तीसरा पोस्ट
यह समझना आसान है कि द्वंद्वात्मक तरीके़ के उसूलों को सामाजिक जीवन और समाज के इतिहास के अध्ययन पर लागू करना कितना महत्वपूर्ण है और समाज के इतिहास और सर्वहारा वर्ग की पार्टी की अमली कार्यवाही पर उन्हें लागू करना कितने भारी महत्व की बात है।
अगर संसार में अलग-अलग घटना प्रवाह नहीं हैं, अगर सभी घटना प्रवाह परस्पर निर्भर और सम्बन्धित हैं, तो यह बात साफ़ है कि किसी समाज-व्यवस्था या इतिहास के किसी सामाजिक आन्दोलन का मूल्यांकन ’शाश्वत न्याय’ के विचार से और किसी पूर्व निश्चित धारणा के अनुसार न करना चाहिये, जैसा कि इतिहासकार बहुत बार करते हैं। यह मूल्यांकन उन परिस्थितियों के लिहाज से करना चाहिये जिन्होंने उस व्यवस्था को या उस सामाजिक आन्दोलन को जन्म दिया था और जिससे वे सम्बन्धित हैं।
आजकल की परिस्थितियों में गुलामी की प्रथा निरर्थक, मूर्खतापूर्ण और अस्वाभाविक होगी। लेकिन उन परिस्थितियांे में, जब आदिम साम्यवादी व्यवस्था टूट रही थी, तब गुलामी की प्रथा बिल्कुल सार्थक और एक स्वाभाविक घटना प्रवाह थी। कारण यह कि उस समय वह आदिम साम्यवादी व्यवस्था से आगे बढ़ी हुई व्यवस्था थी।
जब ज़ारशाही और पूंजीवादी समाज 1905 के रूस में मौजूद थे, तब पूंजीवादी-जनवादी प्रजातंत्र की मांग एक बिल्कुल सार्थक, उचित और क्रांतिकारी मांग थी क्योंकि उस समय पूंजीवादी प्रजातंत्र एक आगे बढ़ा हुआ क़दम होता। लेकिन, अब सोवियत संघ की परिस्थितियों में पूंजीवादी-जनवादी प्रजातंत्र की मांग एक निरर्थक और क्रान्ति-विरोधी मांग होगी; क्योंकि सोवियत प्रजातंत्र के मुकाबिले में पूंजीवादी प्रजातंत्र पीछे की तरफ़ क़दम होगा। सब कुछ परिस्थितियों पर, देश और काल पर निर्भर है।
यह बात साफ़ है कि सामाजिक घटना-प्रवाह की तरफ़ इस ऐतिहासिक रूख के बिना इतिहास-विज्ञान का अस्तित्व और विकास नामुमकिन है। यही रुख इतिहास-विज्ञान को इस बात से बचाता है कि वह केवल घटना-संग्रह और बेहद भद्दी भूलों की सूची न बन जाये।
और भी, अगर संसार सतत गतिशीलता और विकास की दशा में है, अगर प्राचीन का मरना और नवीन की बढ़ती विकास का नियम है, तो यह बात साफ़ है कि कोई भी समाज-व्यवस्था ’अजर-अमर’ नहीं है, व्यक्तिगत सम्पत्ति और शोषण के कोई भी ’अमर सिद्धांत’ नहीं हैं, कोई भी ऐसे ’शाश्वत विचार’ नहीं हैं जिनके अनुसार किसान जमींदार की, और मजदूर पूंजीपति की गुलामी करे।
इसलिये, समाजवादी व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था की जगह ले सकती है, ठीक जैसे एक समय पूंजीवादी व्यवस्था ने सामन्ती व्यवस्था की जगह ली थी। इसलिये, हमें अपने दृष्टिकोण का आधार समाज के उन स्तरों को न बनाना चाहिये जो अब विकसित नहीं हो रहे हैं, भले ही वह इस समय एक प्रमुख शक्ति हों।
हमे उन स्तरों को अपना आधार बनाना चाहिये जो विकसित हो रहे हैं और जिनके सामने भविष्य है, भले ही इस समय वे प्रमुख शक्ति न बन पाये हों।
1880 के लगभग, जब मार्क्सवादियों और लोकवादियों में संघर्ष हो रहा था तब रूस का सर्वहारा वर्ग आबादी का एक तुच्छ अल्पसंख्यक भाग था, और निजी मिल्कियत वाले किसान आबादी का भारी बहुसंख्यक हिस्सा थे। लेकिन, वर्ग रूप में सर्वहारा विकसित हो रहा था, जबकि वर्ग रूप में किसान टूट रहे थे। और, इसी वजह से कि वर्ग रूप में सर्वहारा विकसित हो रहा था, माक्र्सवादियों ने सर्वहारा को अपने दृष्टिकोण का आधार बनाया। और, इसमें उन्होंने भूल न की थी क्योंकि, जैसा हम जानते हैं, सर्वहारा वर्ग आगे चल कर एक नगण्य शक्ति से बढ़ कर प्रथम कोटि की ऐतिहासिक और राजनीतिक शक्ति बन गया।
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिये, यह जरूरी है कि हमारी दृष्टि आगे की तरफ़ हो न कि पीछे की तरफ़।
और भी, अगर धीरे-धीरे होने वाली परिमाण की तब्दीली तेज़ी से और सहसा होने वाली गुण की तब्दीली बन जाती है और यह विकास का नियम है तो, यह बात साफ़ है कि पीड़ित वर्ग जब क्रांति करते हैं तो यह काम एकदम स्वाभाविक और लाज़िमी घटना होता है।
इसलिये, पूंजीवाद से समाजवाद की तरफ़ प्रगति और पूंजीवाद की गुलामी से मज़दूर वर्ग की मुक्ति धीमी-धीमी तब्दीली से, सुधारों से, नहीं हो सकती बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के गुण में ही तब्दीली से, क्रान्ति से ही हो सकती है।
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिये, यह जरूरी है कि हम क्रान्तिकारी हों न कि सुधारवादी।
और भी, अगर विकास का सिलसिला भीतरी असंगतियों के उभर कर सामने आने से चलता है, इन असंगतियों के आधार पर विरोधी शक्तियों की टक्कर से होता है और इन असंगतियों को खत्म करके होता है, तो यह बात साफ़ है कि सर्वहारा का वर्ग-संघर्ष एक बिल्कुल स्वाभाविक और लाज़िमी घटना है।
इसलिये, हमें पूंजीवादी व्यवस्था की असंगतियों पर पर्दा न डालना चाहिये बल्कि उन्हें उभारना और प्रकट करना चाहिये। हमें वर्ग-संघर्ष को रोकना न चाहिये, बल्कि उसके परिणाम तक उसे ले जाना चाहिये।
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिए, जरूरी है कि हम बिना समझौते की सर्वहारा की वर्ग-नीति का पालन करें, हम मज़दूरों और पूंजीपतियों के हितों के सामंजस्य की सुधारवादी नीति का पालन न करें, हम समझौतावादियों की इस नीति का पालन न करें कि “पूंजीवाद बढ़ते-बढ़ते समाजवाद में बदल जायेगा।”
सामाजिक जीवन पर, समाज के इतिहास पर लागू किया जाने वाला माक्र्सीय द्वंद्वात्मक तरीक़ा यही है।
जहां तक माक्र्सवादी दार्शनिक भौतिकवाद का सम्बन्ध है, वह बुनियादी तौर से दार्शनिक भाववाद का ठीक उल्टा है।
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