Saturday, June 27, 2020


आठ्वा पोस्ट

 (घ)    पैदावार का तीसरा लक्षण
पैदावार का तीसरा लक्षण यह है कि नयी उत्पादक शक्तियों और उनके अनुकूल पैदावार के सम्बन्धों का जन्म पुरानी व्यवस्था से अलगउस व्यवस्था के खत्म हो जाने पर नहीं होता बल्कि पुरानी व्यवस्था के अन्दर ही होता है। यह जन्म मनुष्य की सोच-विचार वाली और सचेत कार्यवाही के फलस्वरूप नहीं होता बल्कि अपने-आपअचेत रूप सेमनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र होता है। उसके मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र और अपने-आप होने के दो कारण हैं।
पहला कारण यह है कि मनुष्य इस बात में स्वतंत्र नहीं हैं कि वे पैदावार का एक तरीक़ा अपनायें या दूसरा। जब कोई भी नयी पीढ़ी जीवन में प्रवेश करती है तो वह ऐसी उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों को पहले से ही मौजूद पाती है जो पहले की पीढ़ियों की मेहनत का फल हैं। इसलियेपैदावार के क्षेत्र में उसे जो कुछ पहले से तैयार चीज मिलती हैउसे मजबूरन उसे पहले स्वीकार करना पड़ता है और अपने को उसके अनुकूल बनाना पड़ता हैजिससे कि वह भौतिक मूल्य पैदा कर सके।
दूसरा कारण यह है कि जब मनुष्य पैदावार का कोई औज़ार सुधारते हैंउत्पादक शक्तियों का कोई तत्व सुधारते हैंतब वे महसूस नहीं करतेसमझते नहीं हैंया सोचने के लिये रुकते नहीं हैं कि इन सुधारों का सामाजिक परिणाम क्या होगा। वे  सिर्फ अपने दैनिक हितों की बात सोचते हैंअपनी मेहनत को हल करने और अपने लिये कोई सीधा और प्रत्यक्ष लाभ हासिल करने की बात सोचते हैं।
जब धीरे-धीरे और टटोलते हुए आदिम साम्यवादी समाज के कुछ सदस्य पत्थर के हथियारों से लोहे के हथियारों के प्रयोग की तरफ बढे़तब अवश्य ही वे न जानते थे और यह सोचने के लिये वे न रुके थे कि इन आविष्कार से कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे। वे यह न जानते थे या न महसूस करते थे कि धातु के औज़ारों की तरफ बढ़ना पैदावार में एक क्रांति करना होगाकि आगे चलकर उससे गुलामी की प्रथा पैदा होगीवे सिर्फ अपनी मेहनत हल्की करना चाहते थे। उनकी सचेत कार्यवाही उनके दैनिक हितों के तंग दायरे में सीमित थी।
जब सामंती व्यवस्था के युग में छोटी पंचायती दूकानों के साथ-साथ यूरोप का तरूण पंूजीपति वर्ग बड़े कारखाने बनाने लगा और इस तरह उसने समाज की उत्पादक शक्तियों को आगे बढ़ायातब अवश्य ही वह यह न जानता था और यह सोचने के लिये वह न रूका था कि इस आविस्कार के कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे। उसने यह न महसूस किया था या न समझा था कि इस ’छोटे से’ आविष्कार का फल यह होगा कि सामाजिक शक्तियां नयी तरह से संगठित होंगी और इससे राजाओं की शक्ति के खिलाफजिनकी कृपा को वह इतना महत्व देता थाक्रांति होगी और उन सरदारों के खिलाफ क्रान्ति होगी जिनकी पांति में बैठने के लिये उसके प्रमुख प्रतिनिधि अक्सर लालायित रहते  थे। वह सिर्फ माल पैदा करने की क़ीमत कम करना चाहता थाएशिया और अभी हाल  में ढूंढे हुए अमरीका के बाज़ारों में माल ज्यादा तादाद में भेजना चाहता था और ज्यादा मुनाफे़ कमाना चाहता था। उसकी सचेत कार्यवाही इस मामूली व्यवहारिक उद्देश्य के तंग दायरे में सीमित थी।
जब रूसी पूंजीपतियों ने विदेशी पूंजीपतियों से मिल कर रूस में जोर-शोर से आधुनिक बडे़ पैमाने के मशीनों वाले उद्योग-धंधे क़ायम किये और ज़ारशाही को बरकरार रहने दिया और किसानों को जमींदारों के कृपा-कटाक्ष पर छोड़ दियातब अवश्य ही वे यह न जानते थे और न यह सोचने के लिये वे रुके थे कि उत्पादक शक्तियों की इस विशाल बढ़ती से कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे। उन्होंने यह महसूस न किया या न समझे थे कि समाज की उत्पादक शक्तियों के क्षेत्र में इस भारी छलांग का फल यह होगा कि सामाजिक शक्तियां फिर से संगठित होंगीजिससे कि सर्वहारा वर्ग किसानों से एका कायम कर सकेगा और विजयी समाजवादी क्रांति कर सकेगा। वे सिर्फ़ उद्योग-धंधों की पैदावार आखिरी हद तक बढ़ाना चाहते थेविशाल घरेलू बाज़ार पर कब्जा करना चाहते थेइज़ारेदार बनना चाहते थे और राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था से जितना भी हो सके मुनाफ़ा खींचना चाहते थे। उनकी सचेत कार्यवाही उनके मामूली और एकदम व्यवहारिक हितों के दायरे के बाहर नहीं गयी।
इसीलिये माक्र्स ने लिखा था:
अपने जीवन की सामाजिक पैदावार में (यानी मनुष्यों के जीवन के लिये आवश्यक भौतिक मूल्यों की पैदावार में - सम्पादक) मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्ध कायम करते हैं जो लाजिमी होते हैं और उनकी इच्छा से स्वतंत्रहोते हैं।
पैदावार के ये सम्बन्ध उत्पादन की अपनी भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल से मेल खाते हैं।” (कार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ , अंÛसंÛ, मास्को 1946, खण्ड 1 पृष्ठ 300)
लेकिनइसका यह मतलब नहीं है कि उत्पादन-सम्बन्धों में तब्दीली और पैदावार के पुराने सम्बन्धों से नये उत्पादन-सम्बन्धों की तरफ़ प्रगति शांतिमय ढंग सेबिना संघर्षों के और बिना हलचल के हो जाती है। इसके विपरीतइस तरह की प्रगति आम तौर से पुराने उत्पादन-सम्बन्धों को क्रांतिकारी ढंग से खत्म करके और पैदावार के नये सम्बन्ध क़ायम करके होती है। एक वक़्त तक उत्पादक शक्तियों का विकास और पैदावार के संबंधों के क्षेत्र में तब्दीली अपने-आप होती हैमनुष्यों की इच्छा से स्वतंत्र होती है। लेकिनऐसा एक वक्त तक ही होता है जब तक कि नयी और विकसित होती हुई उत्पादक शक्तियां बढ़ कर अच्छी तरह पुष्ट नहीं हो जातीं। नयी उत्पादक शक्तियों के पुष्ट हो जाने के बादपैदावार के मौजूदा सम्बन्ध और उनके हिमायती - शासक वर्ग - एक ’भारी’ अड़चन बन जाते हैंजिसे नये वर्गों की सचेत कार्यवाही से ही हटाया जा सकता हैजिसे इन वर्गों की बलपूर्वक कार्यवाही सेक्रांति से ही हटाया जा सकता है।
यहां नये सामाजिक विचारोंनयी राजनीतिक संस्थाओं और नयी राजनीतिक सत्ता की ज़बरदस्त भूमिकाबहुत ही स्पष्ट दिखाई देती है। इनका काम होता है कि पैदावार के पुराने सम्बन्धों को बलपूर्वक खत्म कर दें। नयी उत्पादक शक्तियों और पैदावार के पुराने सम्बन्धों के संघर्ष सेसमाज की नयी आर्थिक मांगों सेनये सामाजिक विचार पैदा होते हैं। नये विचार आम जनता को और संगठित करते हैं। आम जनता एक राजनीतिक सेना में सुगठित हो जाती है। वह एक नयी क्रांतिकारी सत्ता रचती है और उसका इसलिये इस्तेमाल करती है कि उत्पादन-सम्बन्धों की पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक खत्म कर दे और दृढ़ता से नयी व्यवस्था क़ायम करे। विकास के अपने-आप होने वाले सिलसिले की जगह मनुष्यों की सचेत कार्यवाही ले लेती हैशान्तिमय विकास की जगह बलपूर्वक  होने वाली हलचल ले लेती हैविकास की जगह क्रांति ले लेती है।
माक्र्स ने लिखा था:
पूंजीपतियों से संघर्ष करते समयपरिस्थितियों की वजह से सर्वहारा वर्ग को एक वर्ग रूप में अपने को संगठित करना पड़ता है। ...क्रांति के जरिये वह अपने को शासक वर्ग बनाता है और इस तरह पैदावार की पुरानी परिस्थितियों को बलपूर्वक खत्म कर देता है।” (कम्युनिस्ट घोषणापत्रकार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ ,अंÛसंÛ, मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 131)
और भी आगे:
-“सर्वहारा वर्ग अपने राजनीतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल इसलिये करेगा कि क्रमशः पूंजीपतियों से सभी पूंजी छीन ले और राज्य केयानी शासक वर्ग केरूप में संगठित सर्वहारा वर्ग के हाथ में पैदावार के सभी साधन केन्द्रित कर ले और जहां तक हो सके कुल उत्पादक शक्तियों को बढ़ाये।” (उपÛ, पृष्ठ 129)
-“पुरानी समाज-व्यवस्था के गर्भ में जब नयी समाज-व्यवस्था आ जाती हैतब उसके जन्म के लिये धाय के रूप में बल आवश्यक होता है।” (कार्ल माक्र्सपूंजीखण्ड 1, पृष्ठ 776)
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अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अर्थशास्त्र की आलोचना की ऐतिहासिक भूमिका मेंमाक्र्स ने 1859 में ऐतिहासिक भौतिकवाद के सार तत्व का मसौदा दिया था जो एक प्रतिभाशाली दिमाग की उपज है:
अपने जीवन की सामाजिक पैदावार में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्ध कायम करते हैं जो लाजिमी होते हैं और उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। पैदावार के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल से मेल खाते हैं। इन उत्पादन-सम्बन्धों का कुल जोड़ समाज की आर्थिक बनावट है - वह सच्ची बुनियाद जिस पर कानून और राजनीति की सारी इमारत खड़ी होती है और जिसके अनुकूल सामाजिक चेतना के विभिन्न्ा रूप होते हैं। भौतिक जीवन की पैदावार का तरीका आम तौर से सामाजिकराजनीतिक और बौद्धिक जीवन का क्रम निश्चित करता है। मनुष्यों की चेतना उनकी सत्ता को निश्चित नहीं करती बल्कि इसके विपरित उनकी सामाजिक सत्ता उनकी चेतना को निश्चित करती है। विकास की एक मंजिल तक पहुंच करसमाज की भौतिक उत्पादक शक्तियां उस समय के उत्पादन-सम्बन्धों से टकराती हैंया - उसी चीज को क़ानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है - वे अब तक सम्पत्ति के जिन सम्बन्धों में काम करती आती थींउनसे टकराती हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के रूप न रह करये सम्बन्ध उनके लिये बेड़ियां बन जाते हैं। तब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है। आर्थिक बुनियाद बदलने के साथऊपर की समूची भारी इमारत  भी बहुत कुछ जल्द ही बदल जाती है। इस तरह की तब्दीलियों पर विचार करते हुएएक भेद ध्यान में रखना चाहिये। एक तो पैदावार की आर्थिक परिस्थितियांेकीजो प्रकृति-विज्ञान के नपे तुले तरीके से निश्चित की जा सकती हैंभौतिक तब्दीली होती है। दूसरी कानूनीराजनीतिकधार्मिकसौंदर्य सम्बन्धी या दार्शनिक तब्दीली - संक्षेप मेंविचारधारा के रूप बदलते हैंजिन रूपों में मनुष्य इस संघर्ष के प्रति सचेत होते हैं और निपटारे के लिये लड़ते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी धारणा इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता हैउसी तरह तब्दीली के दौर के बारे में खुद उसकी चेतना के आधार पर हम राय क़ायम नहीं कर सकते। इसके विपरीतभौतिक जीवन की असंगतियों के आधार परसमाज की उत्पादक शक्तियों और पैदावार के सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार परइस चेतना की व्याख्या करनी चाहिये। कोई भी समाज-व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती जब तक कि उसके अन्दर गूंजाइश रहते हुए तमाम उत्पादक शक्तियां विकसित नहीं हो जातीं। पैदावार के नये और उच्चतर सम्बन्ध तब तक कभी सामने नहीं आते जब तक कि उनके जीवन की भौतिक परिस्थितियां पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट न हो चुकी हों। इसलियेमनुष्य जाति अपने सामने हमेशा ऐसे ही काम रखती है जिन्हें वह कर सकती है। कारण यह कि इस विषय को नज़दीक से देखने पर हमेशा हम यही पायेंगे कि काम हमेशा तभी सामने आता है जब उसे पूरा करने के लिये ज़रूरी भौतिक परिस्थितियां पहले ही मौजूद होंया कम से कम निर्माण की हालत में हों।” (कार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ, अंÛसंÛ, मास्को, 1946, खण्ड ! पृष्ठ 300-01)
सामाजिक जीवनसमाज के इतिहास पर लागू किया जाने वाला माक्र्सीय  भौतिकवाद इस तरह का है।
द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के मुख्य लक्षण इस तरह के हैं। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि लेनिन ने पार्टी के लिये कौन सी सैद्धांतिक निधि की रक्षा की थी और संशोधनवादियों और गद्दारों के हमलों से उसे बचाया था और हमारी पार्टी के विकास के लिये लेनिन की पुस्तक भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना का प्रकाशन कितना महत्वपूर्ण था।
समाप्त
सातवा पोस्ट

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