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(3) ऐतिहासिक भौतिकवाद
अब एक सवाल का जवाब देना बाक़ी रह गया है: ऐतिहासिक
भौतिकवाद के दृष्टिकोण से ’समाज के
भौतिक जीवन की परिस्थितियों’ का क्या मतलब
है, जो आखिरी छानबीन में समाज का रूप, उसके विचार, मत, राजनीतिक
संस्थायें वगै़रह निश्चित करती हैं।
आखिर, यह ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ हैं क्या, उनके विशेष लक्षण क्या
हैं?
इसमें कोई सन्देह नहीं कि ’समाज के
भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ – इस धारणा मे
प्रकृति शामिल है जो समाज को घेरे हुए है, भौगोलिक परिस्थितियां शामिल हैं जो समाज
के भौतिक जीवन के लिए एक लाज़िमी और सदा रहने वाली शर्त हैं और जो अवश्य
ही समाज के विकास पर असर डालती हैं। सामाजिक विकास में भौगोलिक
परिस्थिति कौन सा पार्ट अदा करती है? क्या भौगोलिक परिस्थिति वह मुख्य शक्ति
है जो समाज के रूप को, मनुष्य की समाज-व्यवस्था के रूप को, एक व्यवस्था से
दूसरी व्यवस्था की ओर प्रगति को निश्चित करती है?
ऐतिहासिक भौतिकवाद इस सवाल के जवाब में कहता है - नहीं।
निस्संदेह, भौगोलिक परिस्थितियां सामाजिक
विकास के लिये एक लाज़िमी और हमेशा रहने वाली शक्ति हैं और अवश्य ही सामाजिक विकास
पर असर डालती हैं, उस विकास की गति तेज़ करती हैं, या उसे रोकती
हैं। लेकिन, उनका असर नियामक नहीं है। कारण यह कि समाज के
परिवर्तन और विकास, भौगोलिक परिस्थितियों के परिवर्तन और
विकास से निस्बतन कहीं ज्यादा तेज होते हैं। तीन हज़ार साल की अवधि में, तीन
विभिन्न्ा समाज-व्यवस्थायें यूरोप में एक के बाद एक आ चुकी हैं:
आदिम साम्यवादी व्यवस्था, ग़ुलामी की
व्यवस्था और सामन्ती व्यवस्था। यूरोप के पूर्वी हिस्से में, सोवियत संघ
में चार व्यवस्थायें एक के बाद एक आ चुकी हैं। लेकिन, इसी अवधि में, यूरोप की
भौगोलिक परिस्थितियां या तो बदली ही नहीं हैं या इतनी कम बदली हैं कि
भूगोल ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया है, और यह बिल्कुल स्वाभाविक है। भौगोलिक
परिस्थिति में महत्वपूर्ण तब्दीली के लिये लाखों वर्ष चाहिये, जब कि मानव समाज की
व्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण तब्दीलियों के लिये भी कुछ शताब्दियां या एक-दो
हज़ार साल काफ़ी होते हैं।
इससे नतीजा यह निकलता है कि भौगोलिक परिस्थितियां
सामाजिक विकास का मुख्य कारण, उसका नियामक नहीं कही जा सकतीं।
जो वस्तु स्वयं लाखों साल तक अपरिवर्तित रहे, वह उस चीज के विकास का मुख्य
कारण नहीं हो सकती जिसमें कुछ शताब्दियों में ही बुनियादी तब्दीली हो।
और भी, इसमें सन्देह नहीं कि ’समाज के
भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ - इस धारणा में जनसंख्या बढ़ती भी
शामिल है, आबादी का कमोवेश घना होना भी शामिल है, क्योंकि
इंसान समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों का जरूरी तत्व है और बिना
एक निश्चित अल्पतम जनसंख्या के समाज का भौतिक जीवन हो ही नहीं सकता।
तब क्या जनसंख्या की बढ़ती वह मुख्य शक्ति नहीं है जो मनुष्य की समाज-व्यवस्था
का रूप निश्चित करती है?
ऐतिहासिक भौतिकवाद इस सवाल के जवाब में भी कहता है - नहीं।
अवश्य ही, जनसंख्या की बढ़ती समाज के विकास
पर असर डालती है, समाज के विकास की गति को तेज़ करने या
रोकने में मदद देती है। लेकिन, वह सामाजिक विकास की मुख्य शक्ति नहीं हो
सकती और सामाजिक विकास पर उसका असर नियामक नहीं हो सकता। कारण यह
कि सिर्फ जनसंख्या की वृद्धि से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि किसी
समाज-व्यवस्था के बदले कोई, विशेष नयी समाज-व्यवस्था ही क्यों आती है
और कोई दूसरी क्यों नहीं आती; आदिम साम्यवादी व्यवस्था के बदले ठीक गुलामी की
व्यवस्था ही क्यों आती है, गुलामी की व्यवस्था के बदले सामंती व्यवस्था और सामंती
व्यवस्था के बदले पंूजीवादी व्यवस्था ही क्यों आती है, कोई दूसरी
क्यों नहीं आती।
अगर जनसंख्या की बढ़ती सामाजिक विकास की नियामक शक्ति
हो तो जनसंख्या के अधिक घने होने से वैसी ही ऊंचे स्तर की
समाज-व्यवस्था भी पैदा हो जाये। लेकिन, हम देखते हैं कि ऐसा नहीं होता।
चीन की आबादी अमरीका से चार गुना ज्यादा घनी है, फिर भी
सामाजिक विकास-क्रम में अमरीका चीन से ऊपर है। कारण यह कि चीन में
अर्द्ध-सामन्ती व्यवस्था अब भी चालू है जब कि अमरीका बहुत पहले
पूंजीवाद के उच्चतम विकास की मंजिल तक पहुंच गया है। बेल्जियम की आबादी अमरीका
से 19 गुना घनी है और सोवियत संघ से 26 गुना घनी है।
फिर भी, अमरीका सामाजिक विकास-क्रम में बेल्जियम से ऊपर है।
जहां तक सोवियत संघ का सवाल है, बेल्जियम हमारे देश से एक
ऐतिहासिक युग पीछे है; क्योंकि बेल्जियम में पूंजीवादी व्यवस्था चालू है
जब कि सोवियत संघ ने पहले ही पूंजीवादी व्यवस्था खत्म कर दी है और समाजवादी
व्यवस्था क़ायम कर ली है।
इससे यह नतीजा निकलता है कि जनसंख्या की बढ़ती सामाजिक
विकास की मुख्य शक्ति, ऐसी शक्ति जो समाज का रूप, समाज-व्यवस्था
का रूप निश्चित करती हो, न है और न हो सकती है।
क) मुख्य निर्धारक शक्ति
क्या है?
तब समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों के व्यूह में
वह मुख्य शक्ति कौन सी है जो समाज का रूप, समाज-व्यवस्था
का रूप निश्चित करती है, जो एक से दूसरी व्यवस्था की ओर समाज
की प्रगति निश्चित करती है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद का कहना है कि यह शक्ति मानव जीवन
के लिये आवश्यक ज़िन्दगी के साधनों को हासिल करने का तऱीका है, यह भौतिक
मूल्यों की पैदावार का तरीक़ा है - खाना, कपड़ा, जूते, घर, ईंधन, पैदावार के साधन
वगैरह -जो सामाजिक जीवन और विकास के लिये अनिवार्य हैं।
जिन्दा रहने के लिये जरूरी है कि लोगों के पास खाना, कपड़ा, जूते, रहने की जगह, ईंधन वगैरह
हों। इन भौतिक मूल्यों को हासिल करने के लिये, यह ज़रूरी है कि लोग
उन्हें पैदा करें। उन्हें पैदा करने के लिये ज़रूरी है कि लोगों के पास पैदावार के
साधन हों, जिनसे कि खाना-कपड़ा, जूते, रहने की जगह
ईंधन वगैरह पैदा किये जाते हों। यह जरूरी है कि लोग इन साधनों को
पैदा कर सकें और उन्हें काम में ला सकें।
पैदावार के औज़ार, जिनसे भौतिक मूल्य पैदा किये
जाते हैं, वे लोग जो पैदावार के औज़ारों को काम में लाते हैं
और एक निश्चित पैदावार के अनुभव और श्रम-कौशल से भौतिक मूल्यों की पैदावार
करते जाते हैं - ये सब तत्व कुल मिलाकर समाज की उत्पादक शक्तियां हैं।
लेकिन, उत्पादक शक्तियां पैदावार का
सिर्फ़ एक पहलू हैं, पैदावार के तरीके़ का सिर्फ़ एक पहलू हैं। यह ऐसा
पहलू है जो मनुष्यों के और प्रकृति की वस्तुओं और शक्तियों के सम्बन्ध को प्रकट
करता है। इन वस्तुओं और शक्तियों को इन्सान भौतिक मूल्य पैदा करने के लिये काम
में लाते हैं। पैदावार का दूसरा पहलू, पैदावार के तरीके़ का दूसरा पहलू
उत्पादन-क्रम में मनुष्यों का आपसी सम्बन्ध है, मनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्ध हैं। भौतिक
मूल्यों को पैदा करने के लिये मनुष्य जब प्रकृति से संघर्ष करते हैं और प्रकृति को काम में
लाते हैं तो वे एक-दूसरे से अलग-थलग रह कर, व्यक्तिगत रूप से अलग रहकर नहीं
करते बल्कि मिलकर, गुटों में, समाजों में ऐसा करते हैं।
इसलिये, उत्पादन सभी समय और सभी परिस्थितियों
में सामाजिक उत्पादन होता है। भौतिक मूल्यों की पैदावार में
उत्पादन के भीतर मनुष्य आपस में एक या दूसरी तरह के सम्बन्ध क़ायम करते हैं, वे एक या
दूसरी तरह के उत्पादन-सम्बन्ध क़ायम करते हैं। ये संबंध इस तरह के लोगों में, जो शोषण से
मुक्त हैं, सहयोग और परस्पर सहायता के संबंध हो सकते हैं।
वे प्रभुत्व और पराधीनता के संबंध हो सकते हैं, और अंत में
उत्पादन-सम्बन्धों के एक रूप से दूसरे रूप की तरफ़ बढ़ने की दशा के हो सकते हैं।
लेकिन, उत्पादन-सम्बन्धों का जो भी रूप हो, वे हमेशा और
हर व्यवस्था में पैदावार का वैसा ही ज़रूरी हिस्सा होते हैं, जैसा कि समाज
की उत्पादक शक्तियां।
मार्क्स ने लिखा था:
“पैदावार में इंसान प्रकृति पर ही नहीं बल्कि एक-दूसरे
पर भी अपना प्रभाव डालते हैं। किसी निश्चित तरीके़ से सहयोग करके ही और
अपनी कार्यवाही की परस्पर अदला-बदली करके ही, वह पैदावार
कर सकते हैं। पैदावार करने के लिये, वे एक-दूसरे से निश्चित सम्पर्क
और सम्बन्ध स्थापित करते हैं और इन सामाजिक सम्पर्क और सम्बन्धों के भीतर
ही प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है, उनकी पैदावार होती है।” (कार्ल
मार्क्स, संÛग्रंÛ, अंÛ संÛ, मास्को,
1946, खण्ड 1, पृष्ठ 211)।
नतीजा यह कि पैदावार में, पैदावार के
तरीके़ में, दोनों चीजें शामिल हैं – समाज की उत्पादक
शक्तियां और मनुष्यों के उत्पादक-सम्बन्ध। इस तरह, पैदावार, पैदावार का तरीक़ा, भौतिक
मूल्यों के उत्पादन-क्रम में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों की एकता का
मूर्त रूप है।
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