Friday, June 26, 2020

छट्टा पोस्ट


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(3) ऐतिहासिक भौतिकवाद
अब एक सवाल का जवाब देना बाक़ी रह गया है: ऐतिहासिक भौतिकवाद के दृष्टिकोण से समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों का क्या मतलब हैजो आखिरी छानबीन में समाज का रूपउसके विचारमतराजनीतिक संस्थायें वगै़रह निश्चित करती हैं।
आखिरयह ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ हैं क्याउनके विशेष लक्षण क्या हैं?
इसमें कोई सन्देह नहीं कि ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ – इस धारणा मे प्रकृति शामिल है जो समाज को घेरे हुए हैभौगोलिक परिस्थितियां शामिल हैं जो समाज के भौतिक जीवन के लिए एक लाज़िमी और सदा रहने वाली शर्त हैं और जो अवश्य ही समाज के विकास पर असर डालती हैं। सामाजिक विकास में  भौगोलिक परिस्थिति कौन सा पार्ट अदा करती हैक्या भौगोलिक परिस्थिति वह मुख्य शक्ति है जो समाज के रूप कोमनुष्य की समाज-व्यवस्था के रूप कोएक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था की ओर प्रगति को निश्चित करती है?
ऐतिहासिक भौतिकवाद इस सवाल के जवाब में कहता है - नहीं।
निस्संदेहभौगोलिक परिस्थितियां सामाजिक विकास के लिये एक लाज़िमी और हमेशा रहने वाली शक्ति हैं और अवश्य ही सामाजिक विकास पर असर डालती हैंउस विकास की गति तेज़ करती हैंया उसे रोकती हैं। लेकिनउनका असर नियामक नहीं है। कारण यह कि समाज के परिवर्तन और विकासभौगोलिक परिस्थितियों के परिवर्तन और विकास से निस्बतन कहीं ज्यादा तेज होते हैं। तीन हज़ार साल की अवधि मेंतीन विभिन्न्ा समाज-व्यवस्थायें यूरोप में एक के बाद एक आ चुकी हैं:
आदिम साम्यवादी व्यवस्थाग़ुलामी की व्यवस्था और सामन्ती व्यवस्था। यूरोप के पूर्वी  हिस्से मेंसोवियत संघ में चार व्यवस्थायें एक के बाद एक आ चुकी हैं। लेकिनइसी अवधि मेंयूरोप की भौगोलिक परिस्थितियां या तो बदली ही नहीं हैं या इतनी कम बदली हैं कि भूगोल ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया हैऔर यह बिल्कुल स्वाभाविक है। भौगोलिक परिस्थिति में महत्वपूर्ण तब्दीली के लिये लाखों वर्ष चाहियेजब कि मानव समाज की व्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण तब्दीलियों के लिये भी कुछ शताब्दियां या एक-दो हज़ार साल काफ़ी होते हैं।
इससे नतीजा यह निकलता है कि भौगोलिक परिस्थितियां सामाजिक विकास का मुख्य कारणउसका नियामक नहीं कही जा सकतीं। जो वस्तु स्वयं लाखों साल तक अपरिवर्तित रहेवह उस चीज के विकास का मुख्य कारण नहीं हो सकती जिसमें कुछ शताब्दियों में ही बुनियादी तब्दीली हो।
और भीइसमें सन्देह नहीं कि ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ - इस धारणा में जनसंख्या  बढ़ती भी शामिल हैआबादी का कमोवेश घना होना भी शामिल हैक्योंकि इंसान समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों का जरूरी तत्व है और बिना एक निश्चित अल्पतम जनसंख्या के समाज का भौतिक जीवन हो ही  नहीं सकता। तब क्या जनसंख्या की बढ़ती वह मुख्य शक्ति नहीं है जो मनुष्य की समाज-व्यवस्था का रूप निश्चित करती है?
ऐतिहासिक भौतिकवाद इस सवाल के जवाब में भी कहता है - नहीं।
अवश्य हीजनसंख्या की बढ़ती समाज के विकास पर असर डालती हैसमाज के विकास की गति को तेज़ करने या रोकने में मदद देती है। लेकिनवह सामाजिक विकास की मुख्य शक्ति नहीं हो सकती और सामाजिक विकास पर उसका असर नियामक नहीं हो सकता। कारण यह कि सिर्फ जनसंख्या की वृद्धि से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि किसी समाज-व्यवस्था के बदले कोईविशेष नयी समाज-व्यवस्था ही क्यों आती है और कोई दूसरी क्यों नहीं आतीआदिम साम्यवादी व्यवस्था के बदले ठीक गुलामी की व्यवस्था ही क्यों आती हैगुलामी की व्यवस्था के बदले सामंती व्यवस्था और सामंती व्यवस्था के बदले पंूजीवादी व्यवस्था ही क्यों आती हैकोई दूसरी क्यों नहीं आती।
अगर जनसंख्या की बढ़ती सामाजिक विकास की नियामक शक्ति हो तो जनसंख्या के अधिक घने होने से वैसी ही ऊंचे स्तर की समाज-व्यवस्था भी पैदा हो जाये। लेकिनहम देखते हैं कि ऐसा नहीं होता। चीन की आबादी अमरीका से चार गुना ज्यादा घनी हैफिर भी सामाजिक विकास-क्रम में अमरीका चीन से ऊपर है। कारण यह कि चीन में अर्द्ध-सामन्ती व्यवस्था अब भी चालू है जब कि अमरीका बहुत पहले पूंजीवाद के उच्चतम विकास की मंजिल तक पहुंच गया है। बेल्जियम की आबादी अमरीका से 19 गुना घनी है और सोवियत संघ से 26 गुना घनी है। फिर भीअमरीका सामाजिक विकास-क्रम में बेल्जियम से ऊपर है। जहां तक सोवियत संघ का सवाल हैबेल्जियम हमारे देश से एक ऐतिहासिक युग पीछे हैक्योंकि बेल्जियम में पूंजीवादी व्यवस्था चालू है जब कि सोवियत संघ ने पहले ही पूंजीवादी व्यवस्था खत्म कर दी है और समाजवादी व्यवस्था क़ायम कर ली है।
इससे यह नतीजा निकलता है कि जनसंख्या की बढ़ती सामाजिक विकास की मुख्य शक्तिऐसी शक्ति जो समाज का रूपसमाज-व्यवस्था का रूप निश्चित करती होन है और न हो सकती है।

क) मुख्य निर्धारक शक्ति क्या है?

तब समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों के व्यूह में वह मुख्य शक्ति कौन सी है जो समाज का रूपसमाज-व्यवस्था का रूप निश्चित करती हैजो एक से दूसरी व्यवस्था की ओर समाज की प्रगति निश्चित करती है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद का कहना है कि यह शक्ति मानव जीवन के लिये आवश्यक ज़िन्दगी के साधनों को हासिल करने का तऱीका हैयह भौतिक मूल्यों की पैदावार का तरीक़ा है - खानाकपड़ाजूतेघरईंधनपैदावार के साधन वगैरह -जो सामाजिक जीवन और विकास के लिये अनिवार्य हैं।
जिन्दा रहने के लिये जरूरी है कि लोगों के पास खानाकपड़ाजूतेरहने की जगहईंधन वगैरह हों। इन भौतिक मूल्यों को हासिल करने के लियेयह ज़रूरी है कि लोग उन्हें पैदा करें। उन्हें पैदा करने के लिये ज़रूरी है कि लोगों के पास पैदावार के साधन होंजिनसे कि खाना-कपड़ाजूतेरहने की जगह ईंधन वगैरह पैदा किये जाते हों। यह जरूरी है कि लोग इन साधनों को पैदा कर सकें और उन्हें काम में ला सकें।
पैदावार के औज़ारजिनसे भौतिक मूल्य पैदा किये जाते हैंवे लोग जो पैदावार के औज़ारों को काम में लाते हैं और एक निश्चित पैदावार के अनुभव और श्रम-कौशल से भौतिक मूल्यों की पैदावार करते जाते हैं - ये सब तत्व कुल मिलाकर समाज की उत्पादक शक्तियां हैं।
लेकिनउत्पादक शक्तियां पैदावार का सिर्फ़ एक पहलू हैंपैदावार के तरीके़ का सिर्फ़ एक पहलू हैं। यह ऐसा पहलू है जो मनुष्यों के और प्रकृति की वस्तुओं और शक्तियों के सम्बन्ध को प्रकट करता है। इन वस्तुओं और शक्तियों को इन्सान भौतिक मूल्य पैदा करने के लिये काम में लाते हैं। पैदावार का दूसरा पहलूपैदावार के तरीके़ का दूसरा पहलू उत्पादन-क्रम में मनुष्यों का आपसी सम्बन्ध हैमनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्ध हैं। भौतिक मूल्यों को पैदा करने के लिये मनुष्य जब प्रकृति से संघर्ष करते हैं और प्रकृति को काम में लाते हैं तो वे एक-दूसरे से अलग-थलग रह करव्यक्तिगत रूप से अलग रहकर नहीं करते बल्कि मिलकरगुटों मेंसमाजों में ऐसा करते हैं। इसलियेउत्पादन सभी समय और सभी परिस्थितियों में सामाजिक उत्पादन होता है। भौतिक मूल्यों की  पैदावार में उत्पादन के भीतर मनुष्य आपस में एक या दूसरी तरह के सम्बन्ध क़ायम करते हैंवे एक या दूसरी तरह के उत्पादन-सम्बन्ध क़ायम करते हैं। ये संबंध इस तरह के लोगों मेंजो शोषण से मुक्त हैंसहयोग और परस्पर सहायता के संबंध हो सकते हैं।
वे प्रभुत्व और पराधीनता के संबंध हो सकते हैंऔर अंत में उत्पादन-सम्बन्धों के एक रूप से दूसरे रूप की तरफ़ बढ़ने की दशा के हो सकते हैं। लेकिनउत्पादन-सम्बन्धों का जो भी रूप होवे हमेशा और हर व्यवस्था में पैदावार का वैसा ही ज़रूरी हिस्सा होते हैंजैसा कि समाज की उत्पादक शक्तियां।
मार्क्स ने लिखा था:
पैदावार में इंसान प्रकृति पर ही नहीं बल्कि एक-दूसरे पर भी अपना प्रभाव डालते हैं। किसी निश्चित तरीके़ से सहयोग करके ही और अपनी कार्यवाही की परस्पर अदला-बदली करके हीवह पैदावार कर सकते हैं। पैदावार करने के लियेवे एक-दूसरे से निश्चित सम्पर्क और सम्बन्ध स्थापित करते हैं और इन सामाजिक सम्पर्क और सम्बन्धों के भीतर ही प्रकृति पर प्रभाव पड़ता हैउनकी पैदावार होती है।” (कार्ल मार्क्ससंÛग्रंÛ, अंÛ संÛ, मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 211)
नतीजा यह कि पैदावार मेंपैदावार के तरीके़ मेंदोनों चीजें शामिल हैं समाज की उत्पादक शक्तियां और मनुष्यों के उत्पादक-सम्बन्ध। इस तरहपैदावारपैदावार का तरीक़ाभौतिक मूल्यों के उत्पादन-क्रम में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों की एकता का मूर्त रूप है।


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