Friday, June 26, 2020



चौथा पोस्ट
(2मार्क्सीय दार्शनिक भौतिकवाद के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं:
(क) भाववाद के अनुसारसंसार एक ’निरपेक्ष विचार’, एक ’सर्व-व्यापी आत्मा’,  ’चेतना’ का मूर्त स्वरूप है। इसके खिलाफमाक्र्स के दार्शनिक भौतिकवाद का कहना है कि संसार अपने स्वभाव से ही भौतिक हैसंसार के नाना घटना प्रवाह गतिशील भूत (पदार्थ) के विभिन्न्ा रूप हैं। द्वंद्ववादी पद्धति ने घटना प्रवाहों का जो परस्पर सम्बन्ध और निर्भरता क़ायम की हैवह गतिशील भूत के विकास का नियम है। संसार भूत की गति के नियमों के अनुसार विकसित होता है और उसे ’विश्वव्यापी आत्मा’ की कोई जरूरत नहीं है।
एंगेल्स ने लिखा है:
प्रकृति के बारे में भौतिकवादी दर्शन का इसके सिवा कोई मतलब नहीं है कि प्रकृति जैसी हैबिना किसी बाहरी मिलावट केवैसी ही समझी जाये।”  (एंगेल्सलुडविग फ़ायरबाख ़अंÛ संÛ, मास्को, 1934, पृष्ठ 79)
प्राचीन दार्शनिक हिरैक्लाइटस का मत था कि “संसार कोअनेक की एकता कोकिसी देवता या मनुष्य ने न रचा था बल्कि वह एक सजीव ज्योति थीहै और हमेशा रहेगीजो नियमित रूप से जल उठती है और नियमित रूप से ही ठण्डी पड़ जाती है।” इस मत की चर्चा करते हुएलेनिन ने टिप्पणी लिखी थी: “द्वंद्वात्मक भौतिकवाद  के मूल तत्वों की यह बहुत अच्छी व्याख्या है।” (लेनिनदर्शन सम्बन्धी नोट बुकरूसी  संस्करणपृष्ठ 318)
 (ख) भाववाद का दावा है कि वास्तव में केवल हमारी चेतना की ही सत्ता हैभौतिक संसारसत्ताप्रकृतिकेवल हमारी चेतना मेंहमारे संवेदनों मेंविचारों और गोचरता में रहती है। इसके खिलाफ़माक्र्सीय भौतिकवादी दर्शन का कहना है कि भूतप्रकृतिसत्ता एक वस्तुगत सच्चाई है। उसका अस्तित्व हमारी चेतना से बाहर और स्वतंत्र होता है। मूल वस्तु भूत है क्योंकि वही संवेदनोंविचारों और चेतना का स्त्रोत है। चेतना गौण हैउसी से उत्पन्न् है क्योंकि वह भूत का प्रतिबिंब हैसत्ता का प्रतिबिम्ब है। विचार भूत की ही उपज हैऐसा भूत जो अपने विकास में पूर्णता के ऊंचे स्तर तकयानी दिमाग तकपहंुच गया है। दिमाग़ चिंतन करने की इंद्रिय है। इसलिये चिंतन को भूत से अलग करना भारी ग़लती करना है। एंगेल्स ने लिखा था:
चिंतन से सत्ता के सम्बन्ध का सवालप्रकृति से आत्मा के सम्बन्ध का सवालतमाम दर्शन का मुख्य सवाल है। ... इस सवाल का दार्शनिकों ने जो जवाब दियाउससे वे दो बडे़ दलों में बंट गये। जो कहते थे कि प्रकृति के मुकाबिले में आत्मा मूल है... वे भाववाद के दल में शामिल हुए। दूसरे लोग जो कहते थे कि प्रकृति मूल हैवे भौतिकवाद के विभिन्न्ा स्कूलों में शामिल हैं।” (कार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ , अंÛसंÛ, मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 366-67)
और आगे:
वह संसार जो भौतिक हैइन्द्रियों से जाना जाता हैजिसमें हम स्वयं हैंएकमात्र सच्चाई है। हमारी चेतना और चिंतनवे इन्द्रियों से जितने चाहे परे अतीन्द्रिय मालूम पडेंवे एक भौतिकशारीरिक इन्द्रिय - दिमाग - की उपज है। भूत चेतना की उपज नहीं हैबल्कि चेतना ही खुद भूत की सबसे उंची उपज है।” (कार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ , रूÛसंÛ, खण्ड 1 पृष्ठ 332)
भूत और चिंतन के सवाल परमाक्र्स ने लिखा है:
चिन्तनशील भूत से चिंतन को अलग करना असंभव है। तमाम परिवर्तनों की विषय-वस्तु भूत ही है।”  (उपÛ, पृष्ठ 335)
माक्र्सीय दार्शनिक भौतिकवाद का वर्णन करते हुएलेनिन ने लिखा है: “आम तौर से भौतिकवाद वस्तुगत रूप से वास्तविक सत्ता (भूत) को चेतनासंवेदना और अनुभव से स्वतंत्र मानता है। ... चेतना सत्ता का ही प्रतिबिम्ब हैअधिक से अधिक वह सत्ता का लगभग सच्चा (पर्याप्तबिल्कुल वैसा ही) प्रतिबिम्ब है।” (लेनिनभौतिकवाद और अनुभव सिद्ध आलोचना , अंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ 337-38)
और आगे:
-“भूत वह है जो हमारी इन्द्रियों पर आघात करके संवेदना पैदा करता है। भूत वह वस्तुगत सच्चाई है जो हमें संवेदना से मिलती है... भूतप्रकृतिसत्ता,  भौतिक जगत - मूल हैऔर आत्माचेतनासंवेदनमानसिक जगत गौण है।” (उपÛ, पृष्ठ 145-146)
-“संसार का दृष्य इस बात का दृश्य है कि भूत में गति कैसे होती है और  ’भूत चिंतन’ कैसे करता है।” (उपÛ 367)
-“दिमाग चिंतन की इन्द्रिय है।” (उपÛ 152)
(ग) भाववाद इस बात को अस्वीकार करता है कि हम संसार और उसके नियमों को जान सकते हैं। उसे हमारे ज्ञान की प्रामाणिकता पर विश्वास नहीं है। वह वस्तुगत सच्चाई को स्वीकार नहीं करताउसका कहना है कि संसार ’अज्ञेय वस्तुओं’ से भरा हुआ हैजिन्हें विज्ञान कभी नहीं जान सकता। भाववाद के खिलाफ़माक्र्सीय भौतिकवाद का कहना है कि संसार और उसके नियम पूरी तरह से जाने जा सकते हैं। प्रकृति के नियमों का हमारा ज्ञानजिसे हम प्रयोग और अभ्यास से परखते हैंसच्चा ज्ञान है। उसकी प्रामाणिकता वस्तुगत सच्चाई की सी है। संसार में ऐसी वस्तुएं नहीं हैं जो जानी न जा सकें। संसार में केवल ऐसी वस्तुएं हैं जो अभी तक जानी नहीं गयींलेकिन जो विज्ञान और अमल के प्रयत्नों से प्रकट की जायेंगी और जानी जायेंगी।
ऐंगेल्स ने काण्ट और दूसरे भाववादियों की इस धारणा की आलोचना की थी कि संसार अज्ञेय है और उसमें ऐसी ’अज्ञेय वस्तुएं’ हैं जो जानी नहीं जा सकतीं। एंगेल्स ने इस प्रसिद्ध भौतिकवादी धारणा का समर्थन किया था कि हमारा ज्ञान प्रामाणिक ज्ञान है। इस सिलसिले मेंउन्होंने लिखा था:
इस धारणा और इसी तरह की दूसरी दार्शनिक उड़ानों का सबसे ज़ोरदार खण्डन व्यवहार हैयानी प्रयोग और उद्योग है। किसी प्राकृतिक क्रम की अपनी समझ को अगर हम खुद उस क्रम को रच कर सही साबित कर देंउसकी  परिस्थितियों से उसे निकाल कर उसे जन्म दे दें और घाते में उससे अपना काम भी निकाल लेंतो उससे काण्ट की न समझ में आने वाली, ’अज्ञेय वस्तु’ का खात्मा हो जाता है। पौधों और पशुओं की देह में पैदा होने वाले रासायनिक  पदार्थ ऐसी ही ’अज्ञेय वस्तुएं’ रहीं जब तक कि जैविक रसायन शास्त्र (आॅरगैनिक कैमिस्ट्री) ने उन्हें एक के बाद एक बनाना शुरू नहीं कर दिया। उसके बादवे ’अज्ञेय वस्तुएं’ हमारे लिये वस्तुएं बन गयींमिसाल के लियेमज़ीठ का रंग देने वाला पदार्थ ’अलीज़रीन’ होता है। उसे हम खेत में मज़ीठ की जड़ों में नहीं उगाते। अब उसे हम ज्यादा सस्ते और सीधे ढंग से बना लेते हैं। तीन सौ साल तक कोपरनिकस का सौर मण्डल एक कल्पना रहा। उसके पक्ष में सौहज़ारया दस हज़ार बातें हो सकती थीं और विपक्ष में एक हीफिर भी वह कल्पना ही रहा। लेकिनजब लवेरियर ने सौर मण्डल से प्राप्त सामग्री के ज़रिये एक अज्ञात नक्षत्र के होने की ज़रूरत ही न निकाल ली बल्कि उस जगह का भी हिसाब लगा लिया जहां आकाश में इस नक्षत्र को ज़रूर ही होना था और जब गाले ने सचमुच वह नक्षत्र ढूंढ निकाला तब कोपरनिकस का सौर मण्डल सिद्ध हो गया।” (कार्ल मार्क्ससंÛग्रंÛ , अंÛसंÛ, मास्को, 1946, खंÛ 1 पृÛ 368)
लेनिन ने बुग्दानोवबजारोवयूश्केविच और माख के दूसरे अनुयायियों पर श्रद्धावादी होने का आरोप लगाया था। उन्होंने इसप्रसिद्ध भौतिकवादी स्थापना का  समर्थन किया कि प्रकृति के नियमों का हमारा विज्ञान सम्मत ज्ञान प्रामाणिक ज्ञान है और विज्ञान के नियम वस्तुगत सत्य जाहिर करते हैं। इस सिलसिले मेंलेनिन ने लिखा था:
आजकल का श्रद्धावाद विज्ञान को तो नहीं ठुकराता। वह सि़र्फ ’बढ़े-चढ़े दावों’ को ठुकराता हैयानी यह दावा कि विज्ञान वस्तुगत सच्चाई दे सकता है। अगर वस्तुगत सच्चाई है (जैसा कि भौतिकवादी  मझते हैं)अगर मनुष्य  के ’अनुभव’ मेंबाहरी संसार को प्रतिबिम्बित करते हुएप्रकृति-विज्ञान ही हमें वस्तुगत सचाई दे सकता हैतो सभी श्रद्धावाद का पूरी तरह खण्डन हो जाता है।” (लेनिनभौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचनाअंÛसंÛ, मास्को, 1947, पृष्ठ  123-24)


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