Saturday, June 27, 2020


आठ्वा पोस्ट

 (घ)    पैदावार का तीसरा लक्षण
पैदावार का तीसरा लक्षण यह है कि नयी उत्पादक शक्तियों और उनके अनुकूल पैदावार के सम्बन्धों का जन्म पुरानी व्यवस्था से अलगउस व्यवस्था के खत्म हो जाने पर नहीं होता बल्कि पुरानी व्यवस्था के अन्दर ही होता है। यह जन्म मनुष्य की सोच-विचार वाली और सचेत कार्यवाही के फलस्वरूप नहीं होता बल्कि अपने-आपअचेत रूप सेमनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र होता है। उसके मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र और अपने-आप होने के दो कारण हैं।
पहला कारण यह है कि मनुष्य इस बात में स्वतंत्र नहीं हैं कि वे पैदावार का एक तरीक़ा अपनायें या दूसरा। जब कोई भी नयी पीढ़ी जीवन में प्रवेश करती है तो वह ऐसी उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों को पहले से ही मौजूद पाती है जो पहले की पीढ़ियों की मेहनत का फल हैं। इसलियेपैदावार के क्षेत्र में उसे जो कुछ पहले से तैयार चीज मिलती हैउसे मजबूरन उसे पहले स्वीकार करना पड़ता है और अपने को उसके अनुकूल बनाना पड़ता हैजिससे कि वह भौतिक मूल्य पैदा कर सके।
दूसरा कारण यह है कि जब मनुष्य पैदावार का कोई औज़ार सुधारते हैंउत्पादक शक्तियों का कोई तत्व सुधारते हैंतब वे महसूस नहीं करतेसमझते नहीं हैंया सोचने के लिये रुकते नहीं हैं कि इन सुधारों का सामाजिक परिणाम क्या होगा। वे  सिर्फ अपने दैनिक हितों की बात सोचते हैंअपनी मेहनत को हल करने और अपने लिये कोई सीधा और प्रत्यक्ष लाभ हासिल करने की बात सोचते हैं।
जब धीरे-धीरे और टटोलते हुए आदिम साम्यवादी समाज के कुछ सदस्य पत्थर के हथियारों से लोहे के हथियारों के प्रयोग की तरफ बढे़तब अवश्य ही वे न जानते थे और यह सोचने के लिये वे न रुके थे कि इन आविष्कार से कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे। वे यह न जानते थे या न महसूस करते थे कि धातु के औज़ारों की तरफ बढ़ना पैदावार में एक क्रांति करना होगाकि आगे चलकर उससे गुलामी की प्रथा पैदा होगीवे सिर्फ अपनी मेहनत हल्की करना चाहते थे। उनकी सचेत कार्यवाही उनके दैनिक हितों के तंग दायरे में सीमित थी।
जब सामंती व्यवस्था के युग में छोटी पंचायती दूकानों के साथ-साथ यूरोप का तरूण पंूजीपति वर्ग बड़े कारखाने बनाने लगा और इस तरह उसने समाज की उत्पादक शक्तियों को आगे बढ़ायातब अवश्य ही वह यह न जानता था और यह सोचने के लिये वह न रूका था कि इस आविस्कार के कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे। उसने यह न महसूस किया था या न समझा था कि इस ’छोटे से’ आविष्कार का फल यह होगा कि सामाजिक शक्तियां नयी तरह से संगठित होंगी और इससे राजाओं की शक्ति के खिलाफजिनकी कृपा को वह इतना महत्व देता थाक्रांति होगी और उन सरदारों के खिलाफ क्रान्ति होगी जिनकी पांति में बैठने के लिये उसके प्रमुख प्रतिनिधि अक्सर लालायित रहते  थे। वह सिर्फ माल पैदा करने की क़ीमत कम करना चाहता थाएशिया और अभी हाल  में ढूंढे हुए अमरीका के बाज़ारों में माल ज्यादा तादाद में भेजना चाहता था और ज्यादा मुनाफे़ कमाना चाहता था। उसकी सचेत कार्यवाही इस मामूली व्यवहारिक उद्देश्य के तंग दायरे में सीमित थी।
जब रूसी पूंजीपतियों ने विदेशी पूंजीपतियों से मिल कर रूस में जोर-शोर से आधुनिक बडे़ पैमाने के मशीनों वाले उद्योग-धंधे क़ायम किये और ज़ारशाही को बरकरार रहने दिया और किसानों को जमींदारों के कृपा-कटाक्ष पर छोड़ दियातब अवश्य ही वे यह न जानते थे और न यह सोचने के लिये वे रुके थे कि उत्पादक शक्तियों की इस विशाल बढ़ती से कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे। उन्होंने यह महसूस न किया या न समझे थे कि समाज की उत्पादक शक्तियों के क्षेत्र में इस भारी छलांग का फल यह होगा कि सामाजिक शक्तियां फिर से संगठित होंगीजिससे कि सर्वहारा वर्ग किसानों से एका कायम कर सकेगा और विजयी समाजवादी क्रांति कर सकेगा। वे सिर्फ़ उद्योग-धंधों की पैदावार आखिरी हद तक बढ़ाना चाहते थेविशाल घरेलू बाज़ार पर कब्जा करना चाहते थेइज़ारेदार बनना चाहते थे और राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था से जितना भी हो सके मुनाफ़ा खींचना चाहते थे। उनकी सचेत कार्यवाही उनके मामूली और एकदम व्यवहारिक हितों के दायरे के बाहर नहीं गयी।
इसीलिये माक्र्स ने लिखा था:
अपने जीवन की सामाजिक पैदावार में (यानी मनुष्यों के जीवन के लिये आवश्यक भौतिक मूल्यों की पैदावार में - सम्पादक) मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्ध कायम करते हैं जो लाजिमी होते हैं और उनकी इच्छा से स्वतंत्रहोते हैं।
पैदावार के ये सम्बन्ध उत्पादन की अपनी भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल से मेल खाते हैं।” (कार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ , अंÛसंÛ, मास्को 1946, खण्ड 1 पृष्ठ 300)
लेकिनइसका यह मतलब नहीं है कि उत्पादन-सम्बन्धों में तब्दीली और पैदावार के पुराने सम्बन्धों से नये उत्पादन-सम्बन्धों की तरफ़ प्रगति शांतिमय ढंग सेबिना संघर्षों के और बिना हलचल के हो जाती है। इसके विपरीतइस तरह की प्रगति आम तौर से पुराने उत्पादन-सम्बन्धों को क्रांतिकारी ढंग से खत्म करके और पैदावार के नये सम्बन्ध क़ायम करके होती है। एक वक़्त तक उत्पादक शक्तियों का विकास और पैदावार के संबंधों के क्षेत्र में तब्दीली अपने-आप होती हैमनुष्यों की इच्छा से स्वतंत्र होती है। लेकिनऐसा एक वक्त तक ही होता है जब तक कि नयी और विकसित होती हुई उत्पादक शक्तियां बढ़ कर अच्छी तरह पुष्ट नहीं हो जातीं। नयी उत्पादक शक्तियों के पुष्ट हो जाने के बादपैदावार के मौजूदा सम्बन्ध और उनके हिमायती - शासक वर्ग - एक ’भारी’ अड़चन बन जाते हैंजिसे नये वर्गों की सचेत कार्यवाही से ही हटाया जा सकता हैजिसे इन वर्गों की बलपूर्वक कार्यवाही सेक्रांति से ही हटाया जा सकता है।
यहां नये सामाजिक विचारोंनयी राजनीतिक संस्थाओं और नयी राजनीतिक सत्ता की ज़बरदस्त भूमिकाबहुत ही स्पष्ट दिखाई देती है। इनका काम होता है कि पैदावार के पुराने सम्बन्धों को बलपूर्वक खत्म कर दें। नयी उत्पादक शक्तियों और पैदावार के पुराने सम्बन्धों के संघर्ष सेसमाज की नयी आर्थिक मांगों सेनये सामाजिक विचार पैदा होते हैं। नये विचार आम जनता को और संगठित करते हैं। आम जनता एक राजनीतिक सेना में सुगठित हो जाती है। वह एक नयी क्रांतिकारी सत्ता रचती है और उसका इसलिये इस्तेमाल करती है कि उत्पादन-सम्बन्धों की पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक खत्म कर दे और दृढ़ता से नयी व्यवस्था क़ायम करे। विकास के अपने-आप होने वाले सिलसिले की जगह मनुष्यों की सचेत कार्यवाही ले लेती हैशान्तिमय विकास की जगह बलपूर्वक  होने वाली हलचल ले लेती हैविकास की जगह क्रांति ले लेती है।
माक्र्स ने लिखा था:
पूंजीपतियों से संघर्ष करते समयपरिस्थितियों की वजह से सर्वहारा वर्ग को एक वर्ग रूप में अपने को संगठित करना पड़ता है। ...क्रांति के जरिये वह अपने को शासक वर्ग बनाता है और इस तरह पैदावार की पुरानी परिस्थितियों को बलपूर्वक खत्म कर देता है।” (कम्युनिस्ट घोषणापत्रकार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ ,अंÛसंÛ, मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 131)
और भी आगे:
-“सर्वहारा वर्ग अपने राजनीतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल इसलिये करेगा कि क्रमशः पूंजीपतियों से सभी पूंजी छीन ले और राज्य केयानी शासक वर्ग केरूप में संगठित सर्वहारा वर्ग के हाथ में पैदावार के सभी साधन केन्द्रित कर ले और जहां तक हो सके कुल उत्पादक शक्तियों को बढ़ाये।” (उपÛ, पृष्ठ 129)
-“पुरानी समाज-व्यवस्था के गर्भ में जब नयी समाज-व्यवस्था आ जाती हैतब उसके जन्म के लिये धाय के रूप में बल आवश्यक होता है।” (कार्ल माक्र्सपूंजीखण्ड 1, पृष्ठ 776)
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अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अर्थशास्त्र की आलोचना की ऐतिहासिक भूमिका मेंमाक्र्स ने 1859 में ऐतिहासिक भौतिकवाद के सार तत्व का मसौदा दिया था जो एक प्रतिभाशाली दिमाग की उपज है:
अपने जीवन की सामाजिक पैदावार में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्ध कायम करते हैं जो लाजिमी होते हैं और उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। पैदावार के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल से मेल खाते हैं। इन उत्पादन-सम्बन्धों का कुल जोड़ समाज की आर्थिक बनावट है - वह सच्ची बुनियाद जिस पर कानून और राजनीति की सारी इमारत खड़ी होती है और जिसके अनुकूल सामाजिक चेतना के विभिन्न्ा रूप होते हैं। भौतिक जीवन की पैदावार का तरीका आम तौर से सामाजिकराजनीतिक और बौद्धिक जीवन का क्रम निश्चित करता है। मनुष्यों की चेतना उनकी सत्ता को निश्चित नहीं करती बल्कि इसके विपरित उनकी सामाजिक सत्ता उनकी चेतना को निश्चित करती है। विकास की एक मंजिल तक पहुंच करसमाज की भौतिक उत्पादक शक्तियां उस समय के उत्पादन-सम्बन्धों से टकराती हैंया - उसी चीज को क़ानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है - वे अब तक सम्पत्ति के जिन सम्बन्धों में काम करती आती थींउनसे टकराती हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के रूप न रह करये सम्बन्ध उनके लिये बेड़ियां बन जाते हैं। तब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है। आर्थिक बुनियाद बदलने के साथऊपर की समूची भारी इमारत  भी बहुत कुछ जल्द ही बदल जाती है। इस तरह की तब्दीलियों पर विचार करते हुएएक भेद ध्यान में रखना चाहिये। एक तो पैदावार की आर्थिक परिस्थितियांेकीजो प्रकृति-विज्ञान के नपे तुले तरीके से निश्चित की जा सकती हैंभौतिक तब्दीली होती है। दूसरी कानूनीराजनीतिकधार्मिकसौंदर्य सम्बन्धी या दार्शनिक तब्दीली - संक्षेप मेंविचारधारा के रूप बदलते हैंजिन रूपों में मनुष्य इस संघर्ष के प्रति सचेत होते हैं और निपटारे के लिये लड़ते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी धारणा इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता हैउसी तरह तब्दीली के दौर के बारे में खुद उसकी चेतना के आधार पर हम राय क़ायम नहीं कर सकते। इसके विपरीतभौतिक जीवन की असंगतियों के आधार परसमाज की उत्पादक शक्तियों और पैदावार के सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार परइस चेतना की व्याख्या करनी चाहिये। कोई भी समाज-व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती जब तक कि उसके अन्दर गूंजाइश रहते हुए तमाम उत्पादक शक्तियां विकसित नहीं हो जातीं। पैदावार के नये और उच्चतर सम्बन्ध तब तक कभी सामने नहीं आते जब तक कि उनके जीवन की भौतिक परिस्थितियां पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट न हो चुकी हों। इसलियेमनुष्य जाति अपने सामने हमेशा ऐसे ही काम रखती है जिन्हें वह कर सकती है। कारण यह कि इस विषय को नज़दीक से देखने पर हमेशा हम यही पायेंगे कि काम हमेशा तभी सामने आता है जब उसे पूरा करने के लिये ज़रूरी भौतिक परिस्थितियां पहले ही मौजूद होंया कम से कम निर्माण की हालत में हों।” (कार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ, अंÛसंÛ, मास्को, 1946, खण्ड ! पृष्ठ 300-01)
सामाजिक जीवनसमाज के इतिहास पर लागू किया जाने वाला माक्र्सीय  भौतिकवाद इस तरह का है।
द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के मुख्य लक्षण इस तरह के हैं। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि लेनिन ने पार्टी के लिये कौन सी सैद्धांतिक निधि की रक्षा की थी और संशोधनवादियों और गद्दारों के हमलों से उसे बचाया था और हमारी पार्टी के विकास के लिये लेनिन की पुस्तक भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना का प्रकाशन कितना महत्वपूर्ण था।
समाप्त
सातवा पोस्ट

Friday, June 26, 2020

सातवा पोस्ट


सातवा पोस्ट
उत्पादन(पैदावार) की पहली विशेषता
पैदावार का पहला लक्षण यह है कि वह ज्यादा समय के लिये किसी एक जगह स्थिर नहीं रहती। वह हमेशा परिवर्तन और विकास की दशा में रहती है। इसके सिवापैदावार के तरीके़ में तब्दीली होने से लाज़िमी तौर पर समूची समाज-व्यवस्था मेंसामाजिक विचारोंराजनीतिक मतों और राजनीतिक संस्थाओं में तब्दीली होती हैसमूची सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की फिर से रचना होती है। विकास की विभिन्न्ा मंजिलों में लोग पैदावार के विभिन्न्ा तरीके़ इस्तेमाल करते हैंया मोटे रूप में कहेंविभिन्न्ा तरह की जिन्दगी बसर करते हैं। आदिम कम्यून मेंपैदावार का एक तरीक़ा होता हैगुलामी की प्रथा में पैदावार का दूसरा तरीक़ा होता हैसामन्तशाही में पैदावार का तीसरा तरीक़ा होता हैइत्यादि। औरइसी के अनुकूल मनुष्यों की समाज-व्यवस्थामनुष्यों का मानसिक जीवन उनके मत और राजनीतिक संस्थायें भी बदलती हैं।
किसी समाज के पैदावार का तरीक़ा जैसा होता हैमुख्य रूप से वैसा ही वह समाज होता हैवैसे ही उसके विचार और सिद्धांतउसके राजनीतिक मत और संस्थायें होती हैं।
यामोटे रूप में कहें - इंसान की जैसी जिन्दगी होती हैवैसे ही उसके विचार होते हैं।
इसका अर्थ यह है कि सामाजिक विकास का इतिहास सबसे पहले पैदावार के विकास का इतिहास हैपैदावार के उन तरीक़ों का इतिहास है जो शताब्दियों के दौरान में एक के बाद एक आते हैंउत्पादक शक्तियों और मनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्धों के विकास का इतिहास है।
इसलियेसामाजिक विकास का इतिहास साथ ही खुद भौतिक मूल्य पैदा करने वालों का भी इतिहास हैउस श्रमिक जनता का इतिहास है जो उत्पादन-क्रम की मुख्य शक्ति है और जो समाज की जिन्दगी के लिये आवश्यक भौतिक मूल्यों की पैदावार जारी रखती है।
इसलियेअगर इतिहास के विज्ञान को सचमुच विज्ञान बनना है तो वह सामाजिक विकास के इतिहास को घटाकर राजाओं और सेनापतियों की कार्यवाही, ’विजेताओं’ और दूसरे राज्यों को ’पराधीन करने वालों’ का इतिहास नहीं बनाया जा सकता।
इतिहास-विज्ञान को सबसे पहले भौतिक मूल्य पैदा करने वालों के इतिहासश्रमिक जनता के इतिहासजन-साधारण के इतिहास की तरफ़ ध्यान देना होगा।
इसलियेसमाज के इतिहास के नियमों का अध्ययन करने के लिये इंसान के दिमागों मेंसमाज के मतों और विचारों में सूत्र न खोजना चाहिये बल्कि पैदावार के तरीके में ढूंढना चाहियेजो किसी विशेष ऐतिहासिक युग में समाज के अन्दर चालू हों। वह सूत्र समाज के आर्थिक जीवन में ढूंढना चाहिये।
इयलियेइतिहास-विज्ञान का मुख्य काम यह है कि पैदावार के नियमोंउत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों के विकास के नियमोंसमाज के आर्थिक विकास के नियमों का अध्ययन करे और उन्हें जाहिर करे।
इसलियेसर्वहारा वर्ग की पार्टी को अगर सच्ची पार्टी बनना है तो उसे सबसे पहले पैदावार के विकास के नियमों कासमाज के आर्थिक विकास के नियमों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लियेयह जरूरी है कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी अपने प्रोग्राम का मसौदा बनाने में और अमली कार्यवाही में भी सबसे पहले पैदावार के विकास के नियमों के आधार परसमाज के आर्थिक विकास के नियमों के आधार पर आगे बढे़।
 (ग) पैदावार का दूसरा लक्षण
पैदावार का दूसरा लक्षण यह है कि उसकी तब्दीली और विकास हमेशा उत्पादक शक्तियों की तब्दीली और विकास से शुरू होता है औरसबसे पहलेपैदावार  के साधनों में तब्दीली और विकास से शुरू होता है। इसलियेउत्पादक शक्तियां पैदावार का सबसे गतिशील और क्रांतिकारी तत्व हैं। पहले समाज की उत्पादक शक्तियां बदलतीं और विकसित होती हैं और उसके बादइन्हीं तब्दीलियांे पर निर्भर और इन्हीं के अनुकूलमनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्धउनके आर्थिक सम्बन्ध बदलते हैं। लेकिनइसका यह मतलब नहीं है कि उत्पादन-सम्बन्धों का असर उत्पादक शक्तियों के विकास पर नहीं पड़ता और ये उत्पादक शक्तियां उत्पादन-सम्बंधों पर निर्भर नहीं हैं। उत्पादन-सम्बन्धों का विकास उत्पादक शक्तियों के विकास पर निर्भर जरूर हैलेकिन वे खुद अपनी बार उत्पादक शक्तियों के विकास पर असर डालते हैंउनकी गति को तेज़ करते हैं या रोकते हैं। इस सिलसिले मेंइस बात पर ध्यान देना चाहिये कि पैदावार के सम्बन्ध बहुत दिनों तक उत्पादक शक्तियों की बढ़ती से पीछे और उनसे विरोध की दशा में नहीं रह सकते। कारण यह कि उत्पादक शक्तियां पूरी तरह से तभी बढ़ सकती हैं जब उत्पादन के सम्बन्ध उनके रूप सेउनकी दशा से मेल खाते हों और उन्हें पूरी तरह विकसित होने का मौका देते हों। इसलियेपैदावार के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के विकास के चाहे जितने पीछे रहेंउन्हें आगे-पीछे उत्पादक शक्यिों के विकास की सतह के अनुकूलउत्पादक शक्तियों के रूप के अनुकूल बनना ही पडे़गा - और दरअसल वे उसके अनुकूल बन जाते हैं। ऐसा न हो तो पैदावार की व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों और पैदावार के सम्बन्धों की एकता बुनियादी तौर से टूट जायेसमूची पैदावार में तोड़-फोड़ हो जायेपैदावार में संकट आ जायेउत्पादक शक्तियों का नाश हो जाये।
इस बात की मिसालजबकि पैदावार के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के रूप के अनुकूल नहीं होतेउनसे टक्कर लेते हैंपूंजीवादी देशों का आर्थिक संकट है।
वहां पैदावार के साधनों की निजी पूंजीवादी मिल्कियत उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूपउत्पादक शक्तियों के रूप की खुल्लमखुल्ला विरोधी है। इससे आर्थिक संकट पैदा होते हैंजिनसे उत्पादक शक्तियों का नाश होता है। और भीयह विरोध खुद सामाजिक क्रांति का आर्थिक आधार बन जाता है। इस क्रांति का उद्देश्य होता हैपैदावार के मौजूदा सम्बन्धों को खत्म करना और पैदावार के ऐसे नये सम्बन्ध रचना जो उत्पादक शक्यिों के रूप के अनुकूल हों।
इसके विपरीतइस बात की मिसालजहां पैदावार के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के रूप के पूरी तरह अनुकूल हैंसोवियत संघ की समाजवादी राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था है। यहां पर पैदावार के साधनों की सामाजिक मिल्कियत उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूप के पूरी तरह अनुकूल है और इस वजह सेयहां आर्थिक संकट और उत्पादक शक्तियों के विनाश का नाम नहीं है।
नतीजा यह कि उत्पादक शक्तियां न सिर्फ़ पैदावार का सबसे गतिशील और क्रान्तिकारी तत्व हैंबल्कि पैदावार के विकास का नियामक तत्व भी हैं।
जैसी उत्पादक शक्तियां होती हैंवैसे ही पैदावार के सम्बन्ध होते हैं।
उत्पादक शक्तियों की दशा क्या हैइससे इस बात का पता चलता है कि मनुष्य अपने लिये आवश्यक भौतिक मूल्यों को पैदावार के किन साधनों से उत्पन्न्ा करते हैं।
पैदावार के साधनों की दशा क्या हैइससे एक दूसरी बात का पता चलता है कि पैदावार के साधनों (जमीनजंगलजलाशयखानेंकच्चा मालपैदावार के साधनपैदावार की जगहयातायात और समाचार भेजने के साधन वगैरह) का मालिक कौन हैपैदावार के साधन किसके अधिकार में हैंपूरे समाज के अधिकार में हैं या अलग-थलग लोगोंगुटों या वर्गों के हाथ में हैजो उन्हें दूसरे लोगोंगुटों या वर्गो का शोषण करने के लिये इस्तेमाल करते हैं?
पुराने ज़माने से लेकर आज तक उत्पादक शक्तियों के विकास की एक मोटी रूपरेखा यह है। भोंडे़ पत्थर के औज़ारों से लोग धनुष-बाण की तरफ़ बढे़ और उसके साथ हीशिकारियों की जिन्दगी छोड़ कर पशुपालन और आदिम चारागाहों की तरफ़ बढ़े। लोग पत्थर के औज़ार छोड़ कर धातुओं के औज़ार (लोहे की कुल्हाड़ीलोहे का  फाल लगा हुआ लकड़ी का हल वगैरह) की तरफ़ बढे़ और उसके साथ ही जोतनेबोने और खेती की तरफ़ बढे़। इसके बादसामान तैयार करने के लिये धातु के औज़ारों में और सुधार हुआलोहार की धौंकनी काम में लायी जाने लगीमिट्टी का बर्तन बनना शुरू हुआउसके साथ ही दस्तकारी का विकास हुआदस्तकारी खेती से जुदा हुईदस्तकारी के स्वतंत्र उद्योग विकसित हुए और आगे चल कर कारख़ाने कायम हुए। दस्तकारी से औज़ार छोड़ कर लोग मशीनों की तरफ़ आये और दस्तकारी और कारखानों की पैदावार मशीनों के उद्योग-धंधों में बदल गयी। इसके बादलोग मशीनों की व्यवस्था की तरफ बढ़े और आधुनिकबड़े पैमाने पर मशीनों से चलने वाले उद्योग-धंधे क़ायम हुए। मानव इतिहास के दौर में समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास की यह मोटी और अपूर्ण रूपरेखा है। इससे साफ हो जायेगा कि पैदावार के साधनों का विकास और उनमें सुधार उन लोगों ने किया जिनका पैदावार से संबंध थायह विकास और सुधार उनसे स्वतंत्र नहीं हुआ। यह काम मनुष्यों से स्वतंत्र नहीं हुआ। नतीजा यह कि पैदावार के साधनों की तब्दीली और विकास के साथ उत्पादक शक्तियों के सबसे महत्वपूर्ण तत्व इंसानों में तब्दीली और विकास हुएउनके पैदावार के अनुभवउनके श्रम-कौशलपैदावार के औज़ारों को इस्तेमाल करने की उनकी योग्यता में तब्दीली और विकास हुआ।
इतिहास के दौर मेंसमाज की उत्पादक शक्तियों के विकास और परिवर्तन के अनुकूलमनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्धउनके आर्थिक सम्बन्ध भी बदले और विकसित हुए।
इतिहास में उत्पादन-सम्बन्धों के पांच मुख्य रूप मिलते हैं: आदिम साम्यवादीगुलामी की प्रथासामन्तीपूंजीवादी और समाजवादी।
आदिम साम्यवादी व्यवस्था में पैदावार के सम्बन्धों की बुनियाद यह है कि पैदावार के साधनों पर सामाजिक मिल्कियत होती है। यह बात उस समय की उत्पादक शक्तियों के रूप से मुख्यतः मेल खाती है। पत्थर के औज़ारों से और आगे चल कर तीर-कमान से लोग अलग-थलग रह कर प्रकृति की शक्तियों और हिंसक जंतुओं का मुक़ाबिला न कर सकते थे। जंगल से फल इकट्ठे करने के लियेमछली पकड़ने के लियेकिसी तरह की रहने की जगह बनाने के लिये मनुष्यों को मिलकर काम करने पर मजबूर होना पड़ा वर्ना वे भूख से मरते या हिंसक जंतुओं या पड़ोसी समाजों के शिकार होते। एक साथ मेहनत करने से पैदावार के साधनों पर और पैदावार की उपज पर भी मिली-जुली मिल्कियत हुई। यहां अभी पैदावार के साधनों की निजी मिल्कियत का भाव पैदा न हुआ था। लोगों के पास निजी मिल्कियत के नाम पर सिर्फ़ पैदावार के कुछ औज़ार होते थेजो साथ ही हिंसक जंतुओं से रक्षा करने के साधन का काम देते थे। यहां अभी न शोषण थान वर्ग थे।
ग़ुलामी की प्रथा वाली व्यवस्था में पैदावार के सम्बन्धों की बुनियाद यह थी कि पैदावार के साधनों का मालिक गुलामों का स्वामी होता था। पैदावार में काम करने वालेयानी गुलामपर भी उसका अधिकार होता थाजिसे वह खरीद या बेच सकता था या जान से मार सकता थामानो वह जानवर हो। इस तरह के उत्पादन-सम्बन्ध उस समय की उत्पादक-शक्तियों की दशा के मुख्यतः अनुकूल थे। पत्थर के औज़ारों के बदलेअब लोगों के हाथ में धातु के औज़ार थे। शिकारी की गयी-बीती और आदिम गिरिस्ती के बदलेजो न जोतना-बोना जानता था न चरागाह रखना जानता थाअब चरागाहखेतीदस्तकारी सामने आयी और पैदावार की इन शाखाओं में मेहनत का बंटवारा हुआ। अब व्यक्तियों और समाजों के बीच में उपज की अदला-बदली मुमकिन हुईमुट्ठी भर लोगों के हाथ में दौलत का इकट्ठा होनाअल्पसंख्यक लोगों के हाथ में पैदावार के साधनों का सचमुच केन्द्रित हो जाना और बहुसंख्यक लोगों का थोडे़ से लोगों द्वारा पराधीन बनाया जाना और बहुसंख्यक लोगों का दासों में तब्दील होना - यह सब मुमकिन हुआ।
अब उत्पादन-क्रम में समाज के सभी लोग मिलजुल कर और आज़ादी से मेहनत न करते थे। यहां अब गुलामों की बेगार चालू हो गयीजिन्हें उनके खुद मेहनत न करने वाले मालिक शोषित करते थे। इसलियेयहां पैदावार के साधनों या पैदावार की उपज की मिलीजुली मिल्कियत न रह गयी थी। उसकी जगहनिजी मिल्कियत ने ले ली। यहां गुलामों का मालिक अक्षरशः सम्पत्ति के पहले और मुख्य स्वामी के रूप में प्रकट होता है।
धनी और ग़रीबशोषक और शोषितअधिकारयुक्त और अधिकारहीन लोग और इनके बीच घोर वर्ग-संघर्ष - गुलामी की व्यवस्था की यही तस्वीर है।
सामन्ती व्यवस्था में उत्पादन-सम्बन्धों की बुनियाद यह है कि सामन्ती मालिक पैदावार के साधनों का स्वामी होता है और पैदावार में काम करने वाले भूदास का पूरी तरह मालिक नहीं होता। वह अब उसकी जान नहीं मार सकतालेकिन उसे बेच और खरीद सकता है। सामन्ती मिल्कियत के साथकिसान और दस्तकार की निजी मिल्कियत भी रहती है। यह मिल्कियत पैदावार के औज़ारों और उसकी अपनी मेहनत पर चलने वाले निजी धंधे की होती है। इस तरह के उत्पादन-संबन्ध उस समय की उत्पादक शक्तियों के मुख्यतः अनुकूल होते हैं। लोहे के गलाने और उसकी चीजें बनाने में और तरक्क़ीलोहे के हल और करघे का प्रसारखेतीबागबानीअंगूरबानी  और डेरी के काम का और विकासदस्तकारों की दुकान के साथ-साथ कारखानों का बनना - उत्पादक शक्तियों की दशा की ये अपनी विशेषतायें हैं।
नयी उत्पादक शक्तियों की मांग होती है कि मेहनत करने वाला पैदावार में किसी तरह की पहलक़दमी और काम के लिये रुझानकाम से दिलचस्पी ज़ाहिर करे। इसलियेसामन्ती मालिक गुलाम से नाता तोड़ लेता है। गुलाम ऐसा मेहनत करने वाला है जिसे काम से कोई दिलचस्पी नहीं होती और जो क़तई पहलक़दमी नहीं करता। उसके बदलेसामन्ती मालिक भूदास से नाता जोड़ना पसन्द करता है।
भूदास की अपनी गिरिस्ती होती हैपैदावार के अपने औज़ार होते हैं और काम में इतनी दिलचस्पी होती है जितनी ज़मीन की काश्तकारी के लिये और सामन्ती मालिक को फ़सल का एक हिस्सा ग़ल्ले के रूप में देने के लिये जरूरी हो।
यहां निजी मिल्कियत का और विकास होता है। शोषण क़रीब-क़रीब वैसा ही कठोर होता है जैसा गुलामी में - अब वह जरा सा मद्धिम होता है। शोषक और शोषितों के बीच वर्ग-संघर्ष सामन्ती व्यवस्था का मुख्य लक्षण है।
पूंजीवादी समाज में पैदावार के सम्बन्धों की बुनियाद यह है कि पैदावार के साधनों के मालिक पूंजीपति होते हैं न कि पैदावार में काम करने वाले मजदूरजो पगार पर मजदूरी करते हैं। इन्हें पूंजीपति न मार सकता हैन बेच सकता है क्योंकि वे निजी तौर पर आज़ाद हैं। लेकिनउनके पास पैदावार के साधन नहीं होते और भूख से न मर जायेंइसलिये उन्हें मजबूर होकर अपनी श्रम-शक्ति पूंजीपति को बेचनी पड़ती  है और शोषण का जुआं बर्दाश्त करना पड़ता है। पैदावार के साधनों में पूंजीवादी सम्पत्ति के साथ-साथपैदावार के साधनों मेंपहले एक बडे़ पैमाने परकिसानों और दस्तकारों की निजी सम्पत्ति दिखाई देती है। ये किसान और दस्तकार भूदास नहीं होते और उनकी निजी सम्पत्ति उनकी अपनी मेहनत का फल होती है। दस्तकारों की दूकानों और कारखानों के बदलेअब बड़ी-बड़ी मिलें और मशीनों से लैस कारखाने उठ खड़े होते हैं। जमींदारों की रियासतों के बदलेजिन्हें किसान पैदावार के आदिम औज़ारों से जोतते-बोते थेअब बडे़-बडे़ पूंजीवादी फ़ार्म सामने आ जाते हैंजिनमें वैज्ञानिक ढंग से काम होता है और जिनके पास खेती करने की मशीनें होती हैं।
नयी उत्पादक शक्तियों की मांग होती है कि पैदावार में काम करने वालेकुचले हुए अनपढ़ भूदासों के मुकाबिले मेंज्यादा शिक्षित और ज्यादा चतुर होंवे मशीनों का काम समझ सकें और उन्हें ठीक से चला सकें। इसलियेपूंजीपति पगार पाने वाले मज़दूरों से काम लेना ज्यादा पसन्द करते हैं। ये मज़दूर भूदास प्रथा के बन्धनों से मुक्त होते हैं और इतने शिक्षित होते हैं कि मशीनों से सही तौर पर काम ले सकें।
लेकिन उत्पादक शक्तियों को जबर्दस्त सीमा तक विकसित करने के बादपूंजीवाद ऐसी असंगतियों में फंस गया है जिन्हें वह हल नहीं कर पाता। अधिकाधिक तादाद में बिकाऊ माल पैदा करके और उनके भाव गिराकरपूंजीवाद होड़ को तेज करता हैछोटे और मध्यम श्रेणी के निजी मिल्कियत वालों को तबाह कर देता हैउन्हें सर्वहारा में तब्दील कर देता है और उनकी खरीदने की ताक़त कम कर देता है। नतीजा यह होता है कि जो बिकाऊ माल तैयार किया जाता हैउसे ठिकाने लगाना असंभव हो जाता है। दूसरी तऱफपैदावार को फैलाकर और लाखों मज़दूरों को बड़ी-बड़ी मिलों और कारखानों में केन्द्रित करके पूंजीवाद उत्पादन-क्रम को एक सामाजिक रूप दे देता है और इस तरहखुद अपनी जड़ कमज़ोर करता है। कारण यह कि उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूप की मांग होती है कि पैदावार के साधनों की मिल्कियत भी सामाजिक हो। लेकिनपैदावार के साधन पूंजीपतियों की निजी दौलत ही रहते हैंजो उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूप के बिल्कुल प्रतिकूल होता है।
उत्पादक शक्तियों के रूप और उत्पादन-सम्बन्धों के बीच दूर न होने वाले ये अंतर्विरोध समय-समय पर अति-पैदावार के संकटों के रूप में ज़ाहिर होते हैं। उस समय खुद अपनी तरफ़ से तबाह किये हुए आम लोगों की ग़रीबी की वजह से अपने माल की खासी मांग न देखकर पूंजीपतियों को मजबूरन अपनी उपज जला देनी पड़ती हैकारखानों में तैयार किया हुआ माल नष्ट कर देना होता हैपैदावार का काम मुल्तवी कर देना पड़ता है और ऐसे समय उत्पादक शक्तियों का नाश करना पड़ता है जब लाखों लोग मजबूरन बेकारी और भुखमरी के शिकार होते हैंइसलिये नहीं कि काफ़ी माल हैनहींबल्कि इसलिये कि माल की अति-पैदावार हो गयी है।
इसका अर्थ यह होता है कि पैदावर के पूंजीवादी सम्बन्ध समाज की उत्पादक शक्तियों की दशा से अब मेल नहीं खाते और उन शक्तियों से अब उनका कभी न सुलझने वाला विरोध पैदा हो गया है।
इसका अर्थ यह होता है कि पूंजीवाद के गर्भ में क्रांति पुष्ट हो रही हैजिसका काम है - पैदावार के साधनों की मौजूदा पूंजीवादी मिल्कियत की जगह समाजवादी मिल्कियत क़ायम करना।
इसका अर्थ यह होता है कि पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य लक्षण शोषक और शोषितों के बीच बहुत ही तीव्र वर्ग-संघर्ष है।
समाजवादी व्यवस्था मेंजो अभी तक सिर्फ़ सोवियत संघ में क़ायम हुई हैपैदावार के साधनों की बुनियाद यह है कि पैदावार के साधनों की मिल्कियत सामाजिक होती है। यहां पर अब और शोषित नहीं हैं। जो माल पैदा किया जाता है वह लोगों की मेहनत के अनुसार बांट दिया जाता है। इसका असूल है: “जो काम न करेगा वह खायेगा भी नहीं।” यहां उत्पादन-क्रम में लोगों के आपसी सम्बन्धों की विशेषता यह  है कि शोषण से मुक्त मजदूर भाईचारे का सहयोग करते हैं और समाजवादी ढंग से एक-दूसरे की मदद करते हैं। यहां पैदावार के सम्बन्ध पूरी तरह उत्पादक शक्तियों के अनुकूल होते हंैक्योंकि उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूख को पैदावार के साधनों की सामाजिक मिल्कियत और मज़बूत कर देती है।
इस वजह सेसोवियत संघ में समाजवादी पैदावार न तो अति-पैदावार के समय-समय पर आने वाले संकट जानती है और न उनके साथ की यहां बेहूदगियां होती हैं।
इस वजह सेयहां उत्पादक शक्तियां और तेज़ तफ्तार से  विकसित होती हैंक्योंकि उनसे मेल खाने वाले सम्बन्ध ऐसे विकास के लिये उन्हें पूरा मौक़ा देते हैं।
मानव इतिहास के दौरान मेंमनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्धों के विकास की यही तस्वीर है।
पैदावार के सम्बन्धों का विकास समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास पर  इस तरह निर्भर है और सबसे पहले पैदावार के औज़ारों के विकास पर निर्भर है।
इस निर्भरता की वजह सेउत्पादक शक्तियों की तब्दीली और विकास आगे-पीछे  उत्पादन-सम्बन्धों में वैसी ही तब्दीली और विकास पैदा कर देते हैं।
माक्र्स ने लिखा था:
मेहनत करने के औज़ारों”1 का इस्तेमाल और उनका निर्माण बीज रूप में कुछ खास तरह के पशुओं में जरूर मौजूद रहता हैलेकिन मनुष्य की मेहनत का जो सिलसिला होता हैउसकी यह अपनी विशेषता है। इसलियेफ्रेंकलिन ने मनुष्य की यह व्याख्या की थी कि वह औज़ार बनाने वाला पशु है। मेहनत करने के पुराने औज़ारों के अवशेष खत्म हो चुकने वाले समाज के आर्थिक रूपों की जांच-पड़ताल के लिये उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि पशुओं की खत्म हो चुकी जातियां पहचानने के लिये हड्डियों के अवशेष। विभिन्न्ा आर्थिक युगों को हम इस बात से नहीं पहचानते कि उस समय कौन सी चीजें बनायी जातीं थींबल्कि इससे पहचानते हैं कि वे कैसे और किन औज़ारों से बनायी जाती थीं। मेहनत करने के औज़ारों से इसी का माप-दण्ड नहीं मिलता कि मनुष्य की मेहनत किस हद तक विकसित हुई हैबल्कि उनसे उन सामाजिक परिस्थितियांे का भी पता चलता है जिनमें वह मेहनत की गयी थी।” (कार्ल माक्र्सपूंजी , लंदन, 1908, खण्ड 1, पृष्ठ 159)
और आगे:
-“उत्पादक शक्तियों से सामाजिक सम्बन्धों का नज़दीकी सम्बन्ध है। नयी उत्पादक शक्तियां हासिल करने में मनुष्य अपनी पैदावार के तरीके बदल देते हैं। पैदावार का अपना तरीका बदलने मेंअपनी रोजी हासिल करने का तरीका बदलने मेंवे अपने तमाम सामाजिक सम्बन्ध भी बदल देते हैं। हाथ की चक्की हमें ऐसा समाज देती है जिसमें सामन्ती स्वामी होता है। मशीन से चलने वाली मिल ऐसा समाज देती है जिसमें औद्योगिक पूंजीपति होता है।” (कार्ल माक्र्सदर्शनशास्त्र का दारिद्रय , अंÛसंÛ, मास्को, 1935, पृष्ठ 92)
-”उत्पादक शक्तियों की बढ़ती में सामाजिक सम्बन्धों के विनाश मेंविचारों के निर्माण में निरंतर गति होती है। एक ही चीज गतिहीन है और वह गतिशीलता का भाव है।” (उपÛ, पृष्ठ 93)
कम्युनिस्ट घोषणापत्र में ऐतिहासिक भौतिकवाद की जो व्यवस्था की गयी हैउसकी चर्चा करते हुए एंगेल्स ने लिखा है: “हर ऐतिहासिक युग की आर्थिक पैदावार और उससे लाज़िमी तौर से पैदा होने वाली समाज की बनावट उस युग के राजनीतिक और बौद्धिक इतिहास की बुनियाद है। ...इसलिये, (जबसेजमीन की आदिम पंचायती मिल्कियत खत्म हुई),
सभी इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा हैसामाजिक विकास की विभिन्न्ा मंजिलों में शोषक और शोषितोंसत्तारूढ़ और शासित वर्गों के संघर्षों का इतिहास रहा है। ...लेकिनयह संघर्ष अब ऐसी मंजिल तक पहुंच गया है जहां कि शोषित और पीड़ित वर्ग (सर्वहारा) अपना शोषण और उत्पीड़न करने वाले वर्ग (पूंजीपतियों) से अपना छुटकारा बिना इस बात के हासिल नहीं कर सकता कि वह साथ-साथ हमें शक्ति के लिये समूचे समाज को शोषणउत्पीड़न और वर्ग-संघर्षों से हमेशा के लिये मुक्त कर दे।” (कम्युनिस्ट घोषणापत्र के जर्मन संस्करण की भूमिकाकार्ल माक्र्ससंÛग्रंÛ, मास्को, 1946, खंÛ 1, पृष्ठ100-01)

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