर सकते हैं वे अन्य चरणों में लागू होने योग्य नहीं हैं। क्योंकि समाजवाद का वास्तविक उद्देश्य निश्चित रूप से मानव विकास के हिंसक चरण को पराजित करना और उस से परे अग्रिम करना है, आर्थिक विज्ञान अपनी वर्तमान स्थिति में भविष्य के समाजवादी समाज पर थोड़ा प्रकाश डाल सकता है।
दूसरी बात, समाजवाद एक सामाजिक-नैतिक उद्धेश्य की ओर निर्देशित किया जाता है। विज्ञान, तथापि, उद्धेश्यों को बना नहीं सकता है, और इस से भी कम, मनुष्य के मन में उन्हें बैठा नहीं सकता; विज्ञान, ज्यादा से ज्यादा, कुछ उद्धेश्यों को प्राप्त करने का साधन आपूर्ति कर सकता है। लेकिन उद्धेश्य खुद उन हस्तियों द्धारा नियोजित किए जाते हैं जो बुलंद नैतिक आदर्शों वाले हैं और - अगर यह उद्धेश्य मृत पैदा हुए हैं, लेकिन महत्वपूर्ण और सशक्त हैं – वे उन बहुत से मनुष्यों द्धारा अपनाये और आगे बढ़ाए जाते हैं, जो नीम अनजाने में, समाज के धीमी विकास का निर्धारण करते हैं। इन्हीं कारणों के नाते, जब मानव समस्याओं का सवाल हो तो हमें विज्ञान और वैज्ञानिक तरीकों का वास्तविकता से अधिक समझने में सावधानी बरतनी चाहिए; और हमें यह नहीं मानना चाहिए कि विशेषज्ञ ही वे लोग हैं केवल जिन को समाज के संगठन को प्रभावित करने वाले सवालों पर खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार है।
कुछ समय से असंख्य आवाजें जोर देकर कह रही हैं कि मानव समाज एक संकट से गुजर रहा है, यह कि उस की स्थिरता गंभीर रूप से बिखर गई है। इस प्रकार की स्थिति की यह विशेषता है कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर उस समूह, छोटा या बड़ा, के प्रति उदासीन या शत्रुतापूर्ण भाव रखते हैं जिस से उन का संबंध होता है। अपने अर्थ का वर्णन करने के लिए, मुझे यहाँ एक व्यक्तिगत अनुभव रिकॉर्ड करने दें। मैं ने हाल ही में एक बुद्धिमान और दोस्ताना व्यवहार रखने वाले आदमी के साथ एक और युद्ध के खतरे पर चर्चा की, जो मेरी राय में गंभीर रूप से मानव जाति का अस्तित्व खतरे में डाल दे गी, और मैं ने टिप्पणी की कि एक पूर्व-राष्ट्रीय संगठन उस खतरे से सुरक्षा प्रदान करेगा। उस पर मुझ से मिलने वाले ने, बहुत शांति और ठंडे दिमाग से, मुझ से कहा: "तुम मानव जाति के लापता होने के इतना ज्यादा विरुद्ध क्यों हो?"
मुझे यकीन है कि केवल एक सदी पहले ही किसी ने भी इतने हल्के ढंग से इस तरह का कोई बयान नहीं दिया होता। यह एक ऐसे व्यक्ति का बयान है जिस ने खुद के भीतर एक संतुलन प्राप्त करने के लिए व्यर्थ में कड़ी मेहनत की है और सफलता पाने की आशा करीब करीब खो चुका है। यह एक ऐसी दर्द भरे एकांत और अलगाव का कथन है जिस से बहुत सारे लोग पीड़ित हैं। कारण क्या है? क्या इस से बाहर निकलने का कोई रास्ता है? इस प्रकार के सवाल उठाना आसान है, परन्तु कुछ आश्वासन के साथ उन का उत्तर देना मुश्किल है। मुझे, फिर भी, जितनी अच्छी तरह मैं कर सकता हूँ, कोशिश अवश्य करनी चाहिए, हालांकि मैं इस तथ्य के बारे में बहुत सचेत हूं कि हमारी भावनाऐं और हमारे संघर्ष अक्सर विरोधाभासी और अस्पष्ट होते हैं और यह कि उन्हें आसान और सरल विधियों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
मनुष्य, एक ही और उसी समय, एक अकेला और एक सामाजिक जीव है। एक अकेला जीव होने के रूप में, वह, अपनी निजी इच्छाओं को पूरा करने और अपने जन्मजात क्षमताओं को विकसित करने के लिए, स्वयं अपना और अपने से करीब लोगों के अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयास करता है। एक सामाजिक जीव के रूप में, वह अपने साथी मनुष्यों के सुखों में साझा करने, उन्हें उन के दुखों में दिलासा देने, और उनके जीवन की स्थितियों में सुधार लाने के लिए, उन की मान्यता और स्नेह हासिल करना चाहता है। एक मनुष्य के विशेष चरित्र के इन विविध, अक्सर परस्पर विरोधी, संघर्ष करने वाले वर्णनों का केवल अस्तित्व, और उनके विशिष्ट संयोजन ही उस हद को निर्धारित करते हैं कि जिस तक कोई एक व्यक्ति एक आंतरिक संतुलन को हासिल कर सकता और समाज की भलाई के लिए योगदान कर सकता है।
यह बिल्कुल संभव है कि इन दो कर्मशक्तियों की सापेक्ष शक्ति, मुख्य रूप से, विरासत द्धारा तै कि जाती है। लेकिन अंत में उभर कर सामने आने वाली व्यक्तित्व का गठन काफी हद तक उस पर्यावरण जिस में कोई आदमी अपने विकास के दौरान स्वयं को पाता है, समाज के उस ढांचे जिस में वह बढ़ता है, विषेस प्रकार के आचरणों के उस समाज के मूल्यांकन द्धारा किया जाता है।
"समाज" के काल्पनिक मनोभाव का अर्थ व्यक्तिगत आदमियों के लिए अपने समकालीनों और पहली पीढ़ियों के सभी लोगों से उस के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंधों का कुल जोड़ है। व्यक्तिगत आदमी सोचने, महसूस करने, प्रयास करने और खुद से काम करने में सक्षम है; लेकिन वह समाज पर इतना ज्यादा निर्भर करता है - अपने शारीरिक, बौद्धिक और भावनात्मक अस्तित्व में – कि समाज के ढांचे के बाहर उसके बारे में सोचना, या उसे समझना असंभव है। यह समाज है जो मनुष्य को भोजन, कपड़े, एक घर, काम के उपकरण, भाषा, विचार के रूप, और सोच की अधिकांश सामग्री प्रदान करता है; उस का जीवन श्रम और उन कई लाख लोगों की अतीत और वर्तमान के माध्यम से संभव बनाया जाता है जो सारे के सारे "समाज" के छोटे से शब्द के पीछे छिपे हैं।
यह, इसलिए, स्पष्ट है कि व्यक्ति की समाज पर निर्भरता प्रकृति का एक तथ्य है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता है-ठीक उसी प्रकार जैसे कि चींटियों और मधुमक्खियों के मामले में है। फिर भी, चींटियों और मधुमक्खियों की पूरी जीवन प्रक्रिया छोटी सी छोटी बातों में कठोर, परंपरागत प्रवृत्ति द्धारा तै होती है, मनुष्य के सामाजिक पैटर्न और उस के अंतर्संबंध बहुत बदलने वाले और बदलाव के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। याददाशत, नए संयोजन बनाने की क्षमता, मौखिक संचार के उपहार ने इंसान के बीच उन गतिविधियों को संभव बना दिया है जो जैविक आवश्यकताओं से निर्धारण नहीं की जाती हैं। इस प्रकार की गतिविधियां स्वयं को परंपराओं, संस्थाओं, और संगठनों; साहित्य; वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग उपलब्धियों; कला के कामों में जाहिर करती हैं।
यह इस बात की व्याख्या करता है कि यह होता कैसै है कि, कुछ खास मामलों में, मनुष्य अपने जीवन को अपने खुद के आचरण से प्रभावित करता है, और यह कि इस प्रक्रिया में जाग्रुक सोच और चाहत एक भूमिका निभा सकते हैं।
मनुष्य जन्म के समय, आनुवंशिकता के माध्यम से, उन प्राकृतिक आग्रहों सहित जो मानव प्रजाति की विशेषताऐं हैं, एक जैविक संविधान प्राप्त करता है जिसे हम को अवश्य रूप से निश्चित और अटल मानना चाहिए। इसके अलावा, अपने जीवनकाल के दौरान, वह एक सांस्कृतिक संविधान प्राप्त करता है जिस को वह समाज से संचार और कई अन्य प्रकार के प्रभावों के माध्यम से अपनाता है।
यह यही सांस्कृतिक संविधान है जो, समय के बीतने के साथ, परिवर्तन का अधीन है और जो बहुत बड़ी हद तक व्यक्ति और समाज के बीच संबंधों को निर्धारित करता है। आधुनिक नृविज्ञान ने हम को सिखाया है, तथाकथित प्रारम्रभिक संस्कृतियों की तुलनात्मक जांच के माध्यम से, कि मनुष्यों का सामाजिक व्यवहार, समाज में प्रचलित सांस्कृतिक पैटर्न और संगठन के प्रकार पर निर्भर करते हुए, बहुत अलग हो सकता है। यह इसी बुनियाद पर है कि जो लोग आदमी की स्थिति सुधारने का प्रयास कर रहे हैं वे उन की उम्मीदें को चकनाचूर कर सकते हैः मनुष्य की, उन के जैविक संविधान के कारण, एक दूसरे का सफाया करने के लिए या एक क्रूर, आत्म प्रवृत्त भाग्य की दया पर निर्भर होने के लिए, निंदा नहीं की जाती है।
यदि हम स्वयं से पूछें कि मानव जीवन को संभव रूप से ज्यादा से ज्यादा संतोषजनक बनाने के लिए समाज और आदमी की सांस्कृतिक दृष्टिकोण की संरचना को कैसे परिवर्तित किया जाना चाहिए, तो हमें लगातार इस सत्य के प्रति जागरूक होना चाहिए कि कुछ ऐसी स्थितियां हैं जिन को हम संशोधित करने में असमर्थ हैं। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, आदमी की जैविक प्रकृति, सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, बदलाव का पराधीन नहीं है। इसके अलावा, पिछले कुछ सदियों की तकनीकी और जनसांख्यिकीय गतिविधियों ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं जो बाकी रहने वाली हैं। किसी अपेक्षाकृत घनी बसी आबादी में जो उन सामानों के साथ हो जो लोगों के जारी अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं, श्रम और अत्यधिक केंद्रीकृत उत्पादक तंत्र के बीच विभाजन बिल्कुल जरूरी हैं।
समय - जो, पीछे मुड़कर देखें, तो इतना सुखद लगता है - हमेशा के लिए चला गया है जब व्यक्ति या अपेक्षाकृत छोटे समूह पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो सकता हैं। यह कहना केवल एक मामूली अतिशयोक्ति है कि मानव जाति अब भी उत्पादन और खपत का एक ग्रहों का समुदाय ही है।
मैं अब उस बिंदु पर पहुंच गया हूं कि जहां मैं संक्षिप्त संकेत कर सकता हूं कि मेरे नज्दीक हमारे समय के संकट की बुनियाद क्या है। यह व्यक्ति के समाज से संबंध का सवाल है। व्यक्ति हमेशा की तुलना में समाज पर अपनी निर्भरता के बारे में पहले से कहीं अधिक जागरुक हो गया। परन्तु वह इस आजादी को सकारात्मक संपत्ति, एक कार्बनिक संबंध, एक सुरक्षा बल के रूप में नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक अधिकारों, या अपने आर्थिक अस्तित्व के लिए एक खतरे के रूप में, भुगतता करता है। इसके अलावा, समाज में उसकी स्थिति ऐसे है जैसे कि उस की बनावट की अहंकारी कर्मशक्तियां लगातार बढ़ाई जा रही हैं, जब्कि उसकी सामाजिक कर्मशक्तियां, जो प्राकृतिकतः अधिक कमजोर हैं, वह उत्तरोत्तर बिगड़ रही हैं। सारे मनुष्य, समाज में उनकी स्थिति जो भी हो, गिरावट की इस प्रक्रिया से पीड़ित हैं। अनजाने में अपने स्वयं के अहंकार के कैदी, वे असुरक्षित, अकेला, और जीवन की भोली, सरल, और अपरिष्कृत आनंद से वंचित महसूस करते हैं। मनुष्य जीवन में अर्थ, लघु और खतरनाक जैसा कि यह है, केवल स्वयं को समाज के लिए वक्फ कर के ही पा सकता है।
पूंजीवादी समाज की आर्थिक अराजकता जैसा कि यह आज है, मेरी राय में, बुराई का असली स्रोत है। हम अपने सामने उत्पादकों का एक बड़ा समुदाय देखते हैं जिस के सदस्य लगातार एक दूसरे को अपने सामूहिक श्रम के फल से वंचित रखने का प्रयास कर रहे हैं- बल के द्धारा नहीं, बल्कि कुल मिला कर कानूनी तौर पर स्थापित नियमों के साथ वफादार अनुपालन में। इस संबंध में, यह महसूस करना महत्वपूर्ण है कि उत्पादन के साधन - यानी, उपभोक्ता वस्तुओं और इसी प्रकार से अतिरिक्त पूंजी के सामान में जरूरत पड़ने वाली पूरी उत्पादक क्षमता - कानूनी तौर पर हो सकती है, और अधिकांश, व्यक्तियों की निजी संपत्ति हैं।
सादगी के लिए, आने वाले चर्चा में मैं "श्रमिका" उन तमाम लोगों को कहूं गा जिन का उत्पादन के साधनों की स्वामित्व में हिस्सा नहीं है- हालांकि यह शब्द प्रचलित उपयोग के अनुरूप नहीं है। उत्पादन के साधनों का मालिक मजदूर की श्रम शक्ति को खरीदने की स्थिति में है। उत्पादन के साधनों का उपयोग करके, कार्यकर्ता नये माल पैदा करता है जो पूंजीवादियो की संपत्ति बन जाते हैं। इस प्रक्रिया के बारे में आवश्यक बिंदु है कि कार्यकर्ता क्या पैदा करता है और उस को क्या भुगतान किया जाता है इन के बीच संबंध, दोनों वास्तविक मूल्य के संदर्भ में मापे जाते हैं। जहाँ तक यह बात है कि श्रम अनुबंध " मुक्त," है जो चीज कार्यकर्ता पाता है उस को उन वस्तुओं की वास्तविक मूल्य से निर्धारित नहीं किया जाता है जिन का वह उत्पादन करता है, बल्कि उस की न्यूनतम आवश्यकताओं और नौकरियों के लिए मुकाबला कर रहे श्रमिकों की संख्या के संबंध में श्रम शक्ति के लिए पूंजीवादी की आवश्यकताओं के द्धारा (उस का वास्तविक मूल्य निर्धारित किया जाता है)। यह बात समझनी महत्वपूर्ण है कि सिद्धांत में भी कार्यकर्ता का भुगतान उसके उत्पाद की कीमत से निर्धारित नहीं की जाती है।
निजी पूंजी कुछ हाथों में केंद्रित रहने का अधीन है, कुछ तो पूंजीपतियों के बीच मुकाबला के कारण, और कुछ इस लिए कि तकनीकी विकास और श्रम की बढ़ती प्रभाग छोटे लोगों की कीमत पर उत्पादन की बड़ी इकाइयों के गठन को प्रोत्साहित करता है। इन विकासों का परिणाम निजी पूंजी का एक निजी पूंजी का अल्पजनाधिपत्य है जिस की भारी शक्ति को एक लोकतांत्रिक ढंग से संगठित राजनीतिक समाज द्धारा भी प्रभावी ढंग से रोका नहीं जा सकता है। यह सत्य है क्योंकि विधायी निकायों के सदस्यों का चयन राजनीतिक दलों द्धारा किया जाता है, जो उन निजी पूंजीपतियों द्धारा काफी हद तक वित्तपोषित या अन्यथा प्रभावित की जाती हैं, जो सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, विधायिका से मतदाताओं को अलग करते हैं। परिणाम यह है कि जनता के प्रतिनिधि वास्तव में पर्याप्त रूप से आबादी के वंचित वर्गों के हितों की रक्षा नहीं करते हैं। इसके अलावा, मौजूदा परिस्थितियों में, निजी पूंजीपती अनिवार्य रूप से, सीधे या परोक्ष तौर पर, सूचना के मुख्य स्रोत (प्रेस, रेडियो, शिक्षा) नियंत्रण करते हैं। इस प्रकार यह बेहद मुश्किल, और वास्तव में ज्यादातर मामलों में काफी असंभव है, व्यक्तिगत नागरिकों के लिए, किसी सामान्य निर्णय पर पहुंचना और अपने राजनीतिक अधिकारों का समझदारी के साथ उपयोग करना ज्यादातर मुआमलों में बिल्कुल असंभव है।
पूँजी के निजी स्वामित्व पर आधारित एक अर्थव्यवस्था में मौजूद स्थिति इस प्रकार से दो मुख्य सिद्धांतों वाली होती हैः पहला, उत्पादन (पूंजी) के साधनों का निजी रूप से स्वामी बना जाता है और मालिक उनको वैसे निपटाते हैं जैसा कि वह उचित समझते हैं; दूसरा, श्रम अनुबंध स्वतंत्र होता है। बेशक, इस अर्थ में एक शुद्ध पूंजीवादी समाज जैसी कोई चीज नहीं है। विशेष रूप से, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि कार्यकर्ताओं ने, लंबे और कड़वे राजनीतिक संघर्ष के माध्यम से, कार्यकर्ताओं की कुछ श्रेणियों के लिए "मुक्त श्रम अनुबंध" की कुछ हद तक सुधरी हुई शक्ल हासिल करने में सफलता प्राप्त की है। लेकिन कुल मिला कर वर्तमान दिन की अर्थव्यवस्था "शुद्ध" पूंजीवाद से ज्यादा अलग नहीं है।
उत्पादन लाभ के लिए किया जाता है, उपयोग के लिए नहीं। कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि काम करने में सक्षम और काम करने की चाहत रखने वाले सभी लोग हमेशा रोजगार पाने की स्थिति में हों गे; एक "बेरोजगारों की सेना" लगभग हमेशा मौजूद होती है। कार्यकर्ता लगातार अपनी नौकरी खोने के डर में होते हैं। क्योंकि बेरोजगार और कम भुगतान किए जाने वाले श्रमिक एक लाभदायक बाजार प्रदान नहीं करते हैं, उपभोक्ताओं की वस्तुओं के उत्पादन सीमित हो जाते हैं, परिणाम एक बड़ी कठिनाई होता है।
तकनीकी प्रगति सभी लोगों के काम के बोझ को हल्का करने के बजाय अक्सर और ज्यादा बेरोजगारी में परिणामित होती है। लाभ की मंशा, पूंजीपतियों के बीच मुकाबला के संयोजन के साथ, उस पूंजी को जमा करने और उस के उपयोग में एक अस्थिरता के लिए जिम्मेदार है जो बढ़ते रहने वाले गंभीर उदासी की ओर ले जाती है। असीमित प्रतियोगिता श्रम की एक बड़ा बेकारी और व्यक्तियों के सामाजिक चेतना के निर्बल होने का कारण बनता है जिस का मैं ने पहले उल्लेख किया है।
व्यक्तियों की यह अपंगता मेरे विचार में पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई है। हमारी पूरी शिक्षा योजना इस बुराई से ग्रस्त है। छात्र में एक अतिशयोक्ति प्रतियोगितात्मक रवैया बैठाया जाता है, जिसे अर्जनशील सफलता की अपने भविष्य के कैरियर के लिए एक तैयारी के रूप में पूजा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता।
मैं आश्वस्त हूँ कि इन गंभीर बुराइयों को खत्म करने के लिए सिर्फ एक ही रास्ता है, अर्थात् एक समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना के माध्यम से, जिस के साथ में एक सामाजिक लक्ष्यों की ओर दिशा दी गई एक शिक्षा योजना हो। एक ऐसी अर्थव्यवस्था में, उत्पादन के साधन की स्वामित्व स्वयं समाज के हाथों में होती है और उनका एक योजनाबद्ध तरीके से उपयोग किया जाता है। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था, जो उत्पादन को समुदाय की आवश्यकताओं के समायोजित कर देती है, काम को काम करने में सक्षम सभी लोगों के बीच बांट देगी और प्रत्येक परूष, स्त्री और बच्चे को एक आजीविका की गारंटी देगी। एक व्यक्ति की शिक्षा, उसकी खुद की जन्मजात क्षमता को बढ़ावा देने के अलावा, उस के भीतर हमारे वर्तमान समाज में स्तुति, शक्ति और सफलता के स्थान पर अपने साथी लोगों के प्रति जिम्मेदारी की भावना विकसित करने का प्रयास करेगी।
फिर भी, यह याद करना आवश्यक है कि एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था फिर भी समाजवाद नहीं है। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था, यथार्थ, के साथ एक व्यक्ति की पूरी दासता हो सकती है। समाजवाद की उपलब्धि को कुछ बेहद मुश्किल सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के समाधान की अवश्यक्ता हैः राजनीतिक और आर्थिक शक्ति के दूरगामी केंद्रीकरण को देखते हुए, नौकरशाही को सर्वशक्तिमान और निरंकुश बनने से रोकना कैसे संभव है? कैसे व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा की जा सकती है और उस के साथ नौकरशाही की शक्ति के एक लोकतांत्रिक तोड़ का आश्वासन दिया जा सकता है?
समाजवाद के लक्ष्य और समस्याओं के बारे में स्पष्टता संक्रमण की हमारे युग में सबसे बड़े महत्व वाला है। क्योंकि, वर्तमान परिस्थितियों में, इन समस्याओं की मुक्त और निर्बाध चर्चा एक शक्तिशाली निषेध के दायरे में आ गया है, मेरे विचार में इस पत्रिका की नींव स्थापना एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवा है।


https://www.marxists.org/hindi/reference/whysocialism.htm



Sunday, April 26, 2020

Omar Mukhtar -Movie in Hindi

Set during the reign of Mussolini, this epic tale revolves around Libyan leader, Omar Mukhtar. Omar, an Arab Muslim rebel takes on the Italian attack which is directed towards conquering Libya.

https://youtu.be/_zzL3th42Go

Saturday, April 25, 2020

पूँजीवाद और कृषि

"यदि  पूंजीवाद कृषि का विकास कर सकता, जो आज हर जगह उद्योग से बेहद पिछड़ी हुई है, यदि वह जनसाधारण के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठा सकता, जिन्हें आज भी आश्चर्यजनक तकनीकी उन्नति के बावजूद हर जगह भरपेट भोजन नहीं मिलता और जो दरिद्रता का शिकार है, तो पूंजी के अतिरेक का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। ..... परंतु यदि पूंजीवाद वह सब कुछ करता तो वह पूंजीवाद न होता, क्योंकि आसमान विकास और जनसाधारण के जीवन का अर्धभूखमरी का स्तर इस उत्पादन प्रणाली की आधारभूत  तथा अनिवार्य शर्त तथा पूर्ववस्थाए है। जब तक पूंजीवाद रहेगा, पूंजी का किसी देश-विशेष के जनसाधारण के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए इस्तेमाल नही किया जाएगा, क्योकि उसका मतलब होगा पूंजीपतियों के मुनाफे में कमी, बल्कि उसका इस्तेमाल पिछड़े हुए देशों में पूंजी का निर्यात करके मुनाफा बढ़ाने के लिये किया जाएगा। इन पिछड़े हुए देशो में मुनाफे आम तौर पर ऊंचे होते है, क्योंकि वहां पूंजी का आभाव रहता है, जमीन की कीमत अपेक्षाकृत कम होती है, मजदूरी बहुत कम होती है, कच्चा माल सस्ता होता है।" लेनिन (साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था)

रवींद्रनाथ टैगोर- रूस से चिट्ठी



 मॉस्को से सोवियत व्यवस्था के बारे में दो बड़ी-बड़ी चिट्ठियाँ लिखी थीं। वे कब मिलेंगी और मिलेंगी भी या नहीं, मालूम नहीं।
बर्लिन आ कर एक साथ तुम्हारी दो चिट्ठियाँ मिलीं। घोर वर्षा की चिट्ठी है ये, शांति निकेतन के आकाश में शाल वन के ऊपर मेघ की छाया और जल की धारा में सावन हिलोरें ले रहा है -- यह चित्र मानसपट पर खिंचते ही मेरा चित्त कैसा उत्सुक हो उठता है, तुमसे तो कहना फिजूल है।

परंतु अबकी जो रूस का चक्कर लगाया, तो यह चित्र मन से धुल-पुँछ गया। बार-बार मैं अपने यहाँ के किसानों के कष्टों की बात सोच रहा हूँ। अपने यौवन के आरंभ काल से ही बंगाल के ग्रामों के साथ मेरा निकट परिचय है। तब किसानों से रोज मेरी भेंट-मुलाकात होती थी -- उनकी फरियादें मेरे कानों तक पहुँचती थीं। मैं जानता हूँ कि उनके समान निःसहाय जीव बहुत थोड़े ही होंगे, वे समाज के अँधेरे तहखाने में पड़े हैं, वहाँ ज्ञान का उजाला बहुत ही कम पहुँचता है, और जीवन की हवा तो जाती ही नहीं, समझ लो।

उस जमाने में जो लोग देश की राजनीति के क्षेत्र में अखाड़ा जमाए हुए थे, उनमें से ऐसा कोई भी न था, जो ग्रामवासियों को भी देश का आदमी समझता हो। मुझे याद है, पबना कान्फ्रेंस के समय मैंने उस समय के एक बहुत बड़े नेता से कहा था कि हमारे देश की राष्ट्रीय उन्नति को यदि हम सत्य या वास्तविक बनाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें इन नीचे के लोगों को आदमी बनाना होगा। उन्होंने उस बात को इतना तुच्छ समझ कर उड़ा दिया कि मैं समझ गया कि हमारे देश के नेताओं ने 'देश' नाम के तत्व को विदेशी पाठशाला से समझा है, वे हृदय में अपने देश के मनुष्यों की अनुभूति नहीं करते। ऐसी मनोवृत्ति से लाभ बस इतना ही है कि 'हमारा देश विदेशियों के हाथों में है' इस बात पर हम पश्चात्ताप कर सकते हैं, उत्तेजित हो सकते हैं, कविता लिख सकते हैं, अखबार चला सकते हैं, मगर काम तो तभी शुरू होता है, जब हम अपने देशवासियों को अपना आदमी कहने के साथ ही साथ उसका दायित्व भी स्वीकार कर लें।

तब से बहुत दिन बीत गए। उस पबना कान्फ्रेंस में ग्राम संगठन के विषय में मैंने जो कुछ कहा था, उसकी प्रतिध्वनि बहुत बार सुनी है -- सिर्फ शब्द नहीं, ग्राम-हित के लिए अर्थ भी संग्रह हुआ है, परंतु देश की जिस ऊपरी मंजिल में शब्दों की आवृत्ति हुई है, वहीं वह अर्थ भी घूम-फिर कर विलुप्त हो गया है; समाज के जिस गहरे खंदक में गाँव डूबे हुए हैं, वहाँ तक उसका कुछ अंश भी नहीं पहुँचा।

एक दिन मैंने पद्मा की रेती पर नाव लगा कर साहित्य चर्चा की थी। मन में ऐसी धारणा थी कि लेखनी से भावों की खान खोदूँगा, यही मेरा एकमात्र कार्य है, और किसी काम के मैं लायक ही नहीं। मगर जब यह बात कह-सुन कर किसी को समझा न सका कि हमारे स्वायत्त शासन या स्वराज्य का क्षेत्र है देहातों में, और उसका आंदोलन आज से ही शुरू करना चाहिए, तब कुछ देर के लिए मुझे कलम कान में खोंस कर यह बात कहनी पड़ी कि 'अच्छा, मैं ही इस काम में जुटूँगा।' इस संकल्प में मेरी सहायता करने के लिए सिर्फ एक आदमी मिला था, वे हैं काली मोहन, शरीर उनका रोग से जीर्ण है, दोनों वक्त उन्हें बुखार आता है, और उस पर भी पुलिस के रजिस्टर में उनका नाम चढ़ चुका है।

उसके बाद, फिर वह इतिहास दुर्गम ऊबड़-खाबड़ मार्ग से थोड़ा-सा तोशा ले कर चला है। मेरा अभिप्राय था -- किसानों को आत्म-शक्ति में दृढ़ करना ही होगा। इस विषय में दो बातें सदा ही मेरे हृदय में आंदोलित होती रही हैं -- जमीन पर अधिकार न्यायतः जमींदार का नहीं, किसान का होना चाहिए; दूसरे, समवाय नीति के अनुसार सभी खेत एक साथ मिलाए बिना किसानों की कभी उन्नति हो ही नहीं सकती। मांधाता के जमाने का हल ले कर छोटे-से मेड़दार खेत में फसल पैदा करना और फूटी गागर में पानी लाना, दोनों एक ही बात है।

किंतु ये दोनों ही मार्ग दुरूह हैं। पहले तो किसानों को जमीन का अधिकार देने से वह स्वत्व दूसरे ही क्षण महाजन के हाथ में चला जाएगा, इससे उनके कष्टों का भार बढ़ने के सिवा घटेगा नहीं। खेतों को एक साथ मिला कर खेती करने के विषय में मैंने एक दिन किसानों को बुला कर इसकी चर्चा की थी। सियालदह में मैं जिस मकान में रहता था, उसके बरामदे से एक के बाद एक दिगंत तक खेत ही खेत दिखाई देते थे। खूब सबेरे ही उठ कर हल-बैल लिए एक-एक किसान आता और अपना छोटा-सा खेत जोत कर लौट जाता। इस तरह बँटी हुई शक्ति का कितना अपव्यय होता है, सो मैंने अपनी आँखों से देखा है। किसानों को बुला कर उन्हें जब सब खेतों को एक साथ मिला कर मशीन के हल से खेती करने की सहूलियतें मैंने समझाईं, तो उन लोगों ने उसे उसी समय मान लिया। मगर कहा, 'हम लोग कम-अकल हैं। इतना भारी काम कैसे सँभालेंगे?' अगर मैं कह सकता कि उसका भार लेने को मैं तैयार हूँ, तो फिर कोई झंझट ही न रहती, पर मुझमें इतनी सामर्थ्य कहाँ? ऐसे काम के चलाने का भार लेना मेरे लिए असम्भव है -- वह शिक्षा, वह शक्ति मुझमें नहीं है।

परंतु यह बात बराबर मेरे हृदय में जाग्रत रही है। जब बोलपुर में को-ऑपरेटिव की व्यवस्था का भार विश्व भारती के हाथ में आया, तब फिर एक दिन आशा हुई थी कि इस बार शायद मौका मिल जाएगा। जिनके हाथ में ऑफिस का भार है, उनकी उमर कम है, मुझसे उनकी बुद्धि कहीं किफायती और शिक्षा बहुत ज्यादा है। परंतु हमारे युवक ठहरे स्कूल-सिखुए, और किताब-रट्टू है उनका हृदय। हमारे देश में जो शिक्षा प्रचलित है, उससे हममें विचार करने की शक्ति, साहस और काम करने की दक्षता नहीं रहती, किताबी बोलियों की पुनरावृत्ति करने पर ही छात्रों का उद्धार अवलंबित है।

बुद्धि की इस पल्लवग्राहिता के सिवा हमारे अंदर और भी एक विपत्ति का कारण मौजूद है। स्कूल में जिन्होंने पाठ कंठस्थ किए हैं और स्कूल के बाहर रह कर जिन्होंने पाठ कंठस्थ नहीं किए, इन दोनों में श्रेणी-विभाजन हो चुका है -- शिक्षित और अशिक्षित का। स्कूल में पढ़े मन का आत्मीयता-ज्ञान पोथी-पढ़े के पाठ के बाहर नहीं पहुँचा सकता। जिन्हें हम गँवार किसान कहते हैं, पोथी के पन्नों का पर्दा भेद कर उन तक हमारी दृष्टि नहीं जाती, वे हमारे लिए अस्पष्ट हैं। इसलिए वे हमारे सब प्रयत्नों के बाहर रह कर स्वभावतः ही अलग छूट जाते हैं। यही कारण है कि को-ऑपरेटिव या सहकारी समितियों के जरिए अन्य देशों में जब समाज की निम्न श्रेणी में एक सृष्टि का कार्य चल रहा है, तब हमारे देश में दबे-हाथों रुपए उधार देने के सिवा आगे कुछ काम नहीं बढ़ सका। क्योंकि उधार देना, उसका सूद जोड़ना और रुपए वसूल करना अत्यंत भीरु हृदय के लिए भी सहज काम है, बल्कि यह कहना चाहिए कि भीरु हृदय के लिए ही सहज है, उसमें यदि गिनती की भूल न हो तो कोई आशंका ही नहीं।

बुद्धि का साहस और जनसाधारण के प्रति सहानुभूति --- इन दोनों के अभाव से ही दुखी का दुख दूर करना हमारे देश में इतना कठिन काम हो गया है, परंतु इस अभाव के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि क्लर्क-फैक्टरी बनाने के लिए ही एक दिन हमारे देश में वणिक-राज्य द्वारा स्कूल खोले गए थे। मेजों की दुनिया में मालिक के साथ सायुज्य प्राप्त करने में ही हमारी सद्गति है। इसीलिए उम्मीदवारी में अकृतार्थ होते ही हमारी विद्या-शिक्षा व्यर्थ हो जाती है। इसीलिए हमारे देश में देश का काम प्रधानतः कांग्रेस के पंडाल और अखबारों में प्रकाशित लेखमाला में शिक्षित संप्रदाय की वेदना-उद्घोषणा में ही चक्कर काट रहा था। हमारे कलम से बँधे हाथ देश को बनाने के काम में आगे बढ़ ही न सके।

मैं भी भारत की आब-हवा में पला हूँ, इसीलिए जोर के साथ इस बात को कल्पना में लाने की हिम्मत न कर सका कि करोड़ों जनसाधारण की छाती पर से अशिक्षा और असामर्थ्य का पहाड़ उतारना संभव है। अब तक यही सोचता रहा हूँ कि थोड़ा-बहुत कुछ किया जा सकता है या नहीं। सोचा था, समाज का एक चिरबाधा-ग्रस्त जो नीचे का अंश है, जहाँ कभी भी सूर्य का प्रकाश पूर्ण रूप से नहीं पहुँचाया जा सकता, वहाँ कम से कम तेल की बत्ती जलाने के लिए कमर कस कर जुट जाना चाहिए। परंतु साधारणतः उतना कर्तव्य-बोध भी लोगों के दिल पर काफी जोर के साथ धक्का नहीं लगाता है, क्योंकि जिन्हें हम अँधेरे में देख ही नहीं सकते, उनके लिए कुछ भी किया जा सकता है -- यह बात भी साफ तौर पर हमारे मन में नहीं आती।

इस तरह का स्वल्प साहसी हृदय ले कर रूस आया था। सुना था, यहाँ किसानों और मजदूरों में शिक्षा प्रचार का कार्य बहुत ज्यादा बढ़ गया है और बढ़ता ही जाता है। सोचा था, इसके मानी यह हैं कि यहाँ ग्रामीण पाठशालाओं में 'शिशु शिक्षा' का पहला भाग या बहुत हो तो दूसरा भाग पढ़ाने का कार्य संख्या में हमारे देश से अधिक हुआ है। सोचा था, उनकी सांख्यिक सूची उलट-फेर कर देख सकूँगा कि वहाँ कितने किसान दस्तखत कर सकते हैं और कितनों ने दस तक पहाड़ा याद कर लिया है।

याद रखना, यहाँ जिस क्रांति ने जार का शासन लुप्त किया है, वह हुई है 1917 में। अर्थात उस घटना को हुए सिर्फ तेरह वर्ष हुए हैं। इस बीच में उन्हें क्या घर और क्या बाहर, सर्वत्र प्रचंड विरोध के साथ युद्ध करना पड़ा है। ये अकेले हैं, और इनके ऊपर एक बिलकुल टूटे-फूटे राष्ट्र की व्यवस्था का भार है। मार्ग इनका पूर्व दुःशासन के कूड़े-करकट की गंदगी से भरा पड़ा है -- दुर्गम है। जिस आत्म-क्रांति के प्रबल तूफान के समय इन लोगों ने नवयुग के घाट के लिए यात्रा की थी, उस क्रांति के प्रच्छन्न और प्रकाश्य सहायक थे इंग्लैंड और अमेरिका। आर्थिक अवस्था या पूँजी इनके पास बहुत ही थोड़ी है -- विदेश के महाजनों की गद्दियों में इनकी क्रेडिट नहीं है। देश में इनके कल-कारखाने काफी तादाद में न होने से अर्थोपार्जन में ये शक्तिहीन हैं, इसलिए किसी तरह पेट का अन्न बेच कर इनका उद्योग पर्व चल रहा है। इस पर राष्ट्र व्यवस्था में सबसे बढ़ कर जो अनुत्पादन विभाग -- सेना -- है, उसके पूरी तरह से सुदक्ष रखने का अपव्यय भी इनके लिए अनिवार्य है। क्योंकि आधुनिक महाजनी युग की समस्त राष्ट्र-शक्तियाँ इनकी शत्रु हैं और उन सबों ने अपनी-अपनी अस्त्र-शालाएँ छत तक भर रखी हैं।

याद है, इन्हीं लोगों ने लीग ऑफ नेशंस में शस्त्र-निषेध का प्रस्ताव भेज कर कपटी शांति-इच्छुकों के मन को चौंका दिया था। क्योंकि अपना प्रताप बढ़ाना या उसकी रक्षा करना सोवियतों का लक्ष्य नहीं है -- इनका उद्देश्य है सर्वसाधारण की शिक्षा, स्वास्थ्य, अन्न और जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के उपाय, उपकरणों को प्रकृष्ट प्रणाली से व्यापक बना देना, इन्हीं के लिए निरुपद्रव शक्ति सबसे अधिक आवश्यकता है। परंतु तुम तो जानते ही हो, लीग ऑफ नेशंस के सभी पहलवान गुंडई के बहु-विस्तृत उद्योग को किसी तरह भी बंद नहीं करना चाहते; महज इसलिए कि शांति की जरूरत है, सब मिल कर पुकार मचाते हैं। यही कारण है कि सभी साम्राज्यवादी देशों में अस्त्र-शस्त्र के कँटीले जंगल की फसल अन्न की फसल से आगे बढ़ती जा रही है। इसी बीच कुछ समय तक रूस में बड़ा भारी दुर्भिक्ष भी पड़ा था -- कितने आदमी मरे, इसका निश्चय नहीं। उसकी ठेस सह कर भी ये सिर्फ आठ वर्ष से नए युग को गढ़ने का काम कर रहे हैं -- बाहर के उपकरणों का अभाव होते हुए भी।

यह मामूली काम नहीं है -- यूरोप और एशिया भर में इनका बड़ा भारी राष्ट्र क्षेत्र है। प्रजा मंडली मे इतनी विभिन्न जातियाँ हैं कि भारत में भी उतनी न होंगी। उनकी भू-प्रकृति और मानव प्रकृति में परस्पर पार्थक्य बहुत ज्यादा है। वास्तव में इनकी समस्या बहु-विचित्र जातियों से भरी हुई है, मानो यह बहु-विचित्र अवस्थापन्न विश्व-संसार की समस्या का ही संक्षिप्त रूप हो।

तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि बाहर से जब मॉस्को शहर देखा, तो यह यूरोप के और सब धनी शहरों की तुलना में अत्यन्त मलिन मालूम हुआ। सड़कों पर जो लोग चल-फिर रहे हैं, उनमें एक भी शौकीन नहीं, सारा शहर मामूली रोजाना के कपड़े पहने हुए है। रोजाना के कपड़ों में श्रेणी भेद नहीं होता, श्रेणी भेद होता है शौकीनी पोशाक में। यहाँ साज-पोशाक में सब एक हैं। सब मजदूरों के ही मुहल्ले हैं -- जहाँ निगाह दौड़ाओ, वहाँ-वहाँ ही ये हैं। यहाँ मजदूरों और किसानों का कैसा परिवर्तन हुआ है, इसे देखने के लिए पुस्तकालय जा कर किताब खोलने अथवा गाँवों या बस्ती में जा कर नोट करने की जरूरत नहीं पड़ती। जिन्हें हम 'भद्र' या 'शरीफ आदमी' कहते हैं, वे कहाँ हैं, सवाल तो यह है।

यहाँ की साधारण जनता भद्र या शरीफ आदमियों के आवरण की छाया से ढकी नहीं है; जो युग-युग से नेपथ्य में थे, वे आज बिल्कुल खुले मैदान में आ गए हैं। ये पहली पोथी पढ़ कर सिर्फ छापे के हरूफ ढूँढ़ते फिरते होंगे -- मेरी इस भूल का सुधार बहुत जल्दी हो गया। इन्हीं कई सालों में ये मनुष्य हो गए हैं।

अपने देश के किसान-मजदूरों की याद उठ आई। 'अलिफ़-लैला' के जादूगर की करामात-सी मालूम होने लगी। दस ही वर्ष पहले की बात है, ये लोग हमारे देश के मजदूरों की तरह ही निरक्षर, निःसहाय और निरन्न थे, हमारे ही समान अंध-संस्कार और धर्म-मूढ़ता इनमें मौजूद थी। दुख में, आफत-विपत्ति में देवता के द्वार पर इन्होंने सिर पटके हैं। परलोक के भय से पंडों-पुरोहितों के हाथ और इहलोक के भय से राजपुरुष, महाजन और जमींदारों के हाथ अपनी बुद्धि को ये बंधक रख चुके थे। जो इन्हें जूतों से मारते थे, उन्हीं के वे ही जूते साफ करना इनका काम था। हजारों वर्ष से इनकी प्रथा-पद्धतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यान और वाहन, चरखा और कोल्हू -- सब बाबा आदम के जमाने के चले आते थे। इनसे हाल के हथियार से हाथ लगाने को कहा जाता था, तो ये बिगड़ खड़े होते थे। हमारे देश के तीस करोड़ आदमियों पर जैसे भूत काल का भूत सवार है, उसने जैसे उनकी आँखें मींच रखी हैं। इन लोगों का भी ठीक वैसा ही हाल था। इन्हीं कई वर्षों में इन्होंने उस मूढ़ता और अक्षमता का पहाड़ हिला दिया तो किस तरह हिलाया? इस बात से अभागे भारतवासियों को जितना आश्चर्य हुआ है, उतना और किसको होगा बताओ? और मजा यह कि जिस समय यह परिवर्तन चल रहा था, उस समय हमारे देश का बहु-प्रशंसित 'ला एंड आर्डर' (कानून और व्यवस्था) नहीं था।

तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ कि यहाँ के सर्वसाधारण की शिक्षा का चेहरा देखने के लिए मुझे दूर नहीं जाना पड़ा, या स्कूल के इंस्पेक्टर की तरह हिज्जे पूछते समय यह नहीं देखना पड़ा कि ये 'राणा' और 'वाणी' में 'ण' लगते हैं या 'न'। एक दिन शाम को मॉस्को शहर में एक मकान में गया। वह किसानों के रहने का घर था। गाँव से जब किसी काम से वे शहर आते हैं, तो सस्ते में उसी मकान में उन्हें रहने दिया जाता है। उन लोगों से मेरी बातचीत हुई थी। उस तरह की बातें जब हमारे देश के किसानों से होंगी, उस दिन हम साइमन कमीशन का जवाब दे सकेंगे।

और कुछ नहीं, स्पष्ट दिखाई देता है कि सभी कुछ हो सकता था, मगर हुआ नहीं। न सही, हमें मिला है 'ला एंड आर्डर'। हमारे यहाँ सांप्रदायिक लड़ाइयाँ होती रहती हैं और इसके लिए हमारी खास तौर से बदनामी की जाती है। यहाँ भी यहूदी संप्रदाय के साथ ईसाई संप्रदाय की लड़ाई हमारे ही देश के आधुनिक उपसर्ग की तरह अत्यंत कुत्सित और बड़े ही जंगली ढंग से होती थी -- शिक्षा और शासन के द्वारा एकदम जड़ से उसका नाश कर दिया गया है। कितनी ही बार मैंने सोचा है कि साइमन कमीशन के लिए भारत में जाने से पहले एक बार रूस घूम जाना उचित था।

तुम जैसी भद्र महिला को साधारण भद्रतापूर्ण चिट्ठी न लिख कर इस तरह की चिट्ठी क्यों लिख रहा हूँ, इसका कारण सोचोगी तो समझ जाओगी कि देश की दशा ने मेरे मन में आंदोलन मचा रखा है। जलियाँवाला बाग के उपद्रव के बाद और भी एक बार मेरे मन में ऐसी अशांति हुई थी। ढाका के उपद्रव के बाद आज फिर उसी तरह दुखित हो रहा हूँ। उस घटना पर सरकारी पलस्तर चढ़ा है, मगर इस तरह के सरकारी पलस्तर की क्या कीमत है, यह राजनीतिज्ञ समझते हैं। ऐसी घटना अगर सोवियत रूस में होती, तो किसी भी पलस्तर से उसका कलंक नही ढक सकता था। सुधीन्द्र ने भी -- हमारे देश के राष्ट्रीय आंदोलन पर जिसकी कभी भी किसी तरह की श्रद्धा नहीं थी -- अबकी बार मुझे ऐसी चिट्ठी लिखी है, जिससे पता चलता है कि सरकारी धर्मनीति के प्रति धिक्कार आज हमारे देश में कहाँ तक बढ़ गया है। खैर, आज तुम्हारी चिट्ठी अधूरी ही रही -- कागज और समय खतम हो आया, दूसरी चिट्ठी में इसके अपूर्ण अंश को पूरा करूँगा।

28 सितंबर, 1930

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Thursday, April 23, 2020

भगत सिंह छात्र युवा संगठन, पटना द्वारा जारी अपील

असहाय मजदूरों और विद्यार्थियों की सहायता के लिए 'मजदूर-विद्यार्थी सहायता कोष' में अपना योगदान दें।___________________________

साथियो! 
नोवेल कोरोना वायरस संकट और अचानक किए गए लॉक डाउन ने आम जनजीवन को अस्त व्यस्त कर दिया है। इस संकट ने मजदूर वर्ग, खासकर दिहाड़ी तथा अस्थायी अल्प वैतनिक मजदूरों को तबाह कर दिया है। इस पर भी सरकारी तंत्र के अत्याचार और ठगी तथा साधनसम्पन्न वर्ग के नफरत भरे रवैये ने इनके इस संकट को और कठिन बना दिया है। 
ऐसे कठिन दौर में हमारा 'भगत सिंह छात्र युवा संगठन' संकटग्रस्त मजदूर साथियों और विद्यार्थियों की मदद के लिए एक प्रयास कर रहा है। हमारे संगठन के सदस्य साथीगण इसमें अपना योगदान कर रहे हैं। हम इस प्रयास में अन्य प्रगतिशील तथा मजदूर वर्ग के संघर्ष में एकजुटता रखनेवाले संगठनों के साथ समन्वय कर इस प्रयास के दायरे को बड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। हम चाहेंगे कि समाज के संवेदनशील और मजदूर साथियों व विद्यार्थियों के संघर्ष के साथ अपनी सहभागिता रखनेवाले नागरिक हमारे इस 'मजदूर-विद्यार्थी सहायता कोष' में अपना योगदान कर संकटग्रस्त मजदूर साथियों व विद्यार्थियों  की मदद के लिए आगे आएं और हमारे इस प्रयास को सार्थक बनाएं। आप अपना कोई भी योगदान, जिसकी मात्रा कुछ भी हो, निम्न खाता में भेज सकते हैं:
Account number: 18950110003817
IFSC Code: UCBA0001895
UCO Bank
St. Michael School Branch,Digha, Patna

आप फोन पे और गूगल पे 
मोबाइल नम्बर 7739423692
द्वारा भी अपना योगदान भेज सकते हैं।
विद्यानंद चौधरी

हमारे सदस्य साथीगण
इंद्रजीत कुमार, शत्रुध्न कुमार, राजकिशोर कुमार, निरंजन कुमार, कुमार शिवम, अमृत राज इत्यादि। 
निवेदक -  भगत सिंह छात्र युवा संगठन 
संपर्क- 9334356085

Tuesday, April 21, 2020

समाजवाद और धर्म-लेनिन (1905)



वर्तमान समाज पूर्ण रूप से जनसंख्या की एक अत्यंत नगण्य अल्पसंख्यक द्वारा, भूस्वामियों और पूँजीपतियों द्वारा, मज़दूर वर्ग के व्यापक अवाम के शोषण पर आधारित है। यह एक ग़ुलाम समाज है, क्योंकि "स्वतंत्र" मज़दूर जो जीवन भर पूँजीपजियों के लिए काम करते हैं, जीवन-यापन के केवल ऐसे साधनों के "अधिकारी" हैं जो मुनाफ़ा पैदा करने वाले ग़ुलामों को जीवित रखने के लिए, पूँजीवादी ग़ुलामी को सुरक्षित और क़ायम रखने के लिए बहुत ज़रूरी हैं।

मज़दूरों का आर्थिक उत्पीड़न अनिवार्यतः हर प्रकार के राजनीतिक उत्पीड़न और सामाजिक अपमान को जन्म देता है तथा आम जनता के आत्मिक और नैतिक जीवन को निम्न श्रेणी का और अन्धकारपूर्ण बनाना आवश्यक बना देता है। मज़दूर अपनी आर्थिक मुक्ति के संघर्ष के लिए न्यूनाधिक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन जब तक पूँजी की सत्ता का उन्मूलन नहीं कर दिया जाता तब तक स्वतंत्रता की कोई भी मात्रा उन्हें दैन्य, बेकारी और उत्पीड़न से मुक्त नहीं कर सकती। धर्म बौद्धिक शोषण का एक रूप है जो हर जगह अवाम पर, जो दूसरों के लिए निरन्तर काम करने, अभाव और एकांतिकता से पहले से ही संत्रस्त रहते हैं, और भी बड़ा बोझ डाल देता है। शोषकों के विरुद्ध संघर्ष में शोषित वर्गों की निष्क्रियता मृत्यु के बाद अधिक सुखद जीवन में उनके विश्वास को अनिवार्य रूप से उसी प्रकार बल पहुँचाती है जिस प्रकार प्रकृति से संघर्ष में असभ्य जातियों की लाचारी देव, दानव, चमत्कार और ऐसी ही अन्य चीजों में विश्वास को जन्म देती है। जो लोग जीवन भर मशक्कत करते और अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें धर्म इहलौकिक जीवन में विनम्र होने और धैर्य रखने की तथा परलोक सुख की आशा से सान्त्चना प्राप्त करने की शिक्षा देता है। लेकिन जो लोग दूसरों के श्रम पर जीवित रहते हैं उन्हें धर्म इहजीवन में दयालुता का व्यवहार करने की शिक्षा देता है, इस प्रकार उन्हें शोषक के रूप में अपने संपूर्ण अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने का एक सस्ता नुस्ख़ा बता देता है और स्वर्ग में सुख का टिकट सस्ते दामों दे देता है। धर्म जनता के लिए अफीम है। धर्म एक प्रकार की आत्मिक शराब है जिसमें पूँजी के ग़ुलाम अपनी मानव प्रतिमा को, अपने थोड़े बहुत मानवोचित जीवन की माँग को, डुबा देते हैं।

लेकिन वह ग़ुलाम जो अपनी ग़ुलामी के प्रति सचेत हो चुका है और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष में उठ खड़ा हुआ है, उसकी ग़ुलामी आधी उसी समय समाप्त हो चुकी होती है। आधुनिक वर्ग चेतन मजदूर, जो बड़े पैमाने के कारखाना-उद्योग द्वारा शिक्षित और शहरी जीवन के द्वारा प्रबुद्ध हो जाता है, नफरत के साथ धार्मिक पूर्वाग्रहों को त्याग देता है और स्वर्ग की चिन्ता पादरियों और पूँजीवादी धर्मांधों के लिए छोड़ कर अपने लिए इस धरती पर ही एक बेहतर जीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। आज का सर्वहारा समाजवाद का पक्ष ग्रहण करता है जो धर्म के कोहरे के ख़िलाफ संघर्ष में विज्ञान का सहारा लेता है और मज़दूरों को इसी धरती पर बेहतर जीवन के लिए वर्तमान में संघर्ष के लिए एकजुट कर उन्हें मृत्यु के बाद के जीवन के विश्वास से मुक्ति दिलाता है।

धर्म को एक व्यक्तिगत मामला घोषित कर दिया जाना चाहिए। समाजवादी अक्सर धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण को इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते हैं। लेकिन किसी भी प्रकार की ग़लतफहमी न हो, इसलिए इन शब्दों के अर्थ की बिल्कुल ठीक व्याख्या होनी चाहिए। हम माँग करते हैं कि जहाँ तक राज्य का सम्बन्ध है, धर्म को व्यक्तिगत मामला मानना चाहिए। लेकिन जहाँ तक हमारी पार्टी का सवाल है, हम किसी भी प्रकार धर्म को व्यक्तिगत मामला नहीं मानते। धर्म से राज्य का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए और धार्मिक सोसायटियों का सरकार की सत्ता से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को यह पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह जिसे चाहे उस धर्म को माने, या चाहे तो कोई भी धर्म न माने, अर्थात नास्तिक हो, जो नियमतः हर समाजवादी समाज होता है। नागरिकों में धार्मिक विश्वास के आधार पर भेदभाव करना पूर्णतः असहनीय है। आधिकारिक काग़ज़ात में किसी नागरिक के धर्म का उल्लेख भी, निस्सन्देह, समाप्त कर दिया जाना चाहिए। स्थापित चर्च को न तो कोई सहायता मिलनी चाहिए और न पादरियों को अथवा धार्मिक सोसायटियों को राज्य की ओर से किसी प्रकार की रियायत देनी चाहिए। इन्हें सम-विचार वाले नागरिकों की पूर्ण स्वतन्त्र संस्थाएँ बन जाना चाहिए, ऐसी संस्थाएँ जो राज्य से पूरी तरह स्वतंत्र हों। इन माँगों को पूरा किये जाने से वह शर्मनाक और अभिशप्त अतीत समाप्त हो सकता है जब चर्च राज्य की सामन्ती निर्भरता पर, और रूसी नागरिक स्थापित चर्च की सामन्ती निर्भरता पर जीवित था, जब मध्यकालीन, धर्म-न्यायालयीय क़ानून (जो आज तक हमारी दंडविधि संहिताओं और क़ानूनी किताबों में बने हुए हैं) अस्तित्व में थे और लागू किये जाते थे, जो आस्था अथवा अनास्था के आधार पर मनुष्यों को दण्डित करते, मनुष्य की अन्तरात्मा का हनन किया करते थे, और आरामदेह सरकारी नौकरियों तथा सरकार द्वारा प्राप्त आमदनियों को स्थापित चर्च के इस या उस धर्म विधान से सम्बद्ध किया करते थे। समाजवादी सर्वहारा आधुनिक राज्य और आधुनिक चर्च से जिस चीज़ की माँग करता है, वह है-राज्य से चर्च का पूर्ण पृथक्करण।

रूसी क्रांति को यह माँग राजनीतिक स्वतन्त्रता के एक आवश्यक घटक के रूप में पूरी करनी चाहिए। इस मामले में रूसी क्रान्ति के समक्ष एक विशेष रूप से अनुकूल स्थिति है, क्योंकि पुलिस-शासित सामन्ती एकतन्त्र की घृणित नौकरशाही से पादरियों में भी असन्तोष, अशान्ति और घृणा उत्पन्न हो गयी है। रूसी ऑर्थोडाक्स चर्च के पादरी कितने भी अधम और अज्ञानी क्यों न हों, रूस में पुरानी, मध्यकालीन व्यवस्था के पतन के वज्रपात से वे भी जागृत हो गये हैं, वे भी स्वतन्त्रता की माँग में शामिल हो रहे हैं। नौकरशाही व्यवहार और अफ़सरवाद के, पुलिस के लिए जासूसी करने के ख़िलाफ़- जो "प्रभु के सेवकों" पर लाद दी गयी है - विरोध प्रकट कर रहे हैं। हम समाजवादियों को चाहिए कि इस आन्दोलन को अपना समर्थन दें। हमें पुरोहित वर्ग के ईमानदार सदस्यों की माँगों को उनकी परिपूर्णता तक पहुँचाना चाहिए और स्वतन्त्रता के बारे में उनकी प्रतिज्ञाओं के प्रति उन्हें दृढ़ निश्चयी बनाते हुए यह माँग करनी चाहिए कि वे धर्म और पुलिस के बीच विद्यमान सारे सम्बन्धों को दृढ़तापूर्वक समाप्त कर दें। या तो तुम सच्चे हो, और इस हालत में तुम्हें चर्च और राज्य तथा स्कूल और चर्च के पूर्ण पृथक्करण का, धर्म के पूर्ण रूप से और सर्वथा व्यक्तिगत मामला घोषित किये जाने का पक्ष ग्रहण करना चाहिए। या फिर तुम स्वतन्त्रता के लिए इन सुसंगत माँगों को स्वीकार नहीं करते, और इस हालत में तुम स्पष्टतः अभी तक आरामदेह सरकारी नौकरियों और सरकार से प्राप्त आमदनियों से चिपके हुए हो। इस हालत में तुम स्पष्टतः अपने शस्त्रों की आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास नहीं करते, और राज्य की घूस प्राप्त करते रहना चाहते हो। ऐसी हालत में समस्त रूस के वर्ग चेतन मज़दूर तुम्हारे ख़िलाफ़ निर्मम युद्ध की घोषणा करते हैं।

जहाँ तक समाजवादी सर्वहारा की पार्टी का प्रश्न है, धर्म एक व्यक्तिगत मामला नहीं है। हमारी पार्टी मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले अग्रणी योद्धाओं की संस्था है। ऐसी संस्था धार्मिक विश्वासों के रूप में वर्ग चेतना के अभाव, अज्ञान अथवा रूढ़िवाद के प्रति न तो तटस्थ रह सकती है, न उसे रहना चाहिए। हम चर्च के पूर्ण विघटन की मांग करते हैं ताकि धार्मिक कोहरे के ख़िलाफ़ हम शुद्ध सैद्धान्तिक और वैचारिक अस्त्रों से, अपने समाचारपत्रों और भाषणों के साधनों से संघर्ष कर सकें। लेकिन हमने अपनी संस्था, रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की स्थापना ठीक ऐसे ही संघर्ष के लिए, मज़दूरों के हर प्रकार के धार्मिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए की है। और हमारे लिए वैचारिक संघर्ष केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, सारी पार्टी का, समस्त सर्वहारा का, मामला है। यदि बात ऐसी ही है, तो हम अपने कार्यक्रम में यह घोषणा क्यों नहीं करते कि हम अनीश्वरवादी हैं? हम अपनी पार्टी में ईसाइयों अथवा ईश्वर में आस्था रखने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के शामिल होने पर क्यों नहीं रोक लगा देते?

इस प्रश्न का उत्तर ही उन अति महत्वपूर्ण अन्तरों को स्पष्ट करेगा जो बुर्जुआ डेमोक्रेटों और सोशल डेमोक्रेटों द्वारा धर्म का प्रश्न उठाने के तरीक़ों में विद्यमान हैं।

हमारा कार्यक्रम पूर्णतः वैज्ञानिक, और इसके अतिरिक्त भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण पर आधारित है। इसलिए हमारे कार्यक्रम की व्याख्या में धार्मिक कुहासे के सच्चे ऐतिहासिक और आर्थिक स्रोतों की व्याख्या भी आवश्यक रूप से शामिल है। हमारे प्रचार कार्य में आवश्यक रूप से अनीश्वरवाद का प्रचार भी शामिल होना चाहिए; उपयुक्त वैज्ञानिक साहित्य का प्रकाशन भी, जिस पर एकतन्त्रीय सामन्ती शासन ने अब तक कठोर प्रतिबन्ध लगा रखा था और जिसे प्रकाशित करने पर दण्ड दिया जाता था, अब हमारी पार्टी के कार्य का एक क्षेत्र बन जाना चाहिए। अब हमें सम्भवतः एंगेल्स की उस सलाह का अनुसरण करना होगा जो उन्होंने एक बार जर्मन समाजवादियों को दी थी-अर्थात हमें फ़्रांस के अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधकों और अनीश्वरवादियों के साहित्य का अनुवाद करना और उसका व्यापक प्रचार करना चाहिए।

लेकिन हमें किसी भी हालत में धार्मिक प्रश्न को अरूप, आदर्शवादी ढंग से, वर्ग संघर्ष से असम्बद्ध एक "बौद्धिक" प्रश्न के रूप में उठाने की ग़लती का शिकार नहीं बनना चाहिए, जैसा कि बुर्जुआ वर्ग के बीच उग्रवादी जनवादी कभी-कभी किया करते हैं। यह सोचना मूर्खता होगी कि मज़दूर अवाम के सीमाहीन शोषण और संस्कारहीनता पर आधारित समाज में धार्मिक पूर्वाग्रहों को केवल प्रचारात्मक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है। इस बात को भुला देना कि मानव जाति पर लदा धर्म का जुवा समाज के अन्तर्गत आर्थिक जुवे का ही प्रतिबिम्ब और परिणाम है, बुर्जुआ संकीर्णता ही होगी। सर्वहारा यदि पूँजीवाद की काली शक्तियों के विरुद्ध स्वयं अपने संघर्ष से प्रबुद्ध नहीं होगा तो पुस्तिकाओं और शिक्षाओं की कोई भी मात्रा उन्हें प्रबुद्ध नहीं बना सकती। हमारी दृष्टि में, धरती पर स्वर्ग बनाने के लिए उत्पीड़ित वर्ग के इस वास्तविक क्रान्तिकारी संघर्ष में एकता परलोक के स्वर्ग के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण की एकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

यही कारण है कि हम अपने कार्यक्रम में अपनी नास्तिकता को न तो शामिल करते हैं और न हमें करना चाहिए। और यही कारण है कि हम ऐसे सर्वहाराओं को, जिनमें अभी तक पुराने पूर्वाग्रहों के अवशेष विद्यमान हैं, अपनी पार्टी में शामिल होने पर न तो रोक लगाते हैं, न हमें इस पर रोक लगानी चाहिए। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा सदा देंगे और हमारे लिए विभिन्न "ईसाइयों" की विसंगतियों से संघर्ष चलाना भी जरूरी है। लेकिन इसका जरा भी यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक प्रश्न को प्रथम वरीयता दे देनी चाहिये। न ही इसका यह अर्थ है कि हमें उन घटिया मत-मतान्तरों और निरर्थक विचारों के कारण, जो तेजी से महत्वहीन होते जा रहे हैं और स्वयं आर्थिक विकास की धारा में तेजी से कूड़े के ढेर की तरह किनारे लगते जा रहे हैं, वास्तविक क्रान्तिकारी आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष की शक्तियों को बँट जाने देना चाहिए।

प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग ने अपने आप को हर जगह धार्मिक झगड़ों को उभाड़ने के दुष्कृत्यों में संलग्न किया है, और वह रूस में भी ऐसा करने जा रहा है-इसमें उसका उद्देश्य आम जनता का ध्यान वास्तविक महत्व की और बुनियादी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से हटाना है जिन्हें अब समस्त रूस का सर्वहारा वर्ग क्रांतिकारी संघर्ष में एकजुट हो कर व्यावहारिक रूप से हल कर रहा है। सर्वहारा की शक्तियों को बाँटने की यह प्रतिक्रियावादी नीति, जो आज ब्लैक हंड्रेड (राजतंत्र समर्थक गिरोहों) द्वारा किये हत्याकाण्डों में मुख्य रूप से प्रकट हुई है, भविष्य में और परिष्कृत रूप ग्रहण कर सकती हैं। हम इसका विरोध हर हालत में शान्तिपूर्वक, अडिगता और धैर्य के साथ सर्वहारा एकजुटता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा द्वारा करेंगे - एक ऐसी शिक्षा द्वारा करेंगे जिसमें किसी भी प्रकार के महत्वहीन मतभेदों के लिए कोई स्थान नहीं है। क्रान्तिकारी सर्वहारा, जहाँ तक राज्य का संबंध है, धर्म को वास्तव में एक व्यक्तिगत मामला बनाने में सफल होगा। और इस राजनीतिक प्रणाली में, जिसमें मध्यकालीन सड़न साफ़ हो चुकी होगी, सर्वहारा आर्थिक ग़ुलामी के, जो कि मानव जाति के धार्मिक शोषण का वास्तविक स्रोत है, उन्मूलन के लिए सर्वहारा वर्ग व्यापक और खुला संघर्ष चलायेगा।

 

लेनिन

Monday, April 20, 2020

*ईश्वर महान (नही) है !*


   21वीं सदी में दुनिया में जो पांच दस सबसे महान नास्तिक विचारक पैदा हुए हैं, उनमें से *रिचर्ड डॉकिंस* के बाद सबसे बड़ा नाम आता है, *किस्तोंपर हीचेन* का । उन्होंने 2007 में  *"गॉड इज नॉट ग्रेट"* नाम की किताब लिखी और उस किताब में उन्होंने  सैकड़ों सबूत दे कर यह साबित करने की प्रयास किया, कि पिछले 5000 साल में मानव जाति पर जितने भी महा भयंकर संकट आए हैं उस दौरान  दुनिया के किसी भी ईश्वर, अल्लाह या गॉड ने मानव जाति की कोई मदद नहीं की। *मानव जाति में जो मुश्किल से 5% बुद्धिमान लोग हैं जिन्होंने मानव जाति को हर संकट के समय कोई न कोई रास्ता ढूंढ कर दिया है ।* 

    लेकिन धर्म के नाम पर जो लोग अपना पेट पालते हैं और अपने आप को धर्म का ठेकेदार और ईश्वर का  प्रतिनिधि समझते हैं उन लोगों ने *मानव जाति के जो 95% लोग है, और जो जन्मजात बुद्धिहीन है, और जो किसी न किसी काल्पनिक सहारे के बगैर जी ही नहीं सकते,* ऐसे लोगों को बार-बार धर्म ने अपने जाल में जकड़ कर रखा है। दुर्भाग्य से आज किस्तोंपर हिचेन हमारे बीच नहीं है, लेकिन कोरोना वायरस ने फिर एक बार किस्तोंपर हीचैन को सही साबित किया है। और यह भी साबित किया है कि कोरोना वायरस प्रकृति ने पैदा किया है, इंसान ने पैदा किए हुए ईश्वर गॉड और अल्लाह उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । सिर्फ विज्ञान है जो उसे आज कंट्रोल करेगा।

   सभी धर्मों के ठेकेदारों का यह सनातन दावा है कि, ईश्वर इस ब्रह्मांड का निर्माता है और वह सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और हर जगह पर मौजूद है और उसकी मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता है ।

    दुनिया का सबसे बड़ा धर्म क्रिश्चन है और पूरी दुनिया के क्रिश्चन लोगों का सबसे बड़ा गुरु इटली के रोम शहर में रहता है, जिसे वेटिकन सिटी कहा जाता है। आजकल कोरोना के डर से इटली के सभी चर्च और वेटिकन सिटी लॉक डाउन है और उनका सबसे बड़ा धर्म गुरु यानी पोप कहीं छुप कर बैठा है। दुनिया का सेकंड नंबर का धर्म इस्लाम है और दुनिया भर में फैले मुसलमानों की सबसे पवित्र भूमि और पवित्र धर्मस्थल मक्का मदीना है,  वह भी आज पूरी तरह से बंद है। और दुनिया के तीसरे नंबर का धर्म यानी हिंदू धर्म और उसके सभी प्रसिद्ध धर्मस्थल जैसे कि चारों धाम, बालाजी मंदिर, शिर्डी के साईं बाबा का मंदिर, जम्मू के वैष्णो देवी का मंदिर और बहुत सारे छोटे-मोटे मंदिर आज लॉक डाउन है। दुनिया के किसी भी धर्म मे और किसी भी भगवान में इतनी ताकत नहीं है की वह कोरोना नाम के एक मामूली कीटाणु को रोक  सकें । 

   कोरोना वायरस ने फिर एक बार साबित किया है की ईश्वर, गॉड या अल्लाह यह सब पाखंड है । धर्म के ठेकेदारों ने बुद्धिहीन लोगों के अज्ञान और डर का फायदा उठाकर उनका शोषण करने के लिए दुनिया भर में बड़े-बड़े धर्मस्थल बना रखे हैं। और हजारों सालों से भोली भाली जनता के अज्ञान और डर का नाजायज फायदा उठा रहे हैं और उनका शोषण कर रहे हैं।

   जब हजारों लोग मुंबई से शिरडी तक बिना चप्पल पहने हुए पैदल जाते हैं और साईं बाबा को अच्छी बीवी, अच्छी नौकरी, अच्छी संतान और धंधे मे मुनाफा मांगते हैं और समझते हैं कि साईं बाबा उनको यह सब कुछ दे देगा। यदि साईं बाबा या बालाजी या वैष्णो देवी या अजमेर शरीफ या फिर मक्का मदीना और वेटिकन सिटी अपने भक्तों की ऐसी छोटी मोटी मांगे और मुरादे पूरी करते है और मानव जाति का हमेशा हित और सुख देखते हैं, तो फिर आज सारे के सारे छुपकर क्यों बैठे हैं ? कोरोना में ज्यादा ताकत है या फिर ईश्वर, अल्लाह या गॉड में ज्यादा ताकत है ?

   विज्ञान कहता है 14 बिलियन साल पहले बिग बैंग के माध्यम से इस विश्व की निर्मिती हुई। और लगभग 5 बिलियन ईयर पहले पृथ्वी की निर्मिति हुई । इस पृथ्वी पर आज तक विज्ञान ने लगभग 8 मिलियन प्रजातियां आईडेंटिफाई की है, और मानव जाति होमोसेपियन 18 मिलियन प्रजातियों में से एक प्रजाति है। और इस विश्व के अनगिनत साल के इतिहास में मानव जाति का कोई अता पता नहीं था, मानव जाति मुश्किल से पिछले चार मिलियन साल से इस पृथ्वी पर आई है। आज तक कई प्रजातियां पृथ्वी में आई कुछ साल तक रही और जलवायु बदलते ही नष्ट हो गई। मानव जाति भी इस पृथ्वी पर हमेशा रहेगी इसका कोई भरोसा नहीं है। जिस तरह डायनासोर और न जाने कितनी प्रजाति है आई और गई और इंसान भी इनमें से एक मामूली प्रजाति है। 

   इस विश्व को चलाने वाली एक शक्ति है इसे विज्ञान नेचर या प्रकृति के नाम से जानता है। और विज्ञान यह भी मानता है कि प्रकृति एक निश्चित नियमों के अनुसार इसको चलाती है। यदि इस प्रकृति पर काबू पाना है तो हमारे हाथ में सिर्फ एक ही रास्ता है और वह है इस प्रकृति के रहस्य में नियमों को अनुसंधान संशोधन और प्रयोग के द्वारा जान लेना। आज तक विज्ञान ने प्रकृति के बहुत सारे नियमों को खोज लिया है और विज्ञान की खोज निरंतर जारी है। दुनिया के सारे धर्म हमको सिर्फ प्रकृति की पूजा करने की शिक्षा देते हैं और यह कहते हैं की पूजा करने से प्रकृति प्रसन्न होगी और हमारी मांगे और मुरादे पूरी करेगी। दुनिया के सारे धर्मों की यह मूलभूत शिक्षा ही सरासर झूठ है। विज्ञान ने इस बात को साबित किया है, पूजा पाठ करने से प्रकृति अपने नियम कभी नहीं बदलती यदि प्रकृति पर काबू पाना है तो उसका एकमात्र रास्ता है प्रकृति के नियमों को जानना। आज तक दुनिया में मानव जाति के सामने जितनी भी समस्याएं आई जैसे कि प्राकृतिक आपदाएं, और सभी प्रकार की संसर्गजन्य बीमारियां । किसी भी धर्म ने या धर्म गुरु ने या ईश्वर ने इनमें से एक भी बीमारियों का कोई इलाज मानव जाति को नहीं दिया । यह तो सिर्फ विज्ञान जिसने, मलेरिया इनफ्लुएंजा कॉलरा स्मॉल पॉक्स और कितनी बीमारी पर साइंस ने दवाइयां खोजी है और इन महामारीयों को हमेशा के लिए दुनिया से मिटा दिया है । कोरोना के ऊपर भी बहुत जल्द साइंस इलाज ढूंढ के निकालेगा ।

   आज तक मानव जाति के ऊपर जब भी कोई बड़ा संकट आता है तो सारे मानव अपने अपने तीर्थ स्थल पर जाकर भगवान अल्लाह या गॉड के सामने झुक जाते हैं, लेकिन कोरोना वायरस ने तो यह रास्ता भी बंद कर दिया है। अभी सिर्फ हमारे सामने एक ही रास्ता है और वह है विज्ञान का। सारे भगवान छुप कर बैठे हैं हमारे सामने सिर्फ एक ही रास्ता है और वह है हॉस्पिटल का। यह रास्ता हमें भगवान ने नहीं विज्ञान ने दिया है। किसलिए कोरोना वायरस से कुछ सीख लो! विज्ञान वादी बनो और जाति धर्म के सांचे से बाहर निकल कर एक नजर से हर इंसान और प्रकृति से प्रेम करना सीखो ।

Wednesday, April 15, 2020

कोरोना: #ईश्वर,#धर्म #और #विज्ञान - राम पुनियानी



इन दिनों पूरी दुनिया कोरोना वायरस से जूझ रही है। इससे लड़ने और इसे परास्त करने के लिए विश्वव्यापी मुहिम चल रही है। मानवता एक लंबे समय के बाद इस तरह के ख़तरे का सामना कर रही है। किसी ज्योतिषी ने यह भविष्यवाणी नहीं की थी कि पूरी दुनिया पर इस तरह की मुसीबत आने वाली है।

सामान्य समय में जब कोई व्यक्ति किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो जाता है तो वह या उसे चाहने वाले आराधना स्थलों पर जाकर ईश्वर से उसकी जान बचाने की गुहार लगाते हैं। नि:संदेह वे ईश्वर पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहते। वे अस्पतालों में रोगी का इलाज भी कराते हैं। इस समय सभी धर्मों के शीर्ष आराधना स्थलों पर ताले जड़े हुए हैं, चाहे वह वेटिकन हो, मक्का, बालाजी, शिरडी या वैष्णोदेवी। पुरोहित, पादरी और मौलवी, जो लोगों का संदेश ईश्वर तक पहुंचाते हैं, स्वयं को कोरोना से बचाने में लगे हुए हैं और उनके भक्तगण अपनी-अपनी सरकारों की सलाह पर अमल करने का प्रयास कर रहे हैं। ये सलाहें वैज्ञानिकों और डाक्टरों से विचार-विमर्श पर आधारित हैं।

सोशल मीडिया में इन दिनों दो दिलचस्प संदेश ट्रेंड कर रहे हैं। एक है, 'साईंस आन ड्यूटी, रिलीजन आन हॉलिडे' (विज्ञान मुस्तैद है, धर्म छुट्टी मना रहा है), दूसरा है  'गॉड इज़ नाॅट पावरफुल' (ईश्वर शक्तिशाली नहीं है)। नास्तिकों सहित कुछ ऐसे लेखक - जो अपनी बात खुलकर कहने से सकुचाते नहीं हैं, का विचार है कि जब मानवता एक गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है उस समय ईश्वर भाग गया है। कई धर्मों का पुरोहित वर्ग श्रद्धालुओं को सलाह दे रहा है कि वे अपने घरों में प्रार्थना करें। अजान हो रही है परंतु वह अब मस्जिद में आने का बुलावा नहीं होती। अब वह ख़ुदा के बंदों को यह याद दिलाती है कि वे अपने घरों में नमाज़ अता करें। यही बात चर्चों में होने वाले सन्डे मास और मंदिरों और अन्य तीर्थस्थानों पर होने वाली पूजाओं और आरतियों के बारे में भी सही है। यहां तक कि कुछ भगवानों को मास्क पहना दिए गए हैं ताकि कोरोना से उनकी रक्षा हो सके!

ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में अनंतकाल से बहस होती रही है। कहा जाता है कि ईश्वर इस दुनिया का निर्माता और रक्षक है। फिर, क्या कारण है कि इस कठिन समय में पुरोहित वर्ग दूर से तमाशा देख रहा है। कुछ बाबा अस्पष्ट सलाहें दे रहे हैं। एक बाबा- जिन्हें उनके अनुयायी भगवान मानते थे और जो अब जेल में हैं, इस आधार पर जमानत चाह रहे हैं कि जेल में उन्हें कोरोना का ख़तरा है। अगर ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो वह दुनिया को इस मुसीबत से क्यों नहीं बचा रहा है? क्या कारण है कि इस जानलेवा वायरस से मानवता की रक्षा करने का भार केवल विज्ञान के कंधों पर है?

इतिहास गवाह है कि विज्ञान को अपने सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए लंबा और कठिन संघर्ष करना पड़ा है। पुरोहित वर्ग हमेशा से विज्ञान के विरोध में खड़ा रहा है। रोमन कैथोलिक चर्च, जो कि दुनिया का सबसे संगठित पुरोहित वर्ग है, वैज्ञानिक खोजों और वैज्ञानिकों का विरोधी रहा है। काॅपरनिकस से लेकर गैलिलियो तक सभी को चर्च के कोप का शिकार बनना पड़ा। अन्य धर्मों का पुरोहित वर्ग इतना संगठित नहीं है। इस्लाम में आधिकारिक रूप से पुरोहित वर्ग के लिए कोई जगह नहीं है परंतु वहां भी यह वर्ग है। सभी धर्मों के पुरोहित वर्ग हमेशा शासकों के पिट्ठू और सामाजिक रिश्तों में यथास्थितिवाद के पोषक रहे हैं। पुरोहित वर्ग ने कभी वर्ग, नस्ल व लिंग के आधार पर भेदभाव का विरोध नहीं किया। पुरोहित वर्ग ने हमेशा राजाओं और जमींदारों को ईश्वर का प्रतिरूप बताया ताकि लोग इन भगवानों के लिए कमरतोड़ मेहनत करते रहें और इसके बाद भी कोई शिकायत न करें। पुरोहित वर्ग का यह दावा रहा है कि धार्मिक ग्रंथों में जो कुछ लिखा है वह सटीक, अचूक और परम सत्य है जिसे  चुनौती नहीं दी जा सकती।

उत्पादन के वैज्ञानिक साधनों के विकास से दुनिया में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। इस क्रांति के बाद पुरोहित वर्ग ने भी अपनी भूमिका बदल ली। औद्योगिक युग में भी वे प्रासंगिक और महत्वपूर्ण बने रहे। इस वर्ग का जोर कर्मकांडों पर रहा और ईश्वर के कथित वास स्थलों को महत्वपूर्ण और पवित्र बताने में उसने कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी।

ये सभी तर्क उचित और सही हैं परंतु धर्म के आलोचकों द्वारा धर्म के एक महत्वपूर्ण पक्ष को नजरअंदाज किया जा रहा है। और वह यह है कि सभी धर्मों के पैगंबर अपने काल के क्रांतिकारी रहे हैं और उन्होंने प्रेम व करुणा जैसे मानवीय मूल्यों को प्रोत्साहित किया है। आखिर भक्ति और सूफ़ी संत भी धर्म का हिस्सा थे परंतु उन्होंने शोषणकारी व्यवस्था का विरोध किया और समाज में सद्भाव और शांति को बढ़ावा दिया। धर्म का एक और पक्ष महत्वपूर्ण है और वह यह कि धर्म इस क्रूर और पत्थर दिल दुनिया में कष्ट और परेशानियां भोग रहे लोगों का संबल होता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कई धर्मों - जैसे बौद्ध धर्म में ईश्वर की अवधारणा नहीं है।

परालौकिक शक्ति की अवधारणा भी समय के साथ बदलती रही है। आदि मानव प्रकृति पूजक था। फिर बहुदेववाद आया। उसके बाद एकेश्वरवाद और फिर आई निराकार ईश्वर की अवधारणा। नास्तिकता भी मानव इतिहास का हिस्सा रही है। भारत में चार्वाक से लेकर भगतसिंह और पेरियार जैसे विख्यात नास्तिक हुए हैं। धर्म का उपयोग बादशाहों और सम्राटों द्वारा अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए किया जाता रहा है। धर्मयुद्ध, क्रूसेड और जिहाद, दरअसल, शासकों के अपने साम्राज्यों की सीमा को विस्तार देने के उपक्रम के अलग-अलग नाम हैं। आज की दुनिया में भी धर्म का इस्तेमाल राष्ट्रों द्वारा अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। दुनिया के कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्जा करने की अपनी लिप्सा के चलते अमेरिका ने पहले अलकायदा को खड़ा किया। अलकायदा आज 'म्यूटेट' होकर इस्लामिक स्टेट बन चुका है और भस्मासुर साबित हो रहा है। अमेरिका ने अलकायदा को 8 सौ करोड़ डालर और 7 हज़ार टन हथियार उपलब्ध करवाए और अब वह ऐसा व्यवहार कर रहा है मानो आईएस की आतंकी गतिविधियों से उसका कोई लेना-देना नहीं है।

आज धर्म के नाम पर राजनीति भी की जा रही है। चाहे कट्टरवादी मुसलमान हों, ईसाई हों अथवा हिन्दू या बौद्ध, उन्हें धर्मों के नैतिक मूल्यों से कोई मतलब नहीं है। वे दुनिया को लैंगिक और सामाजिक ऊंच-नीच के अंधेरे युग में वापिस ढकेलना चाहते हैं। भारत में हिन्दू धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों में हिन्दुत्ववादी अग्रणी हैं। वे कहते हैं कि चाहे प्लास्टिक सर्जरी हो या जैनेटिक इंजीनियरिंग, चाहे हवाई जहाज हों या इंटरनेट, प्राचीन भारत में वे सब थे। यहां तक कि न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों को ज्ञात था!

हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि हमारी सरकारों, वैज्ञानिकों और डाक्टरों की मदद से हमारी दुनिया कोरोना के कहर से निपट सकेगी। हमें यह भी उम्मीद है कि मानवता पर आई यह आपदा हमें अधिक तार्किक बनाएगी और हम अंधविश्वास और अंधश्रद्धा पर विजय प्राप्त करेंगे।

(देशबन्धु में 10.04.20 को प्रकाशित)

Sunday, April 12, 2020

धर्म युद्ध और साम्प्रदायिकता

सांप्रदायिक दंगा 

कवि आदम गोंडवी ने पुछा 
गलती बाबर की थी जुम्मन का घर क्यों जले ?
गलती हमेशा शासक वर्ग की होती है 
घर क्यों जुम्मन का या गंगुआ तेली का जलता है ?

एक कवि ने पुछा 
दंगों का कारण क्या है ?
कुछ लॊग कहते है 
इसके पीछे लुच्चे लफंगे है 
अवांछित तत्त्व है .

तो फिर कौन है वे  ?
वे मंदिर खड़ा कर रहे है 
वे  मस्जिद खड़ा कर रहे है 
वे  मंदिर ध्वस्त कर रहे है 
वे मस्जिद ध्वस्त कर रहे है 

लेकिन उनके पीछे कौन है ?
मंदिर तोडना मस्जिद  खड़ा करना 
मस्जिद तोडना मंदिर खड़ा करना 
ये धर्म युद्ध नहीं है सिर्फ 
ये जनयुद्ध तो बिलकुल नहीं है 
पूंजीपतियों का आपसी युद्ध भी नहीं है ये सिर्फ 
मेहनतकसजन के विरुद्ध सयुंक्त युध है उनका 
धर्म उनका खुनी हथियार है 
और सांप्रदायिक दंगा उनके जंग का ऐलान है 
इस लिए धर्म पर उंगली उठाना जुर्म है 
ताकि 
धर्म की डोरी से हमेशा बंधे रहे हम 
और जब चाहे वे हमें अपने युद्ध में खींच ले 
उनकी कब्र खोदने को कभी सोचे भी नहीं 
धार्मिक पाखंडो का हम शिकार होते रहे 
जुम्मन और गंगुआ तेली कभी एक ना हो 
उनकी हार जीत को हम अपना समझते रहे 
हम मजदूर मजदूर नहीं रहे 
हिन्दू रहे , मुस्लिम रहे इसाई  रहे 
और "सेक्युलर" तो हम रहेगे ही

हमारे खिलाफ जब भी वो 
साजिश कर रहे हो एक ही दरी पर बैठ
अफीम के नशे की तरह बेसुध पड़े रहे हम  
और कभी न जान पाए कि
हम बे-मंदिर बे-मस्जिद नहीं 
उनके लूट के कारण बेघर है 
अधनंगे है, भूखे है, वेहाल है 
धर्मो के बीच मेल का पाखंड वे ही करते है 
एक ही थैले के चट्टे -बट्टे 
सभी धर्मो के गणमान्य पूंजीपति.

Saturday, April 11, 2020

धर्म -उद्धरण

धार्मिक बँटवारे की साज़िशों को नाकाम करो! पूँजीवादी लूट के ख़िलाफ़ एकता क़ायम करो!
"प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग ने अपने आप को हर जगह धार्मिक झगड़ों को उभाड़ने के दुष्कृत्यों में संलग्न किया है, और वह रूस में भी ऐसा करने जा रहा है–इसमें उसका उद्देश्य आम जनता का ध्यान वास्तविक महत्व की और बुनियादी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से हटाना है जिन्हें अब समस्त रूस का सर्वहारा वर्ग क्रान्तिकारी संघर्ष में एकजुट हो कर व्यावहारिक रूप से हल कर रहा है। सर्वहारा की शक्तियों को बाँटने की यह प्रतिक्रियावादी नीति, जो आज ब्लैक हंड्रेड (राजतंत्र समर्थक गिरोहों) द्वारा किये हत्याकाण्डों में मुख्य रूप से प्रकट हुई है, भविष्य में और परिष्कृत रूप ग्रहण कर सकती है। हम इसका विरोध हर हालत में शान्तिपूर्वक, अडिगता और धैर्य के साथ सर्वहारा एकजुटता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा द्वारा करेंगे–एक ऐसी शिक्षा द्वारा करेंगे जिसमें किसी भी प्रकार के महत्वहीन मतभेदों के लिए कोई स्थान नहीं है। क्रान्तिकारी सर्वहारा, जहाँ तक राज्य का संबंध है, धर्म को वास्तव में एक व्यक्तिगत मामला बनाने में सफल होगा। और इस राजनीतिक प्रणाली में, जिसमें मध्यकालीन सड़न साफ हो चुकी होगी, सर्वहारा आर्थिक गुलामी के, जो कि मानव जाति के धार्मिक शोषण का वास्तविक स्रोत है, उन्मूलन के लिए सर्वहारा वर्ग व्यापक और खुला संघर्ष चलायेगा।"

– लेनिन (समाजवाद और धर्म)

"आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मुख्यतः सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ मेहनतकश अवाम की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति और पूँजीवाद की अन्धी शक्तियों के समक्ष उसकी प्रकटतः पूर्ण असहाय स्थिति है, जो हर रोज़ और हर घण्टे सामान्य मेहनतकश जनता को सर्वाधिक भयंकर कष्टों और सर्वाधिक असभ्य अत्याचारों से संत्रस्त करती है, और ये कष्ट और अत्याचार असामान्य घटनाओं–जैसे युद्धों, भूचालों, आदि–से उत्पन्न कष्टों से हज़ारों गुना अधिक कठोर हैं। "भ्‍य ने देवताओं को जन्म दिया।" पूँजी की अन्धी शक्तियों का भय–अन्धी इसलिए कि उन्हें सर्वसाधारण अवाम सामान्यतः देख नहीं पाता–एक ऐसी शक्ति है जो सर्वहारा वर्ग और छोटे मालिकों की ज़िन्दगी में हर क़दम पर "अचानक", "अप्रत्याशित", "आकस्मिक", तबाही, बरबादी, गरीबी, वेश्यावृत्ति, भूख से मृत्यु का ख़तरा ही नहीं उत्पन्न करती, बल्कि इनसे अभिशप्त भी करती है। ऐसा है आधुनिक धर्म का मूल जिसे प्रत्येक भौतिकवादी को सबसे पहले ध्यान में रखना चाहिए, यदि वह बच्चों के स्कूल का भौतिकवादी नहीं बना रहना चाहता। जनता के दिमाग से, जो कठोर पूँजीवादी श्रम द्वारा दबी-पिसी रहती है और जो पूँजीवाद की अन्धी– विनाशकारी शक्तियों की दया पर आश्रित रहती है, शिक्षा देने वाली कोई भी किताब धर्म का प्रभाव तब तक नहीं मिटा सकती, जब तक कि जनता धर्म के इस मूल से स्वयं संघर्ष करना, पूँजी के शासन के सभी रूपों के ख़िलाफ़ ऐक्यबद्ध, संगठित, सुनियोजित और सचेत ढंग से संघर्ष करना नहीं सीख लेती।"

– लेनिन (धर्म के प्रति मज़दूरों की पार्टी का रुख)

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।

– भगतसिंह (साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज)

जब तक लोग अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल करने की ज़हमत नहीं उठायेंगे, तब तक तानाशाहों का राज चलता रहेगा; क्योंकि तानाशाह सक्रिय और जोशीले होते हैं, और वे नींद में डूबे हुए लोगों को ज़ंजीरों में जकड़ने के लिए, ईश्वर, धर्म या किसी भी दूसरी चीज़ का सहारा लेने में नहीं हिचकेंगे।

– फ्रांसीसी क्रान्ति की वैचारिक नींव तैयार करने वाले महान दार्शनिकों में से एक – वोल्तेयर

एक तरफ जहाँ जन आन्दोलन और राष्ट्रीय आन्दोलन हुए, वहीं, उनके साथ-साथ जातिगत और साम्प्रदायिक आन्दोलनों को भी जान-बूझकर शुरू किया गया क्योंकि ये आन्दोलन न तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थे, न किसी वर्ग के, बल्कि ये दूसरी जातियों के ख़िलाफ़ थे।

– साम्प्रदायिक जुनून का मुकाबला करते हुए शहीद होने वाले महान राष्ट्रवादी पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी

ये देखिये, मोदी के गुरुजी के विचार क्या थे…
"हिन्दुओ, ब्रिटिश से लड़ने में अपनी ताक़त बर्बाद मत करो। अपनी ताक़त हमारे भीतरी दुश्मनों यानी मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों से लड़ने के लिए बचाकर रखो।"

– एम.एस. गोलवलकर (आर.एस.एस. के दूसरे सरसंघचालक)

…और यह कहना था गुरुजी के गुरुदेव का!
"लोगों पर नियंत्रण करने और उन्हें पूरी तरह अपने वश में कर लेने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि उनकी आज़ादी थोड़ी-थोड़ी छीनी जाये, अधिकारों को एक हज़ार छोटी-छोटी और पता भी न चलने वाली कटौतियों से कम किया जाये। इस तरीक़े से, लोगों को इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं के छिनने का पता ही नहीं चलेगा और जब उन्हें पता चलेगा तब तक इन बदलावों को वापस लौटाना नामुमकिन हो जायेगा।"

– एडोल्फ़ हिटलर 'माइन कैम्फ' (आत्मकथा) में

Friday, April 10, 2020

कानून और स्त्रियों का उत्पीड़न

भारत में स्त्रियों का उत्पीड़न रोकने और उन्हें उनके हक दिलाने के बारे में बड़ी संख्यvा में कानून पारित हुए हैं। अगर इतने कानूनों का सचमुच पालन होता तो भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव और अत्याचार अब तक खत्म हो जाना था। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में यह संभव नहीं हो सका है। आज हालात ये हैं कि किसी भी कानून का पूरी तरह से पालन होने के स्थान पर ढेर सारे कानूनों का थोड़ा-सा पालन हो रहा है, लेकिन भारत में महिलाओं की रक्षा हेतु कानूनों की कमी नहीं है। भारतीय संविधान के कई प्रावधान विशेषकर महिलाओं के लिए बनाए गए हैं। इस बात की जानकारी महिलाओं को अवश्य होना चाहिए।

संविधान के अनुच्छेद 14 में कानूनी समानता, अनुच्छेद 15 (3) में जाति, धर्म, लिंग एवं जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव न करना, अनुच्छेद 16 (1) में लोक सेवाओं में बिना भेदभाव के अवसर की समानता, अनुच्छेद 19 (1) में समान रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अनुच्छेद 21 में स्त्री एवं पुरुष दोनों को प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता से वंचित न करना, अनुच्छेद 23-24 में शोषण के विरुद्ध अधिकार समान रूप से प्राप्त, अनुच्छेद 25-28 में धार्मिक स्वतंत्रता दोनों को समान रूप से प्रदत्त, अनुच्छेद 29-30 में शिक्षा एवं संस्कृति का अधिकार, अनुच्छेद 32 में संवैधानिक उपचारों का अधिकार, अनुच्छेद 39 (घ) में पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार, अनुच्छेद 40 में पंचायती राज्य संस्थाओं में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से आरक्षण की व्यवस्था, अनुच्छेद 41 में बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में सहायता पाने का अधिकार, अनुच्छेद 42 में महिलाओं हेतु प्रसूति सहायता प्राप्ति की व्यवस्था, अनुच्छेद 47 में पोषाहार, जीवन स्तर एवं लोक स्वास्थ्य में सुधार करना सरकार का दायित्व है, अनुच्छेद 51 (क) (ड) में भारत के सभी लोग ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हों, अनुच्छेद 33 (क) में प्रस्तावित 84वें संविधान संशोधन के जरिए लोकसभा में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था, अनुच्छेद 332 (क) में प्रस्तावित 84वें संविधान संशोधन के जरिए राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है।

गर्भावस्था में ही मादा भ्रूण को नष्ट करने के उद्देश्य से लिंग परीक्षण को रोकने हेतु प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 निर्मित कर क्रियान्वित किया गया। इसका उल्लंघन करने वालों को 10-15 हजार रुपए का जुर्माना तथा 3-5 साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है। दहेज जैसे सामाजिक अभिशाप से महिला को बचाने के उद्देश्य से 1961 में 'दहेज निषेध अधिनियम' बनाकर क्रियान्वित किया गया। वर्ष 1986 में इसे भी संशोधित कर समयानुकूल बनाया गया।

विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत महिलाओं के स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रसूति अवकाश की विशेष व्यवस्था, संविधान के अनुच्छेद 42 के अनुकूल करने के लिए 1961 में प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम पारित किया गया। इसके तहत पूर्व में 90 दिनों का प्रसूति अवकाश मिलता था। अब 135 दिनों का अवकाश मिलने लगा है।

महिलाओं को पुरुषों के समतुल्य समान कार्य के लिए समान वेतन देने के लिए 'समान पारिश्रमिक अधिनियम' 1976 पारित किया गया, लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी अनेक महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन नहीं मिलता।

शासन ने 'अंतरराज्यिक प्रवासी कर्मकार अधिनियम' 1979 पारित करके विशेष नियोजनों में महिला कर्मचारियों के लिए पृथक शौचालय एवं स्नानगृहों की व्यवस्था करना अनिवार्य किया है। इसी प्रकार 'ठेका श्रम अधिनियम' 1970 द्वारा यह प्रावधान रखा गया है कि महिलाओं से एक दिन में मात्र 9 घंटे में ही कार्य लिया जाए।

भारतीय दंड संहिता कानून महिलाओं को एक सुरक्षात्मक आवरण प्रदान करता है ताकि समाज में घटित होने वाले विभिन्न अपराधों से वे सुरक्षित रह सकें। भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों अर्थात हत्या, आत्महत्या हेतु प्रेरण, दहेज मृत्यु, बलात्कार, अपहरण एवं व्यपहरण आदि को रोकने का प्रावधान है। उल्लंघन की स्थिति में गिरफ्तारी एवं न्यायिक दंड व्यवस्था का उल्लेख इसमें किया गया है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नानुसार हैं-

भारतीय दंड संहिता की धारा 294 के अंतर्गत सार्वजनिक स्थान पर बुरी-बुरी गालियाँ देना एवं अश्लील गाने आदि गाना जो कि सुनने पर बुरे लगें, धारा 304 बी के अंतर्गत किसी महिला की मृत्यु उसका विवाह होने की दिनांक से 7 वर्ष की अवधि के अंदर उसके पति या पति के संबंधियों द्वारा दहेज संबंधी माँग के कारण क्रूरता या प्रताड़ना के फलस्वरूप सामान्य परिस्थितियों के अलावा हुई हो, धारा 306 के अंतर्गत किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कार्य (दुष्प्रेरण) के फलस्वरूप की गई आत्महत्या, धारा 313 के अंतर्गत महिला की इच्छा के विरुद्ध गर्भपात करवाना, धारा 314 के अंतर्गत गर्भपात करने के उद्देश्य से किए गए कृत्य द्वारा महिला की मृत्यु हो जाना, धारा 315 के अंतर्गत शिशु जन्म को रोकना या जन्म के पश्चात उसकी मृत्यु के उद्देश्य से किया गया ऐसा कार्य जिससे मृत्यु संभव हो, धारा 316 के अंतर्गत सजीव, नवजात बच्चे को मारना, धारा 318 के अंतर्गत किसी नवजात शिशु के जन्म को छुपाने के उद्देश्य से उसके मृत शरीर को गाड़ना अथवा किसी अन्य प्रकार से निराकरण, धारा 354 के अंतर्गत महिला की लज्जाशीलता भंग करने के लिए उसके साथ बल का प्रयोग करना, धारा 363 के अंतर्गत विधिपूर्ण संरक्षण से महिला का अपहरण करना, धारा 364 के अंतर्गत हत्या करने के उद्देश्य से महिला का अपहरण करना, धारा 366 के अंतर्गत किसी महिला को विवाह करने के लिए विवश करना या उसे भ्रष्ट करने के लिए अपहरण करना, धारा 371 के अंतर्गत किसी महिला के साथ दास के समान व्यवहार, धारा 372 के अंतर्गत वैश्यावृत्ति के लिए 18 वर्ष से कम आयु की बालिका को बेचना या भाड़े पर देना।

धारा 373 के अंतर्गत वैश्यावृत्ति आदि के लिए 18 वर्ष से कम आयु की बालिका को खरीदना, धारा 376 के अंतर्गत किसी महिला से कोई अन्य पुरुष उसकी इच्छा एवं सहमति के बिना या भयभीत कर सहमति प्राप्त कर अथवा उसका पति बनकर या उसकी मानसिक स्थिति का लाभ उठाकर या 16 वर्ष से कम उम्र की बालिका के साथ उसकी सहमति से दैहिक संबंध करना या 15 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ उसके पति द्वारा संभोग, कोई पुलिस अधिकारी, सिविल अधिकारी, प्रबंधन अधिकारी, अस्पताल के स्टाफ का कोई व्यक्ति गर्भवती महिला, 12 वर्ष से कम आयु की लड़की जो उनके अभिरक्षण में हो, अकेले या सामूहिक रूप से बलात्कार करता है, इसे विशिष्ट श्रेणी का अपराध माना जाकर विधान में इस धारा के अंतर्गत कम से कम 10 वर्ष की सजा का प्रावधान है।

ऐसे प्रकरणों का विचारण न्यायालय द्वारा बंद कमरे में धारा 372 (2) द.प्र.सं. के अंतर्गत किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि 'बलात्कार करने के आशय से किए गए हमले से बचाव हेतु हमलावर की मृत्यु तक कर देने का अधिकार महिला को है' (धारा 100 भा.द.वि. के अनुसार),दूसरी बात साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 (ए) के अनुसार बलात्कार के प्रकरण में न्यायालय के समक्ष पीड़ित महिला यदि यह कथन देती है कि संभोग के लिए उसने सहमति नहीं दी थी, तब न्यायालय यह मानेगा कि उसने सहमति नहीं दी थी। इस तथ्य को नकारने का भार आरोपी पर होगा।

दहेज, महिलाओं का स्त्री धन होता है। यदि दहेज का सामान ससुराल पक्ष के लोग दुर्भावनावश अपने कब्जे में रखते हैं तो धारा 405-406 भा.द.वि. का अपराध होगा। विवाह के पूर्व या बाद में दबाव या धमकी देकर दहेज प्राप्त करने का प्रयास धारा 3/4 दहेज प्रतिषेध अधिनियम के अतिरिक्त धारा 506 भा.द.वि. का भी अपराध होगा। यदि धमकी लिखित में दी गई हो तो धारा 507 भा.द.वि. का अपराध बनता है। दहेज लेना तथा देना दोनों अपराध हैं।

दंड प्रक्रिया संहिता 1973 में महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था है। अतः महिलाओं को गवाही के लिए थाने बुलाना, अपराध घटित होने पर उन्हें गिरफ्तार करना, महिला की तलाशी लेना और उसके घर की तलाशी लेना आदि पुलिस प्रक्रियाओं को इस संहिता में वर्णित किया गया है। इन्हीं वर्णित प्रावधानों के तहत न्यायालय भी महिलाओं से संबंधित अपराधों का विचारण करता है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के कई प्रावधान भी उत्पीड़ित महिलाओं के हितार्थ हैं। दहेज हत्या, आत्महत्या या अन्य प्रकार के अपराधों में महिला के 'मरणासन्न कथन' दर्ज किए जाते हैं। यह प्रावधान महिला को उत्पीड़ित करने वाले को दंडित करने हेतु अत्यधिक उपयोगी है। स्त्री धन में वैधानिक तौर पर विवाह से पूर्व दिए गए उपहार, विवाह में प्राप्त उपहार, प्रेमोपहार चाहे वे वर पक्ष से मिले हों या वधू पक्ष से तथा पिता, माता, भ्राता, अन्य रिश्तेदार और मित्र द्वारा दिए गए उपहार स्वीकृत किए गए हैं।

विवाहित हिन्दू स्त्री अपने धन की निरंकुश मालिक होती है। वह अपने धन को खर्च कर सकती है। सौदा कर सकती है या किसी को दे सकती है। इसके लिए उसे अपने पति, सास, ससुर या अन्य किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है। बीमारी या कोई प्राकृतिक आपदा को छोड़कर स्त्री का पति भी उसके धन को खर्च करने का कोई अधिकार नहीं रखता। इन परिस्थितियों में खर्च किए गए स्त्री धन को वापस करना ससुराल पक्ष की नैतिक जिम्मेदारी होगी। परिवार का अन्य सदस्य किसी भी स्थिति में स्त्री धन खर्च नहीं कर सकता। उच्चतम न्यायालय ने एकप्रकरण में कहा है कि स्त्री द्वारा माँग किए जाने पर इस प्रकार के न्यासधारी उसे लौटाने के लिए बाध्य होंगे। अन्यथा धारा 405/406 भा.द.वि के अपराध के दोषी होंगे।

धारा 363 में व्यपहरण के अपराध के लिए दंड देने पर 7 साल का कारावास और धारा 363 क में भीख माँगने के प्रयोजन से किसी महिला का अपहरण या विकलांगीकरण करने पर 10 साल का कारावास और जुर्माना, धारा 365 में किसी व्यक्ति (स्त्री) का गुप्त रूप से अपहरण या व्यपहरणकरने पर 7 वर्ष का कारावास अथवा जुर्माना अथवा दोनों, धारा 366 में किसी स्त्री को विवाह आदि के लिए विवश करने के लिए अपहृत करने अथवा उत्प्रेरित करने पर 10 वर्ष का कारावास, जुर्माने के प्रावधान हैं। धारा 372 में वैश्यावृत्ति के लिए किसी स्त्री को खरीदने पर10 वर्ष का कारावास, जुर्माना, धारा 373 में वैश्यावृत्ति आदि के प्रयोजन के लिए महिला को खरीदने पर 10 वर्ष का कारावास, जुर्माना एवं बलात्कार से संबंधित दंड आजीवन कारावास या दस वर्ष का कारावास और जुर्माना, धारा 376 क में पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ पृथक्करण के दौरान संभोग करने पर 2 वर्ष का कारावास अथवा सजा या दोनों।

धारा 376 ख में लोक सेवक द्वारा उसकी अभिरक्षा में स्थित स्त्री से संभोग करने पर 5 वर्ष तक की सजा या जुर्माना अथवा दोनों, धारा 376 ग में कारागार या सुधार गृह के अधीक्षक द्वारा संभोग करने पर 5 वर्ष तक की सजा या जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान, धारा 32 (1) में मरे हुए व्यक्ति (स्त्री) के मरणासन्न कथनों को न्यायालय सुसंगत रूप से स्वीकार करता है बशर्ते ऐसे कथन मृत व्यक्ति (स्त्री) द्वारा अपनी मृत्यु के बारे में या उस संव्यवहार अथवा उसकी किसी परिस्थिति के बारे में किए गए हों, जिसके कारण उसकी मृत्यु हुई हो। धारा 113 ए में यदि किसी स्त्री का पति अथवा उसके रिश्तेदार के द्वारा स्त्री के प्रति किए गए उत्पीड़न, अत्याचार जो कि मौलिक तथा परिस्थितिजन्य साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित हो जाते हैं, तो स्त्री द्वारा की गई आत्महत्या को न्यायालय दुष्प्रेरित की गई आत्महत्या की उपधारणा कर सकेगा। धारा 113बी में यदि भौतिक एवं परिस्थितिजन्य साक्ष्यों द्वारा यह प्रमाणित हो जाता है कि स्त्री की अस्वाभाविक मृत्यु के पूर्व मृत स्त्री के पति या उसके रिश्तेदार दहेज प्राप्त करने के लिए मृत स्त्री को प्रताड़ित करते, उत्पीड़ित करते, सताते या अत्याचार करते थे तो न्यायालय स्त्रीकी अस्वाभाविक मृत्यु की उपधारणा कर सकेगा अर्थात दहेज मृत्यु मान सकेगा।

पिछले दशक से महिलाओं की सुरक्षा के लिए जो कानूनी कवच दिया गया है, वह नई चुनौतियों के आगे अपने को लाचार पा रहा है। ये कानून ठीक तरह से लागू हों, इसके लिए सजग रहना होगा। लेकिन आने वाली सदी में महिलाओं की जगह क्या हो, इस बारे में एक समग्रदृष्टि विकसित करनी होगी। आज आवश्यकता जरूरत से ज्यादा कानूनों के थोड़े से पालन की नहीं, बल्कि थोड़े से कानून के अच्छी तरह पालन करने की है।

कानून कहता है कि-
* पुरुष व स्त्री को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले

* महिला कर्मचारियों के लिए पृथक शौचालय व स्नानगृहों की व्यवस्था हो

* किसी महिला के साथ दास के समान व्यवहार नहीं किया जा सकता

* बलात्कार के आशय से किए गए हमले से बचाव हेतु हत्या तक का अधिकार महिला को है

* विवाहित हिन्दू स्त्री अपने धन की निरंकुश मालिक है, वह उसे जैसे चाहे खर्च कर सकती है

* दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध है

भारतीय दंड संहिता की धारा 41 (सी) के अंतर्गत संज्ञेय अपराध, वे अपराध हैं जिनमें पुलिस को प्रत्यक्ष रूप से बयान देने व बिना वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार है। इसके विपरीत जिन प्रकरणों में प्रत्यक्ष रूप से पुलिस को संज्ञान लेने व बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है, असंज्ञेय अपराध कहलाते हैं। धारा 47 (ए) के अंतर्गत गिरफ्तारी से बचने के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी मकान में छिपता है या प्रवेश करता है तो गिरफ्तार करने वाला व्यक्ति या पुलिस अधिकारी विहित नियमों के अनुसार मकान में प्रवेश कर सकता है और उस मकानकी तलाशी भी ले सकता है, परंतु धारा 47 (बी) के अंतर्गत यदि उस मकान में या उसके किसी भाग में ऐसी महिला का निवास है जिसकी गिरफ्तारी नहीं की जानी हो तो गिरफ्तार करने वाला अधिकारी, उस महिला से, उस मकान या स्थान से हट जाने के लिए आग्रह करेगा या उसे जाने देगा।

धारा 51 (1) (2) के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की तलाशी विहित नियमों द्वारा ली जा सकेगी किंतु यदि गिरफ्तार व्यक्ति महिला है तो पूरी शिष्टता के साथ किसी अन्य महिला द्वारा ही तलाशी ली जा सकेगी, धारा 53 (2) के अंतर्गत पुलिस अधिकारी की प्रार्थना पर किसीस्त्री अभियुक्त का शारीरिक परीक्षण किसी महिला चिकित्सा व्यवसायी द्वारा किया जा सकेगा। धारा 98 के अंतर्गत किसी स्त्री या 18 वर्ष से कम आयु की बालिका को विधि विरुद्ध प्रयोजन के लिए रखे जाने या निरुद्ध रखे जाने पर और शपथ पर ऐसा परिवाद किए जाने पर, जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट विधि विहित नियमों में उसे स्वतंत्र करने का आदेश दे सकता है। धारा 100 (3) के अंतर्गत यदि कोई महिला अपने पास कोई चीज छिपाती है तथा उसकी जामा तलाशी करना है तो उसकी तलाशी पूरी शिष्टता के साथ अन्य कोई महिला द्वारा ही की जाना चाहिए।

कोरोना और अफवाह

आम मध्यमवर्गीय आदमी तटस्थ भाव से हर झूठी अफ़वाह पर भरोसा करता हुआ घर में दुबका रहता है। उसका रोल कुल इतना है कि वह डरे, नफ़रत करे और अफ़वाह फैलाए। 
*हरिशंकर परसाई*