Sunday, February 21, 2021

किसान आंदोलन तथा श्रम कानूनों में संशोधन के खिलाफ मजदूर आंदोलन तेज करो !


आज बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन की तरफ से राजेंद्र नगर -कुमहरार कमिटी ने मुसल्लहपुर हाट तथा सैदपुर के इलाके में जन विरोधी कृषि कानून तथा  श्रम कानूनों में हुए सुधार के खिलाफ मजदूरों को जागृत करने का अभियान चलाया | यूनियन के साथी कॉम इंद्रजीत तथा साथी रंजीत मजदूरों के बीच अपनी बात रखते हुए : - -
यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि मजदूरों के काम के घंटे और मनमाना शोषण के लिए मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव के बाद  कृषि कानून ऐसे बदलाव लाए गए ताकि सरकार अपनी जमीन तथा उत्पादन के साधनों को बड़ी पूंजी के हाथों खोकर मजदूर बन जाए ।  यह ऐसी स्थिति है जिसमें मोदी सरकार वित्त पूंजी तथा भारतीय एकाधिकार पूंजी [अदानी अंबानी टाटा आदि ) के फायदे के लिए न सिर्फ मजदूरों का शोषण तीव्र कर दिया है बल्कि किसानों का भी संपत्ति हरण कर उन्हें बेहाल कर रहा है ।इस मायने में किसान आंदोलन भावी मजदूरों के जीवन के संकटों के खिलाफ होने वाली लड़ाई का पहला चरण है । इस लड़ाई में मजदूरों को शामिल होकर न सिर्फ कृषि कानून , बल्कि श्रम कानूनों में हुए बदलाव के खिलाफ लड़ने के लिए किसानों  के साथ संयुक्त मोर्चा बनाना समय की मांग है ।

फ़्रेडरिक एंगेल्स

" विज्ञान जितनी दृढ़ता और निस्पृहता के साथ आगे बढ़ता है, वह मजदूरों के हितों और आकांक्षाओं के साथ उतना ही सामंजस्य स्थापित करता है. "  फ़्रेडरिक एंगेल्स

Friday, February 19, 2021

विज्ञान की दुनिया का पहला शहीद (ब्रूनो)

विज्ञान की दुनिया का पहला शहीद (ब्रूनो) था
यह कहानी निकोलस कॉपरनिकस (1473 -1543) से शुरू होती है। वे पोलैंड के रहने वाले थे । गणित व खगोल में इनकी रुचि थी।
खगोल में अब तक हमारे पास टालेमी का दिया हुआ ब्रह्मांडीय मॉडल था। इसके अनुसार पृथ्वी स्थिर थी और केंद्र में थी व सभी अन्य खगोलीय पिंड इसके चारों ओर चक्कर लगाते दर्शाए गए थे। विद्वानों ने इसका समय-समय पर अध्ययन किया था। गणितीय दृष्टि से कुछ दिक्कतें थी जो इस मॉडल से हल नहीं हो रही थी।
कॉपरनिकस का मानना था कि यदि पृथ्वी की बजाए सूर्य को केंद्र में रख लिया जाए तो काफी गणनाए सरल हो सकती हैं। कॉपरनिकस साधु स्वभाव का व्यक्ति था । वह समझता था कि यदि उसने अपना मत स्पष्ट कर दिया तो क्या कुछ हो सकता है। वह चर्च के गुस्से को समझता था, सो उसने चुप रहना उचित समझा। लेकिन उसने अध्ययन जारी रखे। वह बूढ़ा हो गया और उसे अपना अंत निकट लगने लगा। उसने मन बनाया कि वह अपना मत सार्वजनिक करेगा।
उसने यह काम अपने एक शिष्य जॉर्ज जोकिम रेटिकस को सौंप दिया कि वह इन्हें छपवा दे। उसने यह काम अपने एक मित्र आंद्रिया आसियांडर के हवाले कर दिया। इन्होंने कॉपरनिकस की पुस्तक प्रकाशित करवा दी। यह उसी समय प्रकाशित हुई जब कॉपरनिकस मृत्यु शैया पर था। वह इसकी जांच पड़ताल नहीं कर सकता था। आंद्रिया आसियांडर एक धार्मिक व्यक्ति था। इसका मत कॉपरनिकस के मत से मेल नहीं खाता था। इन्होंने बिना किसी सलाह या इजाजत के पुस्तक में कुछ फेरबदल किए। उन्होंने पुस्तक की भूमिका में यह लिख दिया कि कॉपरनिकस की यह सब कल्पना है, यथार्थ अध्ययन नहीं हैँ। पुस्तक के नाम में भी कुछ बदलाव किया। प्रकाशित होते ही यह चर्च की निगाह में आई। चर्च नहीं चाहता था कि किसी भी वैकल्पिक विचार की शुरुआत हो। चर्च ने पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया और सभी प्रतियां जब्त कर ली। किसी तरह कुछ प्रतियां बच गई। चर्च ने समझा अब बात आगे नहीं बढ़ेगी।
कुछ समय तक सब शांत रहा। एक बार इटली का एक नवयुवक गीयरदानो ब्रूनो 1548 - 1600) चर्च में कुछ पढ़ रहा था, वह पादरी बनना चाहता था। किसी तरह उसके हाथ कॉपरनिकस की पुस्तक लग गई। इन्होंने यह पढी। इनकी इस पुस्तक में दिलचस्पी बढ़ी। इन्होंने सोचा कि क्यों एक व्यक्ति किसी अलग विचार पर बहस करना चाहता है। इन्होंने इस विषय पर आगे अध्ययन करने का मन बनाया। पादरी बनने की उनकी योजना धरी की धरी रह गई। जैसे-जैसे वह अध्ययन करता गया उसका विश्वास मजबूत होता गया। वह भी चर्च की ताकत और गुस्से को समझता था। इसलिए उन्होंने इटली छोड़ दी। वह इस मत के प्रचार के लिए यूरोप के लगभग एक दर्जन देशों (प्राग , पैरिस, जर्मनी, इंग्लैंड आदि) में घूमा।
चर्च की निगाह हर जगह थी। कुछ विद्वान इसके मत से सहमत होते हुए भी चर्चा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। चर्च की निगाह में ब्रूनो अब भगोड़ा था। वह जितना भी प्रचार करता चर्च की निगाह में उसका जुर्म उतना ही संगीन होता जाता था। वह छिपता तो भी कहां और कब तक? वैचारिक समझौता उसे मंजूर नहीं था। चर्च ने ब्रूनो को पकड़ने के लिए एक जाल बिछाया। एक व्यक्ति को तैयार किया गया कि वह ब्रूनो से पढ़ना चाहता है। फीस तय की गई। ब्रूनो ने समझा कि अच्छा है एक शिष्य और तैयार हो रहा है। ब्रूनो इस चाल को समझ नहीं पाया। उसने इसे स्वीकार किया और बताए पते पर जाने को तैयार हो गया। इस प्रकार वह चर्च के जाल में फंस गया। जैसे ही वह पते पर पहुंचा चर्च ने उसे गिरफ्तार कर लिया।
चर्च ने पहले तो इन्हें बहुत अमानवीय यातनाएं दी। उसे एकदम से मारा नहीं। चर्च ने उसे मजबूर करना चाहा कि वह अपना मत वापस ले ले और चर्च द्वारा स्थापित विचार को मान ले। ब्रूनो अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ। चर्च ने लगातार 6 वर्ष प्रयास किए कि वह बदल जाए। उसे लोहे के संदूक में रखा गया जो सर्दियों में ठंडा और गर्मियों में गर्म हो जाता था। किसी भी तरह की यातनाएं उसके मनोबल को डिगा नहीं पाई। अब तक चर्च को भी पता चल चुका था कि ब्रूनो मानने वाला नहीं है। न्यायालय का ड्रामा रचा गया। चर्च ने सजा सुनाई कि इस व्यक्ति को ऐसे मौत दी जाए कि एक बूंद भी रक्त की न बहे। ब्रूनो ने इस फरमान को सुना और इतना ही कहा-' आप जो ये मुझे सजा दे रहे हो, शायद मुझसे बहुत डरे हुए हो'
17 फरवरी सन 1600 को ब्रूनो को रोम के Campo dei Fiori चौक में लाया गया। उसे खंभे से बांध दिया गया। उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया ताकि वह कुछ और न बोल सके। उसे जिंदा जला दिया गया।
इस प्रकार ब्रूनो विज्ञान की दुनिया का पहला शहीद बना।
लोग वर्षों से मान्यताओं, धारणाओं, प्रथाओं और भावनाओं के पीछे इतने पागल हैं कि वे अपने विचारों से अधिक न कुछ सुनना चाहते हैं और न देखना। बदलना व त्यागना तो उससे भी बड़ी चुनौती है। यह जो एक डर बनाया जाता है असल में वो कुछ लोगों के एकाधिकार के छिन जाने के कारण बनाया जाता है, इसलिए वे इस डर को बनाये रखने की हिमायती है बशर्ते उसके पीछे कितनी ही कल्पनायें क्यों न गढ़नी पड़ जाए।
 *पोस्ट साभार :- श्री आर पी विशाल*

मजदुरो को न्यूनतम मजदूरी नही, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नही, पूंजीवाद में मजदुरो किसानों की यही नियति!

किसान आंदोलन में मजदूरों के शोषण की जब बात होने लगे,तब आंदोलन को किस दिशा में जाते हुए माना जाना चाहिए?

किसान आंदोलन की यह आवश्यकता बन गई है कि यह जीत हासिल करने के लिए अपने मित्र साथी की तलाश करें । छोटी पूंजी के मालिक व धनी किसान भी अब यह महसूस करने लगे हैं कि बिना मजदूरों तथा व्यापक मेहनतकश आबादी की मदद के इस फासीवादी सत्ता और बडे पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती है ।इसी का परिणाम है कि अब गुरनाम सिंह चढुनी जैसे धनी किसान भी बड़े पूंजीपतियों के खिलाफ किसानों और मजदूरों की एकता की बात कर रहे हैं । वह मजदूरों के न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी मिलने का हवाला दे रहे हैं और किसानों के फसल के न्यूनतम मूल्य से भी कम मूल्य मिलने का उदाहरण देकर मजदूर और किसान एकता की बात कर रहे हैं । उनके अनुसार आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी कि लोगों का , लोगों के द्वारा लोगों के लिए सरकार बने लेकिन आज भारत में पूंजीपतियों का , पूंजीपतियों के द्वारा पूंजीपतियों के लिए  सरकार चल रही है ।
आंदोलन के मुद्दे और आंदोलन का फलक विस्तार पा रहा है । परिस्थितियां पूंजीवादी लोकतंत्र को नंगा कर रहा है ' । वैचारिक बहस और आंदोलन को पूरी ताकत से जारी रखा जाना चाहिए और मजदूर वर्ग की एकता और किसानों के साथ संयुक्त मोर्चा की व्यापक संभावनाओं की तलाश करनी चाहिए ।

यह कटु सच्चाई है कि आज की तारीख में मजदूर वर्ग न तो संगठित है और न ही उसकी मजबूत कोई पार्टी है । मजदूर आगे बढ़कर किसानों का नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं है .लेकिन पिछले दशकों में लगातार हमले झेलते मजदूर वर्ग भी किसानों के आंदोलन से ऊर्जा पार्क करके अंदर से चेतनशील हो रहा है । मजदूर वर्ग के प्रतिनिधियों को आज ज्यादा से ज्यादा उनके सवालों और देश के हालात को लेकर उनके बीच जाना चाहिए । एक समय था कि मजदूर वर्ग की राजनीति सुधारबाद और नव उदारवादी विचारधाराओं के सुनामी में डूबता उतरता नजर आ रहा था, लेकिन आज उसे लोग सुन रहे हैं ।  आज उस के मुद्दे पर लोग बात कर रहे हैं । हमें उस मुद्दे को अपने वर्ग के बीच में और स्पष्टता के साथ रखने का अभियान चलाना है। हमें बताना है कि जब पूरी दुनिया में उत्पादन का सामाजीकरण हो रहा है , तो पहले से समाज तथा राज्य के नियंत्रण में चल रहे कारखाने और साधनों को पूंजीपतियों को देने के खिलाफ खड़ा होना होगा। हमें छोटी पूंजी के मालिकों को बताना होगा कि पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर आपकी यह छोटी दुनिया सुरक्षित नहीं रह सकती है । इसलिए पूरी दुनिया के साधनों के सामा जीकरण का हिस्सा बनकर अपनी पीढ़ियों के लिए बेहतर जीवन सुनिश्चित कीजिए। हमें उन्हें बताना है कि जब तक बड़ी पूंजी के मालिकों के हाथ से उत्पादन के सभी साधनों को छीन कर उसका सामाजीकरण नहीं किया जाएगा , सुपर मुनाफा के बल पर हमेशा आपको और मेहनतकश मजदूर वर्ग को तबाह करते रहेंगे । आज हमारी बातों पर उन्हें विश्वास नहीं होगा , लेकिन आंदोलन जिन परिस्थितियों को तैयार कर रहा है सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में यह बात सुनी जा रही है ।

नरेंद्र कुमार

एम एस पी बचाओ आंदोलन और वित्त पूंजी


एम एस पी की लड़ाई डब्ल्यू टी ओ के शागीर्द वित्त पूंजी तथा भारतीय एकाधिकार पूंजी के खिलाफ राजकीय पूंजीवाद को मजबूत बनाएं रखने की लड़ाई है । खुले बाजार और पूंजी के बेलगाम बाजार पर एकाधिकार की छूट के खिलाफ लड़ाई है ।मजदूर वर्ग सहित सभी मेहनतकश वर्ग यदि पूंजी तथा खुले बाजार के वर्चस्व तथा एकाधिकार के खिलाफ संघर्ष में आगे बढ़कर नेतृत्व करने की स्थिति में होंगे तो समाजवाद की लड़ाई लड़ेंगे। यदि नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं होंगे, तब भी उस लड़ाई में साथ देंगे और सभी मेहनतकशो को समाजवाद के लिए तैयार करने की मुहिम चलाएंगे । लेकिन किसी भी स्थिति में छोटे पूंजीपतियों के हवाले को सामने रखकर के वित्त पूंजी  और एकाधिकार पूंजी द्वारा खुले बाजार में मेहनतकश उत्पादक शक्तियों को तबाह होकर सर्वहारा बनने का जश्न नहीं मनाएंगे !
सर्वहारा का राज्य सभी छोटे किसानों का उत्पाद खरीदने तथा उत्पादन के साधन उन्हें मुहैया करना सुनिश्चित करता है । अपने शुरुआती दिनों में सर्वहारा राज्य  धनी कुलको को अपना प्रहार का केंद्र नहीं बनाया। सोवियत संघ में लेनिन और स्टालिन के अनुभव पर जिन साथियों को बहस करना है उन्हें नई आर्थिक नीति से लेकर खेती के सामूहिकीकरण के प्रारंभिक दौर पर अपना सैद्धांतिक बहस चलाना चाहिए ।
आज का आंदोलन यदि महज एम एस पी को लागू रखने का भी आंदोलन होता तो यह समाजवाद की दिशा में राजकीय पूंजीवाद को बचाए रखने की लडाई होता जो कि एकाधिकार पूंजीपति और वित्त पूंजी के द्वारा संचालित व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के रूप में सामने है । । यह आंदोलन एम एस पी से कहीं आगे बाजार व्यवस्था के खिलाफ,  वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन के माध्यम से वित्त पूंजी द्वारा थोपी गई शर्तों के खिलाफ एक व्यापक जनांदोलन है जो फासीवादी राज्य सत्ता  के सामने मजबूत चुनौती पेश कर रहा है । जो लोग अगर मगर करके इस आंदोलन का मजाक उड़ा रहे हैं, जो इस आंदोलन से दूर हैं, वे जाने अनजाने मेहनतकश किसानों और भोजन के लिए पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (पी डी एस ) के माध्यम से राज्य पर निर्भर गरीब आबादी के खिलाफ बड़ी पूंजी के मौन समर्थन के अपराधी हैं । MSP के विरोध में आग उगलने वाले साथियों को समझना होगा कि किसी भी फसल की कीमत बढ़ाने की लड़ाई और एमएसपी यानी की सरकारी खरीद को बनाए रखने की लड़ाई में फर्क होता है । फसल की कीमत बढ़ाने की लड़ाई धनी किसानों के फायदे की आर्थिक लड़ाई मानी जा सकती है । लेकिन सरकारी खरीद को जारी रखने की लड़ाई पूंजीवाद के हिस्से के रूप में राजकीय पूंजीवाद को बनाए रखने की लड़ाई है ।

आज के किसान आंदोलन में एंगेल्स तथा लेनिन के विचारों के आधार पर मजदूर वर्ग की क्या भूमिका हो ?



कई साथी सिर्फ लेनिन तथा एंगेल्स के उद्धरण पेश कर रहे हैं। उन्हें आज के किसान आंदोलन के संदर्भ में उसका विश्लेषण भी पेश करना चाहिए। इस लेख में । 'फ्रांस तथा जर्मनी में किसान का सवाल ' लेख से दो उद्धरण पेश किया जा रहा है जिसका कई साथी संदर्भ से हट कर अलग - अलग अर्थ निकाल रहे हैं । जबकि एक ही लेख में किसानों के प्रति संपूर्णता में मजदूर वर्ग और उसकी पार्टी के दृष्टिकोण को पेश करने के लिए एंगेल्स ने ये सारी बातें लिखी है। पहले एंगेल्स के उस पक्ष को उद्धृत कर विचार किया जाए जिसमें वह पूंजीवाद में छोटी खेती के पुराने उत्पादन संबंध को अनिवार्य रूप से समाप्त होने की बात करते हैं । एंगेल्स लिखते हैं "हमारी पार्टी का यह कर्तव्य है कि किसानों को बारंबार स्पष्टता के साथ जताए कि पूंजीवाद का बोलबाला रहते हुए उनकी स्थिति पूर्णतया निराशापूर्ण है, कि उनकी छोटी जोतों को इस रूप में बरकरार रखना एकदम असंभव है, कि बड़े पैमाने का पूंजीवादी उत्पादन उनके छोटे उत्पादन की अशक्त , जीर्ण-शीर्ण प्रणाली को उसी तरह कुचल देगा, जिस तरह रेलगाड़ी ठेला गाड़ी को कुचल देती है। ऐसा करके हम आर्थिक विकास की अनिवार्य प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य करेंगे ।और यह विकास एक न एक दिन छोटे किसानों के मन में हमारी बात को बैठाए  बिना नहीं रह सकता। (पृ.385)
    तो क्या यह बात भारत के आंदोलनकारी किसानों को उनके आंदोलन से दूर रहकर मजदूर वर्ग समझा सकता है? हम किसान आंदोलन में मजदूर वर्ग के कई संगठन को बड़ी पूंजी और फासीवाद के खिलाफ उनके संघर्ष का समर्थन तथा उसमें भागेदारी करते पा रहे हैं। ऐसे ही मजदूर संगठन के कार्यकर्ताओं को एक ऐसी पुस्तिका बेचते और बताते पाया कि जिसमें बताया गया है कि छोटे किसानों की खेती पूंजीवाद में अनिवार्य रूप से तबाह हो जाएगी। मजदूरों का यह संगठन पूरी सक्रियता से दिल्ली के आसपास के किसान आंदोलन में भागीदारी कर रहा है। किसान उनकी बात सुन रहे हैं । लेकिन क्या इस आंदोलन से दूर रहकर या बड़े पूंजीपतियों और फासीवादी सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलन का उपहास करते हुए उन्हें यह बात समझाई जा सकती है ?
   अपने उसी लेख में एंगेल्स आगे लिखते हैं," ....मझोला किसान जहां छोटी जोत वाले किसानों के बीच रहता है ,वहां उसके हित और विचार उनके हित और विचारों से बहुत अधिक भिन्न नहीं होते। वह अपने तजुर्बे से जानता है कि उसके जैसे कितने ही लोग छोटे किसानों की हालत में पहुंच चुके हैं ।पर जहां मझोले और बड़े किसानों का प्राधान्य होता है और कृषि के संचालन के लिए आम तौर पर नौकर और नौकरानियों की आवश्यकता होती है, वहां बात बिल्कुल दूसरी ही है ।कहने की जरूरत नहीं कि मजदूरों की पार्टी को प्रथमत: उजरती मजदूरों की ओर से, यानी इन नौकरों- नौकरानियों और दिहाड़ीदार मजदूरों की ओर से ही लड़ना है। किसानों से ऐसा कोई वादा करना निर्विवाद रूप से निषिद्ध है, जिसमें मजदूरों की उजरती गुलामी को जारी रखना सम्मिलित हो। परंतु जब तक बड़े और मझोले किसानों का अस्तित्व है ,वे उजरती मजदूरों के बिना काम नहीं चला सकते ।इसलिए छोटी जोत वाले किसानों को हमारा यह आश्वासन देना कि वह इस रूप में सदा बने रह सकते हैं, जहां मूर्खता की पराकाष्ठा होगी, वहां बड़े और मझोले किसानों को यह आश्वासन देना गद्दारी की सीमा तक पहुंच जाना होगा।      (पृ.385-86)
किसानों के पूंजीवादी प्रवृत्तियों और कमजोरियों पर प्रकाश डालते हुए एंगेल्स लिखते हैं : -
       ...." हमें आर्थिक दृष्टि से यह पक्का यकीन है कि छोटे किसानों की तरह बड़े और मझोले किसान भी अवश्य ही पूँजीवादी उत्पादन और सस्ते विदेशी गल्ले की होड़ के शिकार बन जायेंगे। यह इन किसानों की भी बढ़ती हुई ऋणग्रस्तता और सभी जगह दिखाई पड़ रही अवनति से सिद्ध हो जाता है।, ."(पृ.386)  
   आज के किसान आंदोलन में भागीदारी कर रहे छोटे यहां तक की बड़े किसान भी मजदूर वर्ग की पार्टी या संगठन द्वारा समझाने के पहले ही समझ रहे हैं कि बड़ी पूंजी के हमले के कारण उनकी खेती उजड़ जाएगी। जाहिर सी बात है कि एक वर्ग के रूप में छोटी पूंजी के मालिक यानी टुटपुंजिया वर्ग बड़ी पूंजी के हमले के खिलाफ अपने अस्तित्व के बचाव के लिए लड़ेगा ही।  कोई भी मजदूर वर्ग की पार्टी उसे बड़ी पूंजी के सामने आत्मसमर्पण करने की सलाह नहीं दे सकता है। यदि आप उसका उपहास उड़ाएंगे या आप उसे ज्ञान देंगे कि तुम्हारी बर्बादी निश्चित है तो उन किसानों का जवाब होगा कि "बंधु ! बर्बाद होने से तो लड़ते-लड़ते मर जाना अच्छा है '। इसलिए पूंजीवाद के सामने निष्क्रिय विरोध या आत्मसमर्पण कर देने का सलाह हम नहीं दे सकते हैं। 
चुपचाप रह जाने की नीति पर चलते हुए जो साथी सिर्फ उद्धरणों को पेश करते हैं उनसे हमारा सवाल है कि आप किसानों को क्या कहना चाहते हैं ? क्या उन्हें लड़ाई नहीं लड़ना चाहिए ? बड़ी पूंजी के खिलाफ फासीवादी शक्तियों के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए क्या किसानों को चुपचाप से बड़ी पूंजी के इस हमले को सहते हुए बिखर जाना चाहिए ?
एगेल्स चुप्पी या निष्क्रयता का विरोध करते हैं।वह किसानों के तबादला ने तक इंतजार करने की राजनीति का भी विरोध करते हैं। मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक जिम्मेवारी को बताते हुए और किसानों को अपने साथ ला खड़ा करने के लिए स्पष्ट दिशा निर्देशन देते हुए एंगेल्स आगे लिखते हैं, " सर्वहारा की पांतों में जबरन ढकेले जाने से हम जितने ही अधिक किसानों को बचा सकें, जितने अधिक को किसान रहते हुए ही हम अपनी ओर कर सकें, उतनी ही जल्दी और आसानी से सामाजिक कायापलट संपन्न होगा। इस कायापलट को तब तक टालने से , जब तक कि पूंजीवादी उत्पादन सर्वत्र अपनी चरम परिणति पर ना पहुंच जाए और हर छोटा दस्तकार और हर छोटा किसान बड़े पैमाने के पूंजीवादी उत्पादन का शिकार न बन जाए, हमारा कोई हित साधन नहीं होगा। इसके लिए किसानों के हितार्थ जो माली कुर्बानी करनी होगी, जिसकी पूर्ति सार्वजनिक कोष से की जाएगी, वह पूंजीवादी अर्थतंत्र के दृष्टिकोण से पैसों की बर्बादी मानी जा सकती है , किंतु वस्तुतः धन का अति उत्तम विनियोग है, क्योंकि उससे आम सामाजिक पुनः संगठन के खर्च में संभवत 10 गुनी बचत होगी। अतः इस अर्थ में किसानों के साथ हम अत्यंत उदारता का व्यवहार करने में समर्थ है।"
  फ्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल पुस्तिका में एंगेल्स के विचार..... खंड 3 भाग 2 ' ।
ये उद्धरण एक ही लेख में लगभग एक ही जगह है । इसलिए इन दोनों उद्धरण को संपूर्णता में ही समझा जाना चाहिए और वर्तमान आंदोलन से जोड़कर इसकी व्याख्या की जानी चाहिए । एंगेल्स  लिखते हैं कि छोटे किसानों की तबाही के लिए इंतजार करने में मजदूर वर्ग का कोई भला नहीं है। यही वह महत्त्वपूर्ण पंक्ति है जो हमें इस आंदोलन के समर्थन में खड़ा होते हुए पूंजीवाद के हमले में किसानो की खेती के अनिवार्य तौर पर तबाही की बात मजदूरों द्वारा किसानों को समझाने का निर्देश देता है |
 भारत के किसान एक दमनकारी फासीवादी राज्य से लड़ रहे हैं । वे वित्त पूंजी और एकाधिकार पूंजी के बड़े हमले के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में साथ देकर ही सामान्य किसानों को समझाया जा सकता है कि पूंजीवाद के अंतर्गत वे अपनी खेती नहीं बचा सकते हैं।
एंगेल्स तथा लेनिन जब इस तरह की बातें कहते हैं तो किसानों के सामने कहीं उन से आगे बढ़कर लड़ने और नेतृत्व देनेवाले संगठित मजदूर वर्ग खड़े होते हैं । आज भारत में मजदूर वर्ग और उनके संगठन की भारी कमजोरी यह है कि श्रम कानूनों में लगातार मजदूर विरोधी होने वाले सुधारों और मजदूर वर्ग के छीने जा रहे अधिकारों के बावजूद पूंजीवाद और उसकी फासीवादी सत्ता के खिलाफ कोई प्रतिरोध संघर्ष खड़ा नहीं कर पाए हैं| ऐसी स्थिति में हम किसानों को मजदूरों के पीछे आने के लिए राजनीतिक तौर पर आवाहन करने का भौतिक आधार भी तैयार नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सबसे पहले तो मजदूर वर्ग की जितनी भी ताकत है उसे संगठित करके मजदूर वर्ग को श्रम कानूनों में हुए सुधारों के खिलाफ मजबूत संघर्ष की तैयारी करनी चाहिए। साथ ही जन विरोधी कृषि कानूनों के खिलाफ संघर्ष को आगे ले जाना चाहिए और किसानों को इस लड़ाई में साथ देने का आवाहन करना चाहिए न कि हमें किसानों की इस लड़ाई को धनी किसानों की लड़ाई कह कर के चुप रहना चाहिए या मजदूर वर्ग को इससे अलग रहने की सलाह देनी चाहिए। वर्तमान में आंदोलनकारी किसान इस बात को समझ रहे हैं कि वे तबाह होने वाले हैं इसीलिए वे लड़ रहे हैं । वे इतिहास की गति नहीं समझते हैं लेकिन इतिहास ने किसानों पर समाजवाद के निर्माण की जिम्मेदारी भी नहीं दी है । यह जिम्मेवारी मजदूर वर्ग, उसके संगठन और पार्टी को दी है जो ऐसे ऐतिहासिक क्षण में या तो चुप हैं या उद्धरण का खेल खेल रहे हैं और सिर्फ लंबे-लंबे लेख लिख रहे हैं ।
जब छोटे और मझोले किसान बड़े पूंजीपतियों से और राज्य से अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हों तो ये सारी बातें उन्हें समझाते हुए हमें क्या तटस्थ रहना चाहिए या बड़ी पूंजी के खिलाफ और फासीवादी राज्य के खिलाफ उनके संघर्ष का समर्थन करना चाहिए ? एंगेल्स तथा लेनिन अपनी रचनाओं में इस बात पर जोर देते हैं कि समाजवादी यानी मजदूर वर्ग की पार्टी या मजदूर उनके छोटे जोत को बचाए रखने की गारंटी नहीं दे सकते हैं। यानी पूंजीवाद के रहते हुए बड़ी पूंजी उनकी छोटी पूंजी को अनिवार्य रूप से निगल जाएगा । इसलिए किसानों को बड़ी पूंजी के खिलाफ संघर्ष करते हुए मजदूरों के साथ तथा मजदूरों के नेतृत्व में आना चाहिए और समाजवाद के लिए संघर्ष में साथ देना चाहिए, ताकि उनके उत्पादों का सही मूल्य मिल सके और तर्कपूर्ण ढंग से मुनाफा के बजाए समाज की आवश्यकओं को केंद्र में रखकर उत्पादन किया जा सके और समाज के लिए उसे उपयोग में लाया जा सके।  बदले में किसानों को समाजवादी राज्य उत्पादन के तमाम साधनों तथा उत्पादों को पूरी तरह से खरीदने की गारंटी देगी। इस तरह से किसानों को एक बेहतर जीवन दिया जा सकेगा। समाजवादी राज्य ने सोवियत संघ में यही किया था।
  हमें लेनिन की यह बात याद रखना चाहिए, "सर्वहारा वर्ग वस्तुतः क्रांतिकारी, वस्तुतः समाजवादी ढंग से काम करने वाला वर्ग केवल उसी सूरत में होता है, जब वह समस्त मेहनतकशों तथा शोषितों के हरावल के रूप में शोषकों का तख्ता पलटने के लिए संघर्ष में उनके नेता के रूप में सामने आता है और काम करता है। परंतु यह काम वर्ग संघर्ष देहात में पहुंचाए बिना, देहात के मेहनतकश जनसाधारण को शहरी सर्वहारा की कम्युनिस्ट पार्टी के इर्द-गिर्द एकबद्ध किए बिना, सर्वहारा वर्ग द्वारा देहाती मेहनतकशों को शिक्षित-दीक्षित किए बिना पूरा नहीं हो सकता।" -कृषि प्रश्न पर थिसिसों का आरंभिक मसविदा, लेनिन नई संकलित रचनाएं, भाग- 4
भारत के आज की स्थिति में यह स्वीकार करना चाहिए कि लेनिन ने सर्वहारा वर्ग के जिस कार्यभार को रेखांकित किया है, उसे भारत के मजदूर वर्ग और उनके  संगठन   पेश कर में असफल रहे हैं ।अन्य शोषित उत्पीड़ित वर्गों के आंदोलन के समय ऐसी पहलकदमी का सर्वथा अभाव रहा है। अनिवार्य रूप से हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि मजदूर वर्ग मजदूर आंदोलन के साथ-साथ किसान आंदोलन को संगठित करने में ऐतिहासिक तौर पर यदि असफल नहीं रही तो कमजोर अवश्य रही है ।मजदूर आंदोलन ट्रेड यूनियन की सीमाओं से आगे नहीं बढ़ पाया । आज तो ट्रेड यूनियन की सीमाओं में लड़े जाने वाले श्रम कानूनों में पूंजी के पक्ष में हो रहे संशोधनों के खिलाफ भी युनियन नहीं लड़ पा रही है। साथ ही किसान सहित अन्य जनवादी आंदोलनों में अपनी भागीदारी करने में काफी पीछे रही है। ऐसी स्थिति में हमें मजदूर वर्ग के बीच में काम करने वाले राजनीतिक संगठन के तौर पर अपना आत्मअवलोकन करना चाहिए क्योंकि मजदूरों के मजबूत और राजनीतिक संघर्ष खड़ा किए बगैर किसान या दूसरे शोषित उत्पीड़ित समाज उसके नेतृत्व में या उसके साथ कैसे और क्यों आएंगे ?

नरेंद्र कुमार

नाज़िम हिकमत के जन्मदिवस के अवसर पर...



बीजों में, धरती में, सागर में भरोसा करना,
मगर सबसे अधिक लोगों में भरोसा करना।
बादलों को, मशीनों को, और किताबों को प्यार करना, 
मगर सबसे ज्यादा लोगों को प्यार करना।
ग़मज़दा होना 
एक सूखी हुई टहनी के लिए,
एक मरते हुए तारे के लिए, 
और एक चोट खाए जानवर के लिए,
लेकिन सबसे गहरे अहसास रखना लोगों के लिए।
खुशी महसूस करना धरती की हर रहमत में --
अँधेरे और रोशनी में,
चारों मौसमों में,
लेकिन सबसे बढ़कर लोगों में। 

-नाज़िम हिकमत ('मेरे बेटे के नाम आख़िरी चिट्ठी' से)

प्रेस विज्ञप्ति (प्रकाशनार्थ) पटना , दिनांक : 5-2-2021

बिहार निर्माण व असंगठित । श्रमिक यूनियन -
प्रेस विज्ञप्ति (प्रकाशनार्थ)
पटना , दिनांक : 5-2-2021
 किसान विरोधी एवं कारपोरेटपक्षी तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने और किसानों की अन्य न्यायपूर्ण मांगों को लेकर पिछले 72 दिनों से दिल्ली की सरहदों पर हजारों - लाखों की तादाद में जुटकर देश के किसान आन्दोलन कर रहे हैं। भयंकर ठंड और केन्द्र सरकार की जनविरोधी दमनात्मक कार्रवाइयों का सामना करते हुए किसानों का न्यायपूर्ण आंदोलन आगे बढ़ रहा है। पूरे देश में किसानों के आंदोलन के पक्ष में जनता के विभिन्न तबके सड़कों पर उतरकर अपनी एकजुटता प्रकट कर रहे हैं। इस आन्दोलन के समर्थन में पंजाब , हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में व्यापक उभार की स्थिति है। धीरे-धीरे किसान आन्दोलन ने एक जन आन्दोलन का रूप अख्तियार कर लिया है जिसके समर्थन में पूरे देश की जनपक्षधर , जनवादी एवं प्रगतिशील शक्तियां खड़ी हो गई हैं।                                                   किसान आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे '' संयुक्त किसान मोर्चा '' और ''अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति'' ने 6 फरवरी , 2021 को पूरे देश में नेशनल हाईवे , एवं स्टेट हाइवे पर 12 बजे से 3 बजे तक रास्ता जाम का आह्वान किया है। 
 बिहार में कार्यरत बिहार निर्माण कामगार यूनियन , बीड़ी मजदूर यूनियन (बिहार) - IFTU , बिहार निर्माण एवं असंगठित श्रमिक यूनियन , बिहार राज्य जेनरल मजदूर यूनियन , निर्माण मजदूर संघर्ष यूनियन (इफ्टू - सर्वहारा) ,भगत सिंह छात्र युवा संगठन ने एक संयुक्त बयान के जरिए 6 फरवरी के  "रास्ता जाम" के कार्यक्रम का समर्थन किया है और अपने कार्यकर्ताओं , समर्थकों एवं आम जनता से इस कार्यक्रम में भाग लेकर इसे सफल करने की अपील की है।
                    हस्ताक्षरित
 1. बिहार निर्माण कामगार यूनियन - अमित कुमार
2. बीड़ी मजदूर यूनियन , बिहार - IFTU - विनोद शर्मा
3. बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन - जयप्रकाश ल़लन , रासबिहारी चौधरी
4. बिहार राज्य जेनरल मजदूर यूनियन - नन्द किशोर सिंह
5. निर्माण मजदूर संघर्ष यूनियन ( IFTU - सर्वहारा ) - रामप्रवेश
6. भगत सिंह छात्र युवा संगठन - इन्द्रजीत कुमार

तीन कृषि कानूनों और चार श्रम संहिताओं का विरोध

दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने 6 फरवरी, 2021 को पूरे देश में राज्य और राष्ट्रीय राजमार्गों को 12:00 बजे से 3:00 बजे तक बंद करने का आह्वान किया था, ताकि पूरे देशभर में किसानों और मजदूरों की एकता को प्रदर्शित किया जा सके। इसी कड़ी में कल पटना के डाक-बंगला चौराहे पर भगत सिंह छात्र युवा संगठन, बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन समेत अन्य किसान-मजदूर संगठनों ने भी    केंद्र सरकार की तीन कृषि कानूनों और चार श्रम संहिताओं का विरोध किया। एक घंटे तक सड़क जाम किया गया। इस बीच तीन कृषि कानूनों और चार श्रम संहिताओं के खिलाफ नारे लगाए गए और मोदी की तानाशाही सरकार के खिलाफ संघर्ष तेज करने का आह्वान किया गया। संगठन के कुछ साथियों ने अपनी-अपनी बात रखी। हमारे साथी पवन कुमार ने कहा कि तीन कृषि कानून किसान नहीं पूंजीपति वर्ग के हित में लाए गए हैं। यह मोदी सरकार इन तीन कृषि कानूनों के जरिए किसानों की जमीन छिनकर पूंजीपतियों को देना चाहती है और किसानों को मजदूर बनाकर उन्हें पूंजीपति वर्ग का गुलाम बना देना चाहती है। इस देश की आजादी के सत्तर साल गुजार गए, लेकिन फिर भी इस देश में गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा जैसी समस्याओं को हल नहीं किया जा सका है। अभी तक की सभी सरकारों ने इस देश की जनता को बर्बाद ही किया है। इसीलिए हमें भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों से प्रेरणा लेकर सरकार नहीं पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। इसी से किसानों, मजदूरों और छात्रों का जीवन बेहतर हो सकता है।
इसी तरह से अन्य साथियों ने भी पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। आगे भी इस किसान आंदोलन को जारी रखने और चार श्रम संहिताओं के खिलाफ भी मजदूरों को एकजुट करने का निश्चय किया गया।  भगत सिंह छात्र युवा संगठन की ओर से जारी एक पर्चे का वितरण भी किया गया। अंत में एक क्रांतिकारी गीत 'जोगिरा सरा...ररा....' के साथ रोड जाम के कार्यक्रम को समाप्त किया गया। हमारा यह विरोध प्रदर्शन पूरी तरह शांतिपूर्ण और अहिंसक रहा।

इंकलाब जिंदाबाद! किसान-मजदूर-छात्र एकता जिंदाबाद!!
पूंजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!!!
वैज्ञानिक समाजवाद जिंदाबाद!!!!

29 श्रम कानूनों को समाप्त कर चार श्रम संहिताएं अप्रैल से पूरे देश में होंगी लागू

      केन्द्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने मजदूर विरोधी 4 श्रम संहिताओं के नियमों को अंतिम रूप दे दिया है। पूँजीपतियों के हित में राज्यों ने भी नियमों को अंतिम रूप दे दिया है। जल्द ही इन्हें लागू करने के लिए अधिसूचना जारी कर दिया जाएगा। चारों संहिताओं को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद अधिसूचित किया जा चुका है। लेकिन इन्हें अमल में लाने के लिए नियमों को भी अधिसूचित किए जाने की जरूरत है।
श्रम सचिव अपूर्व चंद्रा ने न्यूज एजेंसी पीटीआई से बातचीत में कहा कि हमने चारों श्रम संहिताओं को लागू करने के लिए जरूरी नियमों को अंतिम रूप दे दिया है। हम नियमों को अधिसूचित करने के लिए तैयार हैं। राज्य चारों श्रम संहिताओं के तहत नियमों को अंतिम रूप देने में जुटे हुए हैं। श्रम मंत्रालय ने चारों संहिताओं को एक साथ अप्रैल से लागू करने की योजना बनाई है। सारी परम्पराओं को तोड़कर राज्य सरकारें भी तैयारी में जुटी हुई हैं। अब तक की परंपरा के तहत केंद्र सरकार द्वारा कोई भी क़ानून पारित कराने के बाद राज्य सरकारें उस अनुरूप क़ानून बनाती थीं, लेकिन पूँजीपतियों का हित इस कदर आज सर्वोपरि हो चुका है कि सारी परंपराओं को तोड़कर ताबड़तोड़ राज्य सरकारें भी ड्राफ्ट नियमों को अधिसूचित करने की प्रक्रिया में हैं।
                पूरे देश में मज़़दूर संगठनों द्वारा लगातार विरोध और कोरोना महामारी के बावजूद देशी-बहुराष्ट्रीय पूँजीपतियों के हित में मोदी सरकार ने मानसून सत्र में जब विपक्ष संसद में नहीं था तब बिना किसी चर्चा के तीन श्रम संहिताएँ पास करा लिए, जबकि मज़़दूरी श्रम संहिता 8 अगस्त 2019 को ही पारित हो चुकी है और नियमावली भी पारित हो चुकी है। अब बाकी तीन संहिताओं की नियमावली भी केन्द्र सरकार के साथ राज्य सरकारें भी अन्तिम रूप दे चुकी है। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार भी हठधर्मिता के साथ एक अप्रैल से चारो मज़़दूर विरोधी श्रम संहिताएँ लागू करने वाली है।
      दरअसल, श्रम क़ानूनी अधिकारों को ख़त्म करने का दौर 1991 में कथित आर्थिक सुधारों के साथ चल रहा है। अटल बिहारी सरकार के दौर में श्रम क़ानूनों को पंगु बनाने के लिए द्वितीय श्रम आयोग की रिपोर्ट आई थी, तब व्यापक विरोध के कारण यह अमली रूप नहीं ले सका था। लेकिन बाजपेई से मनमोहन सरकार के दौर तक धीरे-धीरे यह लागू होता रहा। इसे एक झटके से ख़त्म करने का काम मोदी सरकार ने तेज किया। प्रचंड बहुमत की मोदी सरकार ने अपनी दूसरी पारी में इसे अमली जामा पहनाया और इसके लिए सबसे मुफीद समय उसने कोरोना महामारी के वैश्विक संकट काल को चुना। औद्योगिक सम्बंध संहिता की धारा 77 के अनुसार 300 से कम मज़़दूरों वाले उद्योगों को कामबंदी (लेऑफ), छँटनी या बंदी के लिए सरकार की अनुमति लेना जरूरी नहीं है। कामबंदी के लिए महज 15 दिन की नोटिस, छँटनी के लिए 60 दिन पहले नोटिस और कंपनी बंद करने पर 90 दिन पहले नोटिस देना होगा। छँटनी या कामबंदी के समय नियोक्ताओं से सूचना माँगने पर वे जो भी सूचना श्रम विभाग को देंगे, वे ही मान्य होंगे। छँटनी का शिकार हुए कर्मचारी के री-स्किल डेलवपमेंट का झुनझुना दिया है। धोखा यह कि छँटनी किए गए कर्मचारी के 15 दिन के वेतन के बराबर की राशि केंद्र सरकार के पास जमा होगी, जो बाद में सरकार की ओर से सम्बंधित मज़़दूर को पुनर्कौशल के लिए मिलेगा।व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं श्रम संहिता के लिए बनी नियमावली के नियम 25 के उपनियम 2 के अनुसार, किसी भी श्रमिक के कार्य की अवधि में आराम के समय को शामिल करते हुए काम के घंटे किसी एक दिन में 12 घंटे से अधिक न हो। मज़़दूरी संहिता की नियमावली के नियम 6 में भी यही बात कही गई है। व्यवसायिक सुरक्षा कोड की नियमावली के नियम 35 के अनुसार दो पालियों के बीच 12 घंटे का अंतर होना चाहिए। नियम 56 के अनुसार तो कुछ परिस्थितियों, जिसमें तकनीकी कारणों से सतत रूप से चलने वाले कार्य भी शामिल हैं, मज़दूर 12 घंटे से भी ज्यादा कार्य कर सकता है और उसे 12 घंटे के कार्य के बाद ही ओवरटाइम का भुगतान होगा। इसमें धोखा यह है कि सप्ताह में काम के घण्टे 48 होंगे, लेकिन दैनिक कार्य के घण्टे 12 होंगे, जिसे साप्ताहिक चार दिन काम का बताया जा रहा है। साफ है कि व्यापक मज़दूर आबादी के लिए ऐसा नहीं होने वाला है। 3 महीने में 125 घंटे से ज्यादा ओवरटाइम पर भी काम नहीं कर सकते। यानी ओवरटाइम के लिए भी घंटे बढ़ जाएंगे। कुछ मामलों में 16 घंटे तक भी काम कराने की छूट दी गई है, उसके लिए कथित रूप से अनुमति लेने का प्रावधान जोड़ा गया है। यानी 16 घंटे काम कराने की भी खुली छूट होगी। साफ है कि तमाम शहादतों से मज़दूरों ने आठ घण्टे काम का जो अधिकार हासिल किया था, उसे भी एक झटके में मोदी सरकार ने छीन लिया।
मज़दूरी श्रम संहिता की धारा 6 (4), धारा 16 व धारा 17 – के मुताबिक़, अब पारिश्रमिक – घंटे के हिसाब से, या दिन, साप्ताहिक, पखवारा, या महीने के हिसाब से तय किया जा सकता हैं। जो, काम के लिए मज़दूरी की न्यूनतम दर; या टुकड़े के काम के लिए मज़दूरी की एक न्यूनतम दर; के हिसाब से दिया जाएगा। धारा 13 – सप्ताह 6 दिन का होगा। सरकार की अनुमति से तकनीकी या आपातकालीन स्थिति में काम के घंटे बढ़ाये जा सकते हैं।
संहिता के अनुसार प्रत्येक दिन में काम की अवधि इतनी तय की जाएगी कि वह तय घंटों से आगे न बढ़े, इस तरह की अवधि के भीतर, ऐसी अवधि में ऐसे अंतराल के साथ, उचित सरकार द्वारा अधिसूचित किया जा सकता है।
इस गड़बड़झाला को देखें- आठ घंटे कार्य दिवस की मौजूदा सीमा को गोलमाल रखकर काम के घंटे तय करने के लिए इसे सरकार पर छोड़ दिया। इस प्रकार सामान्य कार्य दिवस में बिना डबल ओवरटाइम दर का भुगतान किए अधिक घंटे काम करने का रास्ता बना दिया। यही नहीं, अब नौकरी घंटों या दिन के हिसाब से भी दी जा सकेगी, महीने के हिसाब से पगार की कोई बाध्यता नहीं रह जाएगी। 
     वेतन संहिता की नियमावली के तहत तमाम भत्ते कुल सैलरी के 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकते हैं। इसकी वजह से मज़दूरों के हाथ में आने वाला वेतन यानी टेक होम सैलरी कम हो जाएगी।
       भविष्य निधि के लिए केवल उन प्रतिष्ठानों को ही मान्य किया गया है, जहां 20 या अधिक कर्मचारी हों, जबकि लाखों सूक्ष्म और लघु उद्यमों को इसके दायरे से बाहर कर दिया गया है।
      वेतन श्रम संहिता में न्यूनतम वेतन तय करने के मानदंडों को ही समाप्त कर दिया गया है। पीस रेट को बढ़ावा देने के साथ आधे या घंटे के आधार पर भी काम कराने व मज़़दूरी देने का क़ानून बना है। काम के घंटे 12 करने और विशेष स्थितियों में 16 घंटे भी काम कराने तक की छूट दे दी गई है।
इंजीनियरिंग, होटल, चूड़ी, बीड़ी व सिगरेट, चीनी, सेल्स एवं मेडिकल रिप्रेंजेटेटिव, खनन कार्य आदि तमाम उद्योगों के श्रमिकों की विशिष्ट स्थितियों के अनुसार उनके लिए पृथक वेज बोर्ड बने हुए है, जिसे नया कोड समाप्त कर देता है। यही नहीं न्यूनतम मज़़दूरी तय करने में श्रमिक संघों को मिलाकर बने समझौता बोर्डों की वर्तमान व्यवस्था को भी खत्म कर दिया गया है। संहिता में आपातकाल की स्थिति में बदलाव करने के दायरे को बढाते हुए अब उसमें वैश्विक व राष्ट्रीय महामारी को भी शामिल कर लिया गया है। अब कोरोना जैसी महामारी की स्थिति में मज़दूरों को भविष्य निधि, बोनस व कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) पर सरकार रोक लगा सकती है।
           नये संहिता के तहत श्रमिकों के लिये ट्रेड यूनियन बनाना या हड़ताल पर जाना मुश्किल बनाया गया है। कई बाधाओं के साथ संगठित क्षेत्र में सिर्फ कर्मचारियों को यूनियन बनाने की मंजूरी होगी और किसी बाहरी व्यक्ति को श्रम संगठन का अधिकारी नहीं बनाया जा सकता। केवल असंगठित क्षेत्र में दो बाहरी प्रतिनिधि ट्रेड यूनियन के सदस्य हो सकते हैं।
यूनियन के अधिकार और सीमित हुए हैं। यूनियनों की मान्यता मालिकों व सरकार पर निर्भर होगी। यहाँ तक कि यूनियन के सामूहिक माँगपत्र पर मालिक एक व्यक्ति से भी समझौता कर सकता है।
           अब हड़ताल लगभग असंभव होगा। 15 दिन की जगह 60 दिन की नोटिस देने की बाध्यता होगी, समझौता वार्ता समाप्त होने के 7 दिन तक हड़ताल करना मान्य नहीं होगा। किसी उद्योग में पचास प्रतिशत या उससे अधिक श्रमिकों द्वारा एक निश्चित दिन पर अवकाश को हड़ताल माना जाएगा।
इतना ही नहीं हड़ताल के लिए मज़दूरों से अपील करना भी गुनाह होगा, जिसके लिए भारी जुर्माना और जेल दोनों होगा। हड़ताल गैरकानूनी होने पर 25 से 50 हजार रुपए तक का जुर्माना या जेल अथवा दोनों हो सकता है। हड़ताल का सहयोग करने वालों पर 50 हजार से दो लाख तक का जुर्माना अथवा जेल या दोनों हो सकता है।
        मालिकों द्वारा स्वतः प्रमाणित दस्तावेज को मान्यता होगी। वेतन व बोनस में घोटाले के बावजूद मालिकों पर किसी आपराधिक वाद (क्रिमिनल केस) का प्रावधन खत्म होगा। केवल सिविल वाद दायत हो सकता है और मालिकों पर मामुली जुर्माना लग सकता है। मालिको के लिए रजिस्टर रखने के नियम में ढील दी गई है। कंपनियां श्रम अधिकारी द्वारा निरीक्षण की जगह इंटरनेट पर स्वतः प्रमाणित करेंगी। कंपनी द्वारा दी गई रिपोर्ट मान्य होगी।
        श्रम विभाग की परिभाषा बदल गई है। लेबर कमिश्नर चीफ फैसीलेटर और सबसे नीचे लेबर इंस्पेक्टर फैसीलेटर होगा। अब श्रम अधिकारी का काम श्रम कानून के उल्लंघन पर सुगमकर्ता (फैसीलेटर) की होगी। यानी अब उन्हें वास्तव में मालिकों के लिए सलाहकार या बिचौलिया बनकर काम करना होगा।
        श्रम अदालत समेत विभिन्न तरह के मध्यस्थता मंच पंगु होंगे, लेकिन औद्योगिक पंचाट बने रहेंगे। मज़दूर की बर्खास्तगी पर कोर्ट में केवल रिकार्ड वाले सबूत ही मान्य होंगे। 
     नियत अवधि का रोजगार, यानी फिक्स टर्म व फोक़़ट के मज़़दूर नीमट्रेनी को कानूनी मान्यता दी गयी है। इसी लिए नये क़ानूनों के लागू होने से पूर्व तमाम कम्पनियाँ पुराने श्रमिकों की तेजी से छँटनी के लिए वीआरएस/वीएसएस जैसी स्कीमें लागू कर रही हैं, ताकि स्थाई श्रमिकों से छुट्टी पाकर 3-4 साल के फिक्स टर्म में भर्ती कर सकें। यह संविदा आधारित नौकरी का फण्डा है‌। इसी तरह ठेका मज़दूरों को हटाकर फोक़ट के मज़दूर- नीम ट्रेनी भर्ती हो रहे हैं।
      व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा संहिता में ठेका मज़दूर को शामिल किया गया है। इस संहिता के अनुसार 49 मज़दूर रखने वाले किसी भी ठेकेदार को श्रम विभाग में अपना पंजीकरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यावसायिक सुरक्षा कोड के नियम 70 के अनुसार यदि ठेकेदार किसी मज़दूर को न्यूनतम मज़दूरी देने में विफल रहता है तो श्रम विभाग के अधिकारी नियम 76 में जमा ठेकेदार के सुरक्षा जमा से मज़दूरी का भुगतान करायेंगे। यह धोखा है, क्योंकि ठेकेदार की जमा सुरक्षा राशि बेहद मामूली है- 50 से 100 मज़दूरों पर 1000 रुपया, 101 से 300 मज़दूरों पर 2000 रुपया और 301 से 500 मज़दूरों पर 3000 रुपया। इस जमा राशि से किस मज़दूर का कितना पैसा मिलेगा, मज़दूर साथी खुद समझ सकते हैं। संहिता और उसकी नियमावली मज़दूरी भुगतान में मुख्य नियोजक की पूर्व में तय जिम्मेदारी से मुक्त कर देती है और स्थायी कार्य में ठेका मज़दूरी के कार्य को प्रतिबंधित करने के प्रावधानों को ही खत्म कर लूट की खुली छूट देती है।           इन संहिताओं में स्कीम मज़दूरों जैसे आशा, आगंनबाडी, भोजन माता, रोजगार सेवक, मनरेगा कर्मचारी, हेल्पलाइन वर्कर आदि को शामिल नहीं किया गया। साथ ही घरेलू सेवा के कार्य करने वाले मज़दूरों को औद्योगिक सम्बंध संहिता से ही बाहर कर दिया गया है। स्कीम वर्कर की अन्य श्रेणी जैसे अमेजन, फिलिप कार्ड, जोमैटो आदि वर्कर, खुदरा व्यापार आदि विभिन्न तरह के रोजगार में लगे श्रमिकों का उल्लेख इन संहिताओं में नहीं है। परिभाषा में लिखा है कि इनके मालिक और श्रमिकों के बीच परम्परागत मज़दूर-मालिक सम्बंध नहीं है।
स्किल डेवलपमेण्ट के लिए रखे जाने वाले मज़दूर- नीम ट्रेनी सारा काम करने के बावजूद कर्मकार की परिभाषा में नहीं आयेंगे। लेकिन फिक्स टर्म श्रमिक, गिग श्रमिक और प्लेटफार्म श्रमिक आदि इस दायरे में आए हैं।
     मंत्रालय द्वारा जून 2021 तक एक वेब पोर्टल शुरू करने की भी बात कही जा रही है, जिसमें जिग व प्लेटफॉर्म वर्कर्स और माइग्रेंट वर्कर्स समेत अनऑर्गेजनाइज्ड सेक्टर के कामगारों का रजिस्ट्रेशन होगा।
       फिक्स्ड टर्म का मतलब स्थाई की जगह एक नियत अवधि के लिए नियुक्ति। प्लेटफार्म श्रमिक वह है जो इंटरनेट ऑनलाइन सेवा प्लेटफार्म पर काम करते हैं। गिग कर्मचारी वह है जो बाजार अर्थव्यवस्था में अंशकालिक स्वरोजगार या अस्थाई संविदा पर काम करते हैं।
        असंगठित क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा, जिनमें प्रवासी मज़दूर भी शामिल हैं, के साथ ही स्व-रोजगार नियोजित श्रमिकों, घर पर काम करने वाले श्रमिकों और अन्य कमजोर समूहों को सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान बेहद कमजोर किया गया है।
       व्यावसायिक सुरक्षा कोड की धारा 61 के अनुपालन के लिए बने नियम 85 के अनुसार प्रवासी मज़दूर को साल में 180 दिन काम करने पर ही मालिक या ठेकेदार द्वारा आवागमन का किराया दिया जायेगा।
      कुल मिलाकर मोदी सरकार द्वारा 'ईज आफ डूयिंग बिजनेस' के लिए लायी गयीं मौजूदा श्रम संहिताएँ मज़दूरों की गुलामी के दस्तावेज हैं। इस नये गुलामी के दौर में मोदी अंधभक्ति कितनी चलेगी, उसपर चर्चा बेकार है। लेकिन यह तय है कि अब जब ना कोई क़ानूनी सुरक्षा रहेगी, ना ही नौकरी की गारण्टी, तो निश्चित ही संघर्ष जमीनी और आर-पार का होगा। मज़दूर साथियों को अब इसी की तैयारी में जुट जाना चाहिए।

विश्व हिन्दू परिषद के गुंडों द्वारा कायरतापूर्ण हमले का विरोध

16 फरवरी को मुजफ्फरपुर में तीनों कृषि कानूनों का विरोध कर रहे अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के साथियों पर विश्व हिन्दू परिषद के गुंडों द्वारा कायरतापूर्ण हमला किया गया, जिसमें कई साथी घायल हुए और सामान का नुक़सान हुआ। इसके खिलाफ में पटना के बुद्धा स्मृति पार्क के पास एक विरोध-प्रदर्शन किया गया। इस विरोध प्रदर्शन में भगत सिंह छात्र युवा संगठन की ओर से मैंने निम्नलिखित बातें कहीं-
मुजफ्फरपुर में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रदर्शन कर रहे साथियों पर विश्व हिन्दू परिषद के गुंडों द्वारा किए गए हमले का भगत सिंह छात्र युवा संगठन घोर निंदा करता है और पुलिस प्रशासन से इसकी न्यायिक जांच कर दोषियों को उचित सजा देने की मांग करता है। भाजपा के द्वारा आए दिन इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। पिछले 28 और 29 जनवरी को भी गाजीपुर और सिंघु बाॅर्डर पर स्थानीय ग्रामीणों के वेश में भाजपा के गुंडों ने किसानों पर हमला किया था। अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाने का उनका यह तरीका बिल्कुल कायराना है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि उनकी इसी बेवकूफी की वजह से किसान आंदोलन और तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है और पुनः हम भी दोगुने उत्साह से आगे बढ़ेंगे। 
  हम जन विरोधी तीनों कृषि कानूनों और चारों लेबर कोड के खिलाफ आंदोलन तेज करेंगे और बिहार की जनता को यह बताएंगे कि वर्तमान केन्द्र की मोदी सरकार और बिहार की नीतीश सरकार भी पूंजीपतियों के पक्ष में काम कर रही हैं। इसीलिए किसान, मजदूर, छात्र, नौजवान सभी को मिलकर इन पूंजीवादी पार्टियों के खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए और इस व्यवस्था को उखाड़कर समाजवाद की स्थापना करना चाहिए। वैज्ञानिक समाजवादी व्यवस्था में ही किसानों और मजदूरों को राहत मिल सकती है और वे एक खुशहाल जीवन जी सकते हैं। अतः हमें मिलकर पूंजीवाद विरोधी समाजवादी व्यवस्था लाने के लिए प्रयास करना चाहिए।

इंकलाब जिंदाबाद!   
   पूंजीवाद-साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!!
वैज्ञानिक समाजवाद जिंदाबाद!!!
दुनिया के मजदूरो, एक हो!!!!

तीन कृषि कानून

इन तीन कृषि कानून के आने के बाद कॉर्पोरेट क्लास को पूरी छूट, आजादी मिल गयी है कि वो जिस प्रदेश के किसान से चाहे कृषि उपज खरीद सकते है, जिस कीमत पर जितना चाहे खरीद कर गोदाम भर सकते है क्योंकि अब जमाखोरी से सम्बंधित कानून में आवश्यक संशोधन कर दिया गया है। फिर खरीदी हुई कृषि उपज को बाजार में पूरे देश मे फैले अपने हजारो बड़े-बड़े रिटेल मॉल के माध्यम से जितनी कीमत चाहे वे हमसे वसूल कर सकते है क्योंकि कीमत एक सीमा के अंदर रखने के लिये कानून में कोई प्रावधान नही रखा गया है।
अप्रैल मई में सरसो का न्यूनतम सरकारी मूल्य था 44 रुपए/ किलो और सरसो के तेल का मूल्य था 80 से  90 रुपए लीटर (खुदरा बाजार में)

अभी तो भंडारण की सीमा थी जिसे जून मे खत्म कर दिया गया और सरसो सेठ जी के गोदाम में पहुंच गई!

आज सरसो का रेट है-लगभग 60 से 65/किलो और सरसो का तेल- 160 रुपए/ लीटर !

अर्थात 166 रुपए किलो जिसपर 200 रुपए से अधिक का मूल्य प्रिंट होकर आना शुरू हो गया है! 

यदि किसान आंदोलन तथा अड़ानी अंबानी विरोध न हो रहा होता तो शायद यह प्रिंट रेट पर ही बिकता!!

अभी सरसो की नई फसल आने में तीन महीने बाकी है.

सचमुच, मोदी सरकार के इस दावे में तनिक भी सच्चाई नही है कि यह कानून किसानों के हित  में लाया गया है और इससे किसानों की आमदनी दुगुनी हो जाएगी।  इस कानून ने कॉर्पोरेट घराने को कृषि उपज पर अधिकतम मुनाफा कमाने की पूरी आजादी प्रदान किया है। इसमें किसानों के लिये कुछ भी नही है, किसानों के नाम पर यह  देशी- विदेशी कॉर्पोरेट के पक्ष में बनाया गया कानून  है।

दुपट्टा से बांधी गई मेरी बच्चियों !


तुम्हारी तकलीफ :
तुम्हारा यह उत्पीड़न 
हमारे लिए
असहनीय !
निशब्द हूँ मैं !
 हम अपनी किस कमजोरी की
 सजा पा रहे हैं !
क्या हम अपनी इस कमजोरी से
 उबर पाएंगे !
सदियों से बांटकर जातियों में
 शोषण और उत्पीड़न को जारी रखने का
 कानून बनाया गया 
कभी मनुस्मृति के रूप में तो 
कभी दुनिया भर के लोकतंत्र के संविधान के रूप में
कभी आधुनिक संविधान लिखने वालों ने भी
 चुनौती नहीं दी 
शोषण उत्पीड़न के उस स्वरूप को 
जिसके पीछे चलता है शासन पूंजी के तंत्र का 
कोई नहीं खड़ा होता है पूंजी के इस तंत्र को
 खुलेआम चुनौती देने के लिए
 और पूंजी का यह तंत्र
 बांटता है हमें कभी धर्म 
कभी क्षेत्र के रूप में 
कभी  राष्ट्र के रूप में 
और सब जगह पूरी दुनिया में 
निर्बाध गति से गतिशील है यह
 लोग पलक पाखरे बिछाए हुए हैं
 इसके आगमन के लिए 
 इसके आलिंगन के लिए
इसे अपने जन जन के रक्त से स्नान कराने के लिए
 यह पवित्र है , दुनिया का सबसे पवित्र वस्तु 
और इसके साथ सामाजिक संबंधों में बंधा
 वह हर वर्ग जिसका रुधिर यह चूसता है
 वह अपवित्र है
सारी दुनिया के लिए तुम भी 
इसी अपवित्र समाज का हिस्सा हो 
मेरी प्यारी बच्चियों !
 और इसीलिए अपने समाज की पवित्रता के लिए 
तुम्हें और हमें जलाना ही होगा
 इस पवित्र वस्तु से जुड़े पूरे
सामाजिक संबंधों को
 हमें जलना ही होगा
 वर्ग संघर्ष की आग में
चल रहे हैं किसान और उनके बच्चे
अपने देश के अंदर और बाहर की सरहदों पर
 हमें जलाना होगा
 स्त्रियों और मेहनतकशों को बांधने वाले
उन तमाम सामाजिक संबंधों को
संस्कृति से लेकर उन दुपट्टो और फंदों को
जिस से बांध दिए जाते हो या लटक जाते हैं
 तुम जैसी बच्चियां , स्त्रियां और कर्ज से दबे किसान
हमें जलना होगा
अपने समय के सबसे ज्वलंत सवालों से !

Thursday, February 18, 2021

किसानों की दुर्दशा


 
हमारी समझ है कि पूंजी को बढ़ानेवाली किसी भी व्यवस्था में छोटी पूंजी के मालिक, (छोटे किसान ) बाजार और बड़ी पूंजी के मालिक के द्वारा लुटे जाने के कारण अपनी संपत्ति गंवाने को अभिसप्त हैं. पूंजी रूपी तमाम साधनों  का सामाजीकरण किए बगैर उत्पादक वर्ग-- किसान और मजदूर का जीवन नहीं बचेगा. निजी संपत्ति संबंधों तथा उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति के एकाधिकार समाप्त कर उसे समाज के अधिकार में लाया जाना ही पूंंजी की मार से बचने का एक मात्र रास्ता है.  ऐसा करने से टुटपुंजिया भी  दिन रात निजी संपत्ति बढ़ाने के कुकर्म से मुक्ति पाएगा.

साथी *Narendra Kumar* के पोस्ट का अंश