Saturday, March 31, 2018

Fight Unemployment, Fight Capitalism

The Present BJP Government is running behind building the Ram-Temple at Ayodhya, building a new statute of useless politicians, trolling the opposition parties, telling some people to leave the country, giving them a tag line of “ Anti-national”.
BJP is following the words of Roman Emperors:
'If you cannot give the people bread give them circuses, gladiator fights in colosseum for months to distract their attention, they will get busy without knowing the real threat'.
And they are doing all these because they can do nothing except making promises to create crores of jobs in this crisis ridden capitalist society.
To understand this crisis ridden capitalism, to fight unemployment in a better way join "रोजगार गारंटी संघर्ष अभियान कमिटी". and भगतसिंह छात्र युआ संघठन (Contact Indrajeet- 9065750886

बेरोजगारी के प्रश्न पर चले बहस पर टिपण्णी (भाग २ )

लेकिन इस बढती हुई बेरोजगारी का कारण क्या है?
.
मार्क्स ने दिखाया है कि बाजार के लिए प्रतिस्पर्धा के प्रलोभन के तहत पूंजीवादी उद्योग श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग करके या कम श्रम के साथ उतना ही उत्पादन हासिल करने के अन्य तरीको के द्वारा हमेशा उत्पादन की लागत को कम करना चाहता है, इस प्रकार बेरोजगारी पैदा करता है. इसके अलावे पूंजीवाद को "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत होती है ताकि पुराने उद्योगों के विस्तार और नए उद्योगों को लगाने के लिए समय-समय पर मिलने वाले अवसरों का फायदा उठाने में सक्षम हो सके, और मजदूरी को एक स्तर से नीचे रखा जा सके जो उत्पादन को लाभदायक बनाता है. मार्क्स के लिए चक्रीय संकट अपरिहार्य हैं और उतना ही अपरिहार्य अंततः समृद्धि है जो विस्तार, उछाल, संकट और मंदी के दूसरे चक्र से हो कर गुजरता है. मंदी के दौरों में मज़दूरों पर बेरोज़गारी की मार और भी बुरी तरह पड़ती है।
इस तरह मार्क्स ने मुख्य रूप से बेरोजगारी के निम्न तीन कारण बताये है:
१ . प्रतिस्पर्धा के तहत पूंजीवादी उद्योग में श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग
२. श्रम की "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत
३. अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट
१. प्रतिस्पर्धा के तहत पूंजीवादी उद्योग में श्रम-विस्थापन मशीनरी का उपयोग-
मशीनें आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन–तंत्र के आधार हैं. पूँजीवाद पूर्व सामजिक व्यवस्था में उत्पादन का आधार मशीने नहीं बल्कि छोटे छोटे औजार होते थे जिसके ऊपर कामगार का निजी स्वामित्व होता था. लेकिन पूंजीवादी उत्पादन तंत्र में विराट उत्पादन के साधनों, मशीने आदि पर कामगार का नहीं बल्कि पूंजीपति का निजी स्वामित्व होता है. अगर पूँजीपति अपने कारख़ाने में उत्पादन कराने के लिए मज़दूर की श्रम शक्ति आठ घण्टे के लिए ख़रीदता है और मज़दूर को मिलने वाले श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर उत्पादन अगर मज़दूर चार घण्टे में ही कर देता है तो शेष चार घंटे में जो मूल्य वह पैदा करता है उसे पूँजीपति हड़प लेता है. इसे ‘अतिरिक्त मूल्य’ कहते हैं। इस अतिरिक्त मूल्य के एक हिस्से को पूँजीपति अपने अय्याशी भरे जीवन पर ख़र्च करता है, और बाक़ी को पूँजी में बदलकर उससे अपने कारोबार को और बढ़ाता है। इस तरह पूंजीपति संचय और अधिशेष मूल्य के पूंजीकरण के माध्यम से पूंजी का विस्तार करता है. इसे पूँजी का संकेंद्रण कहा जाता है. चुकि पूंजीपतियों का लक्ष्य अधिक्तम मुनाफा कमाना होता है, इस लिए लगातार उसकी कोशिश होती है कि वह उत्पादन के ऐसे उन्नत साधन, या श्रम-विस्थापन मशीनरी को लगाए जिससे कि मजदूर को मिलने वाला श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर उत्पादन मजदूर चार घंटे के बदले उससे कम, उदहारण के लिए मान ले कि दो घंटा में कर ले. परिणामस्वरुप, पूंजीपति को पुराने स्तर पर उत्पादन को बनाये रखने के लिए अब आधे मजदूरों की जरूरत पड़े गी और आधे मजदूर बेरोजगार हो जाएगे. इस तरह पूँजीवाद पूर्व सामजिक व्यवस्था के कामगर से पूंजीवादी व्यवस्था में सर्वहारा बनने बनने की प्रक्रिया में श्रमिक न केवल अपने श्रम के फल पर पूर्ण अधिकार से वंचित हो जाता है बल्कि श्रम करने के अधिकार से, काम के अधिकार से भी अनिवार्य रूप वंचित हो जाता है, श्रमिको को बेरोजगारी के आरक्षित सेना में शामिल होना पड़ता है.
उन्नत और श्रम-विस्थापन मशीनरी के उपयोग के द्वारा लागत कम कर सकने में सक्षम होने के कारण पूंजीपति बाजार की प्रतिस्पर्धा में दुसरे पूंजीपतियों को पछाड़ देने में कारगर साबित होंते है और अंततः उन्हें दिवालिया होने को मजबूर होना पड़ता है, पछाड़ दिए गए कारखानों को घाटे में बहुत दिनों तक न चल सकने के कारण उन्हें बंद होना पड़ता है, वित्तीय संस्थानों, बैंक से लिए कर्ज चुकाने में असमर्थ होने के कारण उनकी परिसम्पत्तिया दुसरे पूंजीपति द्वारा खरीद ली जाती है, मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ता है, बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों की बर्बादी होती है. संचय के इस विधि द्वारा पूँजी के विस्तार को पूँजी का केंद्रीकरण कहा जाता है.
भारत में भी आज ऐसे नीलाम होने वाली कम्पनियों की एक लम्बी सूची राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के साईट पर देखी जा सकती है जिसके बारे में बुर्जुआ अखबारों में अक्सर खबर सुर्खियों में आती रहती है. हाल ही में बैंक के कर्ज में फंसे 28 बड़े खातों में से 23 को ऋणशोधन प्रक्रिया के लिए भेजने की खबर आयी थी. भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी दूसरी सूची में इस तरह के 28 खातों को चिन्हित किया था और उनका निस्तारण 13 दिसंबर तक करने को कहा था. यूनिटेक लिमिटेड, जेपी बिल्डर, अर्थ, इरा और गार्डेनिया बिल्डर, एयरसेल भूषण स्टील, आरकॉम ने बैंक और फाइनेंसरों के पैसे चुकाने में असमर्थतता जताने पर या तो दिवालिया घोषित हो चुके है या इसकी राह पर है.
इस तरह पूँजी के संचय के दोनों विधि - पूँजी का संकेंद्रण और पूँजी का केंद्रीकरण - का अनिवार्य परिणाम मजदूरों की बेरोजगारी में वृद्धि होता है. आज इसका सबसे अच्छा उदाहरण दूरसंचार क्षेत्र में देखा जा सकता है. दूरसंचार कंपनियों को सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर सेवाएं उपलब्ध कराने वाली 65 तकनीकी कंपनियों के करीब 100 वरिष्ठ एवं मध्यम स्तर के कर्मचारियों के बीच किए गए सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट के आधार पर वायर में छपे एक खबर के अनुसार साल 2017 की शुरुआत से जनवरी २०१८ तक दूरसंचार क्षेत्र की 40 हज़ार नौकरियां जा चुकी थी और 80 से 90 हज़ार नौकरियां जाने की संभावना बनी हुई थी.किसी दौर में दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की करने वाले दूरसंचार क्षेत्र के लिए अगले छह से नौ महीने भारी संकट के रहने वाले हैं.
२. "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" की जरूरत -
श्रम की "एक औद्योगिक आरक्षित सेना" पूंजी के संचय की प्रक्रिया का परिणाम है. प्राक पूंजीवादी व्यवस्था में अपने उत्पादन के साधनों पर कामगार का निजी स्वामित्व छोटे उद्योग का आधार होता था, चाहे वह छोटा उद्योग खेती से संबंधित हो या मेन्युफेक्चर से अथवा दोनों से। उत्पादक शक्ति के विकास के साथ पूँजीवाद में अपने श्रम से कमायी हुई निजी संपत्ति का स्थान पूंजीवादी निजी संपत्ति ले लेती है, जो कि दूसरे लोगों के नाम मात्र के लिए स्वतंत्र श्रम पर अर्थात् मजदूरी पर आधारित होती है। रूपांतरण की यह प्रक्रिया पुराने समाज को ऊपर से नीचे तक छिन्न-भिन्न कर देती है, उत्पादन के छोटे साधनों पर स्वामित्व रखने वाले कामगार सर्वहारा बन जाते हैं और उनके श्रम के साधन पूंजी में रूपांतरित होते जाते हैं, पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली स्थापित होती है जिसमे उत्पादन के साधनों पर अब पूंजीपतियों का स्वामित्व होता है. इस तरह बेरोजगारों की एक विशाल फ़ौज खड़ी हो जाती है.
विशाल पैमाने के उद्योग का विकास मजदूर की असुरक्षित स्थिति को बदतर बना देता है. पूंजी के संचय की प्रक्रिया की तेज़ गति से श्रम की औद्योगिक आरक्षित सेना बन जाती है जो मजदूर की सक्रीय सेना पर लगातार दबाब बनाये रखती है और कारखानों में रोजगारशुदा मजदूरों को अपनी मजदूरी में उल्लेखनीय वृद्धि करवाने का मौका नहीं देती है. आधुनिक उद्योग के जीवन-चक्र में उत्पादन में सामान्य वृद्धि के बाद सहसा बहुत अधिक वृद्धि होती है जिसके बाद संकट, मंदी और ठहराव की अवधि आती है. इसका विशिष्ट परिणाम यह होता है कि बेशी आबादी में वृद्धि हो जाती है और औद्योगिक आरक्षित सेना के आकार में परिवर्तन होने लगता है. आरक्षित सेना जितनी बडी होती है उतना ही मेहनतकशों के कंगालों की कतार में शामिल हो जाने का खतरा बढ़ता जाता है. यह प्रक्रिया उस बिन्दू तक पहुँच सकती है कि समाज इन्हें मुह्ताजखाने में खिलाने या इन्हें दूसरे किस्म की राहत देने के लिए बाध्य हो जाये. मार्क्स ने इसका सजीव वर्णन इस प्रकार किया था:
“इसका परिणाम यह होता है कि जिस अनुपात में पूंजी का संचय होता जाता है, उसी अनुपात में मजदूर की हालत अनिवार्य रूप से बिगड़ती जाती है — उसको चाहे ज्यादा मजदूरी मिलती हो या कम. अंत में वह नियम जो सापेक्ष बेशी आबादी या औद्योगिक आरक्षित सेना का (पूंजी) संचय के विस्तार और तेजी के साथ संतुलन कायम करता है, मजदूर को पूंजी के साथ इतनी मजबूती के साथ जकड़ देता है जितनी मजबूती के साथ हिपेसियस की बनाई जंजीर प्रोमेथियस को चट्टान के साथ नहीं जकड़ सकी थी. इस नियम के फलस्वरूप पूंजी संचय के साथ-साथ दरिद्रता बढती जाती है. इसलिए यदि एक छोर पर धन, का संचय होता है, तो इसके साथ-साथ दूसरे छोर पर — यानी उस वर्ग में जो खुद अपने श्रम के उत्पाद को पूंजी के रूप में तैयार करता है — गरीबी, यातनादायक श्रम, दासता, अज्ञान, पाशविकता और मानसिक पतन का संचय होता जाता है.” (मार्क्स, कैपिटल, खंड 1, पृ. 714)
हालही के एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियां का 82% दौलत 1% कुबेरों के पास है। उस 1% पूंजीपतियों की आय 2015 के बाद 182 गुना बढ़ी जबकि न्यूनतम 50% आबादी की आय में कोई वृद्धि नही हुई.
समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम है, जबकि दौलत श्रमिको के पास नहीं, बल्कि निठल्ले पूंजीपतियों के पास जमा हो रहा है। पूँजीवाद के विकास के मॉडल की यह विशेषता दुनिया के हर पूंजीवादी देश में देखा जा सकता है। भारत इसका अपवाद नहीं है: विकास के इस मॉडल में किसी भी देश के बहुमत आबादी की क्या दिलचस्पी हो सकती है? बहुमत आवादी इस मॉडल को क्यों बचाना चाहे गी? बहुमत आबादी का हित इस मॉडल कें सुधार में नहीं, इसके समूल नाश में है.
३. अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट
अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट से हम सभी भली भांति परिचित है और अक्सर हम इसकी चर्चा भी करते है. लेकिन इस अपरिहार्य चक्रीय आर्थिक संकट का कारण क्या है ?
मार्क्स ने पूँजीवाद का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, उसमे उनके दो निम्न बुनियादी विचार उभर कर सामने आये हैं:
१.पूंजीवादी संकट पूंजीवादी समाज के बुनियादी अंतर्विरोध की अभिव्यक्ति है; उत्पादन के सामाजिक चरित्र और हस्तगतकारण के निजी चरित्र और फलस्वरूप एक तरफ उत्पादन का तेजी से विस्तार की प्रवृत्ति तो दूसरे तरफ खपत की सीमाएं.
२. लाभ की दर गिरने की प्रवृत्ति पूँजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोध का कारण हैं, जो आर्थिक संकट में अभिव्यक्त होता है.
ये दोनो ही विचार निकटता से जुड़े हुए हैं, वे दो वैकल्पिक सिद्धांत नहीं हैं, वे एक स्पष्ट आर्थिक सिद्धांत के दो पहलू है. फिर भी कई लोग अक्सर लाभ की दर गिरने की प्रवृत्ति को ही पूंजीवादी संकट का कारण मानते है.
लेकिन भारत में नकली वामपंथियों के बीच सबसे लोकप्रिय वह सिद्धांत है जो संकट की व्याख्या “अप्रयाप्त उपभोग” के सन्दर्भ में करता है. मार्क्स और एंगेल्स ने संकट के अनगढ़ एवं अतिसरलीकृत अप्रयाप्त उभोग के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था फिर भी आज हमारे आन्दोलन के साहित्य में उसका प्रभाव दीख जाता है. आइये, थोड़े विस्तार से इस पर चर्चा करते है.
19 वीं सदी के आरम्भ में जब पूंजीवादी दुनिया में संकट की चक्रीय और नियमित घटना एक आम बात बनने लगी, संकट और उनके कारण की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत सामने आये. इन व्याख्याओं में से एक जो काफी लोकप्रिय हुआ और आज तक है, वह तथाकथित "अप्रयाप्त उपभोग” का सिद्धांत है। दुसरे शब्दों में यह एक ऐसा सिद्धांत है जो संकट की व्याख्या “अप्रयाप्त उपभोग” के सन्दर्भ में करता है.
थोड़े शब्दों में रखा जाए तो अप्रयाप्त उपभोग का सिद्धांत कहता है कि चुकि पूंजीवादी समाज मजदूरों के शोषण पर आधारित है, मजदूरों का उपभोग भी सिमित होता जाता है और अनिवार्य रूप से बहुत ही छोटा होता जाता है. अगर मजदूर जितना उत्पादन करते है उतना उपभोग नहीं करते तो बेशी मूल्य कैसे प्रत्याक्षिकृत (बेचा) किया जा सकता है.पूंजीवाद के अंतर्गत किसी माल का मूल्य स्थिर पूँजी + परिवर्ती पूँजी + बेशी मूल्य के रूप में प्रकट होता है. तो सवाल यह उठता है कि बेशी मूल्य का अंश कैसे प्रत्याक्षिकृत होता है.
यह ‘अप्रयाप्त उपभोग’, क्रय शक्ति में कमी मजदूरी में कमी या बहुतयात आबादी की गरीबी पूंजीवादी आर्थिक संकट के कारणों का सिर्फ एक पहलु है, इसलिए उपभोग बढ़ा कर, क्रय शक्ति में वृद्धि कर के या आम गरीब आबादी के जीवन स्तर में सुधार कर के भी पूंजीवादी संकट से पार नहीं पाया जा सकता जैसा कि कीन्स और कलमघिस्सू बुर्जुआ अर्थशाश्त्री और कुछ सुधारवादी नकली कम्युनिस्ट अक्सर नुश्खे पेश करते रहते है.
अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांत के पैरोकार पूंजीवादी समाज के कुल मांग का कारण सिर्फ व्यक्तिगत उपभोग में ही देखते है जबकि कुल मांग उत्पादक उपभोग और व्यक्तिगत उपभोग का जोड़ होता है. समाज में उत्पादित होने वाली वस्तुओं में उत्पादन के साधन, कच्चे माल आदि भी होते है जिसकी मांग मजदूरों या आम जनता के व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं होती बल्कि उत्पादन को उसी स्तर पर बनाये रखने के लिए घिस गए उत्पादन के साधनों के प्रतिस्थापन के लिए या नए उत्पादन के साधनों की मांग उत्पादन का और विस्तार करने के लिए, कच्चे माल के लिए – संक्षेप में पूंजीपतियों द्वारा उत्पादक उपभोग के लिए- होती है. अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांतकार इस गलती को अक्सर दुहराते है और समग्र पूंजीवादी उपत्पादन, उसके विकास और प्रत्यक्षीकरण का बहुत ही गलत और भोंडी समझ पेश करते है.
अक्सर “अप्रयाप्त-उपभोग” के सिद्धांत को मार्क्स के विचारों के रूप में पेश किया जाता है. परन्तु जैसा कि मार्क्स ने बहुत पहले ही व्याख्या की है, यह सही नहीं है. हालाकि उत्पादक शक्तियों के व्यापक विकास के बावजूद जनता के लिए निश्चित रूप से उपभोग में कमी अस्तित्व में होती है, लेकिन यह पूंजीवादी संकट के कारणों के सिर्फ एक पक्ष को ही रखता है, सिर्फ एकतरफा विश्लेषण प्रस्तुत करता है. फिर भी यह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के एक महत्त्वपूर्ण अंतर्विरोध को व्यक्त करता है जो उत्पादन के सामजिक चरित्र और हस्तगत के निजी स्वरुप के विरोधाभास पर टिका होता है. मार्क्स ने इस अंतर्विरोध का वर्णन कई जगह किया है.
पूँजी के दुसरे खंड में मार्क्स ने खुद पूंजीवादी संकट के कारण के प्रसंग में “अप्रयाप्त -उपभोग” की धारणा का खंडन किया है. अकेला उपभोग (या इसका आभाव) पूंजीवादी संकट का मूलभूत कारण नहीं है. अगर ऐसा होता तो जनता की क्रय शक्ति बढ़ा कर इस समस्या का निदान पाया जा सकता था. मार्क्स ने इसका जबाब इन शब्दों में दिया है:
“यह कहना सरासर पुनरुक्ति है कि संकट प्रभावी खपत, या प्रभावी उपभोक्ताओं की कमी की वजह से हैं। पूंजीवादी व्यवस्था प्रभावी खपत के अलावे खपत के किसी भी अन्य दुसरे तरीके को नहीं जानता. वस्तुओं के अविक्रेय होने का केवल एक ही मतलब है कि उनके लिए कोई प्रभावी खरीदार नहीं पाया गया है यानी, उपभोक्ता (क्योकि वस्तुएं अंतिम विश्लेषण में उत्पादक या व्यक्तिगत उपभोग के लिए खरीदे जाते हैं”
वह आगे कहते है:
“लेकिन अगर इस पुनरुक्ति को कोई एक गंभीर औचित्य की झलक देने का प्रयास यह कहते हुए करता है कि मजदूर वर्ग अपने खुद के उत्पाद का एक बहुत छोटा सा हिस्सा प्राप्त करता है और जैसे ही यह इसका एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करेगा और परिणामस्वरुप मजदूरी में वृद्धि होगी, बुराई का निवारण हो जाएगा, तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि संकट हमेशा ऐसी अवधि में तैयार होता है जिसमे सामान्यतः मजदूरी की वृद्धि होती है और मजदूर वर्ग वास्तव में वार्षिक उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करता है जो उपभोग के लिए होता है. इस गंभीर और 'सरल' (!) सामान्य ज्ञान के इन पैरोकारो की दृष्टि से, इस तरह की अवधि को, उलटे, संकट को दूर करना चाहिए। " Marx, Capital, vol.2, pp.414-15
दुसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था में मंदी आने के ठीक पहले तेजी के चरम पर मजदूरी में बढ़ने की प्रवृति रहती है, जब श्रम की आपूर्ति में कमी पायी जाती है. इस लिए मांग में कमी अति-उत्पादन के संकट का वास्तविक कारण नहीं माना जा सकता.
लेनिन अपनी पुस्तक “आर्थिक स्वछंदतावाद का चर्तित्र चित्रण” में संकट के अप्रयाप्त उपभोग के सिद्धांत के पैरोकारो की खबर लेते हुए और संकट के मार्क्सवादी सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहते है:
“पूंजीवादी समाज में संचय के तथा उत्पाद के प्रत्यक्षीकरण के विज्ञानं सम्मत विश्लेषण (मार्क्सवादी) ने इस सिद्धांत के आधार को ही उलट दिया और यह भी लक्षित किया कि ठीक संकटों से पहले की अवधियों में मजदूरों का उपभोग बढ़ता है, कि अप्रयाप्त उपभोग (जिसे संकटों का कारण बताया जाता है) अत्यंत विविधतापूर्ण आर्थिक प्रणाली के अंतर्गत विधमान था, जबकि संकट केवल एक प्रणाली –पूंजीवादी प्रणाली – का अभिलाक्षणिक गुण है. यह सिद्धांत संकटों का कारण एक और अंतर्विरोध याने उत्पादन के सामजिक स्वरुप (पूँजीवाद द्वारा सामजिकृत) तथा हस्तगतकरण की निजी, व्यक्तिगत पद्धति के बीच अंतर्विरोध बताता है.” लेनिन संकलित रचनायं खंड १ पेज ३१७-१८
लेनिन आगे इन सिधान्तो के बीच गहन अंतर को स्पष्ट करते हुए कहते है.
“पहला सिद्धांत (अप्रयाप्त उपभोग का सिद्धांत) बताता है कि संकटों का कारण उत्पादन तथा मजदूर वर्ग द्वारा उपभोग के बीच अंतर्विरोध है, दूसरा सिद्धांत (मार्क्सवादी) बताता है कि उत्पादन के सामजिक स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध है. परिणाम स्वरुप पहला सिद्धांत परिघटना की जड़ को उत्पादन के बाहर देखता है (इसी वजह से, उदहारण के लिए, सिस्मोंदी उपभोग को नजरंदाज करने तथा अपने को केवल उत्पादन में व्यस्त रखने के लिए क्लासकीय अर्थशास्त्रियों पर प्रहार करते है); दूसरा सिद्धांत इसे ठीक उत्पादन की अवस्थाओं में देखता है. संक्षेप में, पहला अप्रयाप्त उपभोग को तथा दूसरा उत्पादन की अराजकता को संकट का कारण बनता है. इस तरह दूनो सिद्धांत संकटों का कारण आर्थिक प्रणाली में अंतर्विरोध को बताते है, वहां वे अंतर्विरोध के स्वरुप बताने में एक दुसरे से सर्वथा भिन्न है. परन्तु सवाल उठता है : क्या दूसरा सिद्धांत उत्पादन तथा उपभोग के बीच विरोध से इनकार करता है? निसंधेह नहीं. वह इस तथ्य को स्वीकार करता है, लेकिन उसे मातहत, उपयुक्त स्थान पर ऐसे तथ्य के रूप में रख देता है, जो पूरे पूंजीवादी उत्पादन के केवल एक क्षेत्र से सम्बंधित है. वह हमे सिखाता है कि यह तथ्य संकटों का कारण नहीं बता सकता, जिन्हें मौजूदा आर्थिक प्रणाली में, दूसरा अधिक गहन, आधारभूत अन्तर्विरोध अर्थात उत्पादन के सामजिक स्वरुप तथा हस्तगतकरण के निजी स्वरुप के बीच अंतर्विरोध जन्म देता है. वहीँ पेज -३१८
और भी लेनिन एंगेल्स का हवाला देते हुए स्पष्ट करते है:
“एंगेल्स कहते है : संकट संभव् है, क्योकि कारखानेदार को मांग का पता नहीं है; वे अवश्यम्भावी है, लेकिन यक़ीनन इस लिए नहीं कि उत्पाद का प्रत्यक्षीकरण नहीं किया जा सकता. यह सच नहीं है : उत्पाद का प्रताक्षिकरण किया जा सकता है. संकट अवश्यम्भावी है, क्योकि उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण के निजी स्वरुप से टकराव होता है” वहीँ पेज ३२२
अगर संकट अवश्यम्भावी इसलिए है, क्योकि उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण के निजी स्वरुप से टकराव होता है जो बेरोजगारी कि समस्या को और विकराल बना देता है तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि जब तक इस टकराव को खत्म नहीं किया जाता, जबतक उत्पादन के सामूहिक स्वरुप का हस्तगतकरण भी सामाजिक नही किया जाता तब तक बेरोजगारी की समस्या से निदान नहीं पाया जा सकता?
अगर इस पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में श्रमिक न केवल अपने श्रम के फल पर पूर्ण अधिकार से वंचित हो जाने को, बल्कि श्रम करने के अधिकार से, काम के अधिकार से भी अनिवार्य रूप वंचित हो जाने, बेरोजगारी के आरक्षित सेना में शामिल हो जाने को अभिशप्त है, तो क्या पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में कोई भी क़ानून बना कर बेरोजगारी की समस्या से निदान पाया जा सकता है?
आज भारतीय अर्थव्यवस्था की दिनोदिन गिरती हालत क्या दर्शाती है? निजी कॉर्पोरेट घराना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतरविरोधो से पूरी तरह त्रस्त है, अब पूंजीपति वर्ग अपनी चहेता राजनैतिक पार्टियों पर आस लगाय बैठा है जो उन्हें अच्छा सा बेलआउट पैकेज दे सके. सारी पूंजीवादी राजनैतिक पार्टियाँ जो विकास के नारे लगा रही है, दरअसल उसके पीछे संदेश यही है- उनकी सरकार अर्थव्यस्था में हस्तक्षेप कम करेगी यानि सरकारी क्षेत्र का विनिवेश करेगी, अप्रत्यक्ष कर बढाने जैसे कदम उठा कर मिहनतकस जनता पर और बोझ बढ़ाएगी, उस पैसे से कर्ज में डूबे औधोगिक घराने को बेलआउट पैकेज देगी, पूंजीपतियों के फेवर में श्रम कानून बनाएगी, प्रत्यक्ष कर कम कर के पूंजीपतियों को राहत पहुचायेगी और “कल्याणकारी राज्य” के ज़माने से मिहनतकस जनता को सब्सिडी के माध्यम से दी जा रही हर तरह के राहत, जैसे शिक्षा, स्वास्थ जैसे सेवाओं पर खर्च की जा रही राशि को क्रमशः ख़त्म करेगी. और क्या पूंजीवादी राज्य भारत में भी यही करने को आमदा नहीं है ?
भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यस्था की इस गिरती हुई हालत में भी पूंजीवादी पार्टियाँ जनता से बड़े बड़े झूठे वादे कर रही है. इस सड़ी गली पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने के बदले खुद को बेहतर प्रबन्धक होने का दावा करते हुए, बुर्जुआ वर्ग के इस या उस तबके की पार्टी के साथ तरह -तरह के राजनैतिक गंठजोड़ करते हुए, पूंजीवादी व्यवस्था के दाएरे में तरह तरह के ‘अल्टरनेटिव’ पेश करते हुए, आम मिहनतकस जनता को गुमराह करते हुए संसदीय वाम पार्टियों को हम वर्षो से देख रहे है, जाहिर है पूँजीवाद के संकटग्रस्त होने और मेहनतकशों के आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के साथ ही पूंजीवादी सरकारों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। बिगुल के साथी सत्यम ने फेब्रुअरी २०१८ के अपने लेख “बेरोज़गारी क्यों पैदा होती है और इसके विरुद्ध संघर्ष की दिशा क्या हो’ में ठीक ही कहते है:
“कोई भी पूँजीवादी सरकार रोज़गार को मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं देती है। आप रोज़गार की माँग पर सरकार को अदालत में नहीं घसीट सकते हैं। लेकिन पूँजीवादी लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के अनुसार भी हर नागरिक के लिए रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा का इन्तज़ाम सरकार की ज़िम्मेदारी है। हालाँकि पूँजीवाद के संकटग्रस्त होने और मेहनतकशों के आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के साथ ही सरकारों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। इसलिए बेरोज़गारी के सवाल पर एक सशक्त और व्यापक आन्दोलन खड़ा करना ज़रूरी है जो हर नागरिक के लिए रोज़गार की व्यवस्था करने की सरकार की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दे।“
और फिर वे आगे कहते है :
“ज़ाहिर है, रोज़गार का मतलब सबके लिए सरकारी नौकरी नहीं होता, जैसाकि कुछ लोग इसे पेश करते हैं। हमारे देश जैसी स्थिति में तो लाखों-लाख की संख्या में खाली पड़े पदों पर भरती करने, बन्द पड़े कारख़ानों, खदानों आदि को शुरू कराने, सार्वजनिक निर्माण के जनोपयोगी कामों को शुरू कराने, ठेकेदारी व्यवस्था को ख़त्म करके नियमित रोज़गार देने, बाल श्रम को खत्म करने, हर क्षेत्र में उचित न्यूनतम मज़दूरी को सख़्ती से लागू कराने, बेरोज़गारों को जीवनयापन लायक बेरोज़गारी भत्ता देने जैसी माँगों को पुरज़ोर ढंग से उठाने की ज़रूरत है। साथ ही, इस संघर्ष को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक संघर्ष से जोड़ने के लिए निरन्तर राजनीतिक प्रचार और शिक्षा के काम को चलाने की भी ज़रूरत है।“
स्पष्ट है कि सर्वहारा वर्ग की व्यापक जनाधार वाली एक सशक्त क्रन्तिकारी पार्टी के आभाव में हम अपने आन्दोलन से, जो अभी पूंजीवादी दाएरे में रहने को अभिशप्त है, मिहनतकस और बेरोजगार आबादी के लिए फिलहाल थोड़ी राहत के सिवा और उम्मीद भी नहीं कर सकते.
हालाकि सच्चाई एक यह भी है कि विज्ञान और तकनीकी का विकास आज इस हद तक हो गया है कि अगर तमाम उत्पादन के साधनो को अधिक्तम मुनाफ़ा के लिए नहीं, बल्कि सबकी जरुरत को ध्यान में रख कर, समाज के नियंत्रण में रख कर उपयोग में लाया जाये तो निश्चित रूप से सबको रोजगार दिया जा सकता है, काम का अधिकार दिया जा सकता है जैसाकि सोवियत रूस में महान सर्वाहारा वर्ग सत्ता में आने केे बाद कर दिखाया था, जहां पूर्ण रोजगार दिवा स्वप्न नहीं, एक हकीकत बन पायी थी.
और अंत में हम बेरोजगारी के खिलाफ संघर्ष कर रहे फेसबुक पर ‘100 प्रतिशत रोजगार गारंटी चाहिए‘ नामक ग्रुप द्वारा व्यक्त किये गए विचारों को उद्धृत किये बिना हम नहीं रह सकते जो थोड़ी बहुत त्रुटियों के वावजूद बेरोजगारी के खिलाफ लड़ रहे नौजवानों के मनोभाव को आकर्षक ढंग से पेश करता है और जो PDYF, PDSF, विमुक्ता और सर्वहारा जन मोर्चा और उनके साथी खुसबू के विचारो के भी थोडा करीब है जो रोजगार गारंटी कानून नहीं, रोजगार की गारंटी की मांग के लिए अभियान इस सोच के साथ चला रहे है कि अगर इस पूँजीवादी व्यवस्था में यह नही हो सकता है तो जिस व्यवस्था में यह सम्भव हो उस व्यवस्था की ओर कुच करने के लिए काम करें, संगठित हो और उन तमाम शक्तियों से एकबद्ध हो जो पूर्ण रोजगार वाली व्यवस्था के लिए लड़ रहे हैं यानी समाजवाद और सर्वहारा जनतंत्र के लिए लड़ रहे हैं. ‘100 प्रतिशत रोजगार गारंटी चाहिए‘ नामक ग्रुप ने अपने बातो को कुछ इस तरह रखा है :
“कलमघिस्सू बुद्धिजीवी और सरकारें दिन-रात इस बात का प्रचार करती रहती हैं कि सबको नौकरी नहीं दी जा सकती है. जबकि सच्चाई इसके उलट है. हमारा देश इतना संसाधन सम्पन्न हैं कि सबको सरकारी नौकरी दी जा सकती है. इसके लिए कई ठोस कदम उठाने होंगे. जैसे- मुनाफे की लूट का चारगाह बन चुके निजी क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाय. पूंजीपतियों की टैक्समाफ़ी खत्म करके, उनके ऊपर बकाया कर्जों की वसूली करके और भ्रष्ट अधिकारियों तथा नेताओं की सम्पत्ति जब्त करके जो कई अरबों का कोष तैयार होगा, उसे रोजगार सृजन के उद्यमों में लगाया जाए. जैसे—नहरों, तालाबों, नदियों और अन्य प्राकृतिक स्थलों की साफ़-सफाई, सडक तथा रेल परिवहन और अन्य मूलभूत ढांचें में सुधार, कपड़ा, दवा और अन्य रोजमर्रा की जरूरतों के उद्योग को बढावा, निर्माण उद्योग को नये सिरे से खड़ा करना और देश में रिसर्च को बढ़ावा देना आदि. लेकिन क्या मौजूदा सरकारों से हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं जो इसका ठीक उलटा कर रही हो. सरकारें औने-पौने दामों पर सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को निजी हाथों में बेचती जा रही हैं. मौजूदा केंद्र सरकार पीपीपी मॉडल के तहत पहले चरण में देश के 23 स्टेशनों को निजी हाथों में सौंप देगी. कानपुर को 200 और अलहाबाद को 150 करोड़ में बेचा जाएगा. यह बहुत घिनौना है, लेकिन इस सरकार से इससे अलग कुछ करने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती. इसलिए सबको रोजगार मुहैया कराने वाली सरकार और समाज व्यवस्था का निर्माण संघर्षों के रास्ते पर ही सम्भव है.”
जाहिर है कि यह सर्वहारा वर्ग की व्यापक जनाधार वाली एक सशक्त क्रन्तिकारी पार्टी ही राज्य पर पूर्ण अधिकार करने के बाद ऐसे क्रांतिकारी कदम उठा सकती है.
एंगेल्स के एक बहुत ही प्रेरक और सटीक उद्दहरण से हम अपनी बात समाप्त करते है :
“लेकिन ये आविष्कार और खोजें, जो नित्य बढ़ती हुई गति से एक दूसरे से आगे बढ़ रही हैं, मानव-श्रम की उत्पादनशीलता, जो दिन-ब-दिन इतनी तेज़ी के साथ बढ़ रही है कि पहले सोचा भी नहीं जा सकता था, अन्त में जाकर एक ऐसा टकराव पैदा करती हैं, जिसके कारण आज की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का विनाश निश्चित है। एक ओर, अकूत धन-सम्पत्ति और मालों की इफ़रात है, जिनको ख़रीदार ख़रीद नहीं पाते; दूसरी ओर, समाज का अधिकांश भाग है, जो सर्वहारा हो गया है, उजरती मज़दूर बन गया है और जो ठीक इसीलिए इन इफ़रात मालों को हस्तगत करने में असमर्थ है। समाज के एक छोटे-से अत्यधिक धनी वर्ग और उजरती मज़दूरों के एक विशाल सम्पत्तिविहीन वर्ग में बँट जाने के परिणामस्वरूप उसका ख़ुद अपनी इफ़रात से गला घुटने लगता है, जबकि समाज के सदस्यों की विशाल बहुसंख्या घोर अभाव से प्रायः अरक्षित है या नितान्त अरक्षित तक है। यह वस्तुस्थिति अधिकाधिक बेतुकी और अधिकाधिक अनावश्यक होती जाती है। इस स्थिति का अन्त अपरिहार्य है। उसका अन्त सम्भव है। एक ऐसी नयी सामाजिक व्यवस्था सम्भव है, जिसमें वर्त्तमान वर्ग-भेद लुप्त हो जायेंगे और जिसमें–शायद एक छोटे-से संक्रमण-काल के बाद, जिसमें कुछ अभाव सहन करना पड़ेगा, लेकिन जो नैतिक दृष्टि से बड़ा मूल्यवान काल होगा–अभी से मौजूद अपार उत्पादक-शक्तियों का योजनाबद्ध रूप से उपयोग तथा विस्तार करके और सभी के लिए काम करना अनिवार्य बनाकर, जीवन-निर्वाह के साधनों को, जीवन के उपभोग के साधनों को तथा मनुष्य की सभी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों के विकास और प्रयोग के साधनों को समाज के सभी सदस्यों के लिए समान मात्र में और अधिकाधिक पूर्ण रूप से सुलभ बना दिया जायेगा।“ मार्क्स की पुस्तक “मजदूरी श्रम और पूँजी” पर फ्रेडरिक एंगल्स द्वारा लिखित भूमिका से

बेरोजगारी के प्रश्न पर चले बहस पर टिपण्णी (भाग १ )

फेसबुक पर पिछले दिनों बेरोजगारी से सम्बंधित मांग पर लम्बी एवं दिलचस्प बहस चली. क्या हमें रोजगार की गारंटी और रोजगार गारंटी क़ानून दोनों की मांग करनी चाहिए? क्या रोजगार गारंटी क़ानून की मांग किसी न किसी रूप में सुधारवाद की ओर ले जाता है? यह विवाद PDYF के साथी खूसबू के उस पोस्ट से शुरू हुआ जिसमे कहा गया था कि रोजगार गारंटी कानून नहीं, रोजगार की गारंटी चाहिए. हालाकि इस पोस्ट में किसी संगठन का नाम नहीं लिया गया था लेकिन बिगुल के साथियों को लगा कि यह पोस्ट उनके द्वारा चलाये जा रहे भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून अभियान के खिलाफ है. देखे लिंक
https://www.facebook.com/comkhushboo/posts/1529441983820331

तो रोजगार गारंटी के मांग पर सहमती है, विवाद यह है कि क्या रोजगार गारंटी के साथ साथ रोजगार गारंटी कानून की भी मांग शुरू से की जाये. उसे प्रोपगंडा का मुख्य एजेंडा बना कर लोगो को आंदोलित किया जाए. PDYF के साथी खूसबू के उस पोस्ट से यह प्रतीत होता है कि ये साथी शुरू से यह मान रहे है कि रोजगार की गारंटी इस पूंजीवादी व्यवस्था में मुमकिन नहीं है. हम देखेगे कि बिगुल के साथी यह मानते है कि रोजगार गारंटी के साथ साथ रोजगार गारंटी क़ानून का मिलना भी इस पूंजीवादी समाज में मुमकिन नहीं है.

लेकिन, जैसा कि साथी अजय सर्वाहारा ने अपनी टिपण्णी में इशारा किया है कि पूँजीवाद में कानून बनाने की जरूरत स्वयं पूंजीवादियों-सुधारवादियों को पड़ती है, चाहे वे कितने भी अप्रयाप्त हो, अगर बेरोजगारी बड़ा मुद्दा बन जायेगा तो पूँजीवादी व्यवस्था के रहनुमा कोई ऐसा लचर कानून खुद ही ला सकते हैं, वोटों के लिए तो वे आखिर कुछ भी कर सकते हैं, आदि, आदि. लेकिन सवाल उठता है कि क्या इससे रोजगार की गारंटी हो जाए गी? भारत में रोजगार गारंटी योजना संभवतः सबसे पहले १९६०-६१ में शुरू किया गया गया था और १९६० से २००५ तक विभिन्न बुर्जुआ सरकारों द्वारा कई योजनायें (लगभग ११) नाम बदल बदल कर लागू किये गए.(देखे लिंक http://shodhganga.inflibnet.ac.in/…/18…/7/07_chapter%205.pdf)

हालाकि ये सारी योजनायें ऊंट के मुहँ में जीरा से ज्यादा कुछ भी नहीं थी, फिर भी इन योजनाओं ने गरीब मिहनतकस जनता के एक हिस्से को बुर्जुआ वर्ग और उसके पार्टी के वोटबैंक और पीछलग्गू बनने और इस बुर्जुआ राज्य के तथाकथित कल्याणकारी छवि बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया. बीच-बीच में रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल करने की मांग या उसे संवैधानिक दर्जा दिलाने की मांग भी उठती रही है. 2004 में THE NATIONAL RURAL EMPLOYMENT GUARANTEE BILL, 2004 जब लाया गया तब वाम दलों के समन्वय समिति द्वारा यूपीए को वाम दलों द्वारा एक नोट भेजा गया था जिसमे बिल के खामियों की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित किया गया था. (लिंक देखे https://www.cpim.org/…/problems-rural-employement-guarantee…). आखिर में वाम दल-समर्थित संप्रग सरकार ने 25 अगस्त 2005 को ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 ले कर आयी जो आज महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के नाम से जाना जाता है. जाहिर है कि बुर्जुआ सरकार द्वारा पहले से लागू की गयी योजनायें और रोजगार से सम्बंधित क़ानून बहुत ही अप्रयाप्त साबित हुई. इसमें सारे लोगो के लिये बेरोजगार की गारंटी की बात नहीं थी बल्कि परिवार के एक सदर्स्य के लिए सिर्फ १०० दिनों के लिए रोजगार देने के लिए प्रावधान था. साथ ही इसे एक साथ सारे राज्यों में लागू करने का भी प्रावधान नहीं था. क़ानून खामियों से भरा पड़ा था. कहने का अर्थ है कि बेरोजगारी की विकराल समस्या के सामने इस बेरोजगारी गारंटी क़ानून को तो न प्रयाप्त होना था और न ही यह प्रयाप्त था. रोजगारी समस्या को २००५ के क़ानून से हल करने के प्रयास पहले ही एक दिवास्वप्न साबित हो चूका है. ऐसे में एक नए रोजगार गारंटी क़ानून की मांग करना और उससे यह उम्मीद करना की इससे बेरोजगार की गारंटी मुमकिन हो जाए गी, क्या यह लोगो को दिवा स्वप्न दिखाने जैसा है?

इन परिस्थितियों में रोजगार गारंटी क़ानून और रोजगार गारंटी दोनो की मांग पर आंदोलित युवा वर्ग के मन में प्रश्न उठाना ही था, इस पर से भरोसा उठाना ही था. PDYF के साथी खूसबू ने जब अपने पोस्ट में लिखा कि हमें रोजगार गारंटी कानून नहीं, रोजगार की गारंटी चाहिए तो यह बहुत अस्वाभाविक नहीं था. यह १९६० से चल रहे रोजगार से सम्बंधित मांगो के प्रति एक reaction भी था, भरोसा उठ जाने का प्रतिफल था. संभवतः इस लिए उसने लिखा कि ‘PDYF, PDSF, विमुक्ता और सर्वहारा जन मोर्चा मिलकर यह अभियान चला रहे हैं कि 100 प्रतिशत रोजगार की गारंटी करो और अगर इस पूँजीवादी व्यवस्था में यह नही हो सकता है तो जिस व्यवस्था में यह सम्भव हो उस व्यवस्था की ओर कुच करने के लिए काम करें, संगठित हो और उन तमाम शक्तियों से एकबद्ध हो जो पूर्ण रोजगार वाली व्यवस्था के लिए लड़ रहे हैं यानी समाजवाद और सर्वहारा जनतंत्र के लिए लड़ रहे हैं।‘

साथी खूसबू का यह बयान क्या दर्शाता है? ऐसा लगता है कि साथी खूसबू का पूँजीवादी राज्य द्वारा दिए जाने वाले रोजगार गारंटी क़ानून पर से तो भरोसा पहले ही उठ गया है और साथ में सरकार द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था में 100 प्रतिशत रोजगार की गारंटी उपलब्ध कराने की क्षमता पर भी संदेह है? इसलिए तो वह कहती है रोजगार गारंटी कानून नहीं, रोजगार की गारंटी चाहिए. १९६० से ले कर अब तक सरकारी रोजगार योजानाओं और रोजगार गारंटी क़ानून के इतिहास को देखते हुए सरकार और पूंजीवादी व्यवस्था से भरोसे का उठना गलत नहीं है. यह तो बहुत ही स्क्भाविक है. और सरकार और पूंजीवादी व्यवस्था से भरोसे के उठने की अभिव्यक्ति शायद साथी खूसबू का व्यक्तिगत नहीं है, यह उनके संगठन के लोगो का, जो लोग उनके साथ जुड़े है, उन सब की भावनाओं की यह सामूहिक अभिव्यक्ति है.

लेकिन अगर ऐसा है तो यह तो स्वागत योग्य है, सबसे पहले इस भरोसे के उठ जाने का स्वागत किया जाना चाहिय. एक कम्युनिस्ट होने के चलते पूँजीवाद और पूंजीवादी राज्य पर से इस भरोसे के उठने पर उसकी आलोचना करने का क्या तुक है? हम यही तो चाहते है. अगर इस भरोसे के उठने से कोई या सरकार दंड देती है, जेल देती है तो दे. सरकार के डर से क्या हम सरकार और इस पूंजीवादी व्यवस्था पर अपना संदेह करना बंद कर दे? शायद सरकार भी चाहती है कि आप रोजगार गारंटी के साथ-साथ रोजगार गारंटी क़ानून की मांग भी करे, जब आन्दोलन बढे गा तो वो देखे गी कि वो क्या दे सकती है, कुछ और दे या न दे कम से कम उत्तेजित भीड़ को शांत करने के लिए रोजगार गारंटी सम्बंधित फिर कोई नया क़ानून का लोलीपोप तो दे ही सकती है, लोगो को अपने तरफ खीचने के लिए सरकार ऐसा कर सकती है. पहले भी दिया है. हो सकता है कि सबको लगे कि ऐसा रोजगार गारंटी क़ानून और रोजगार गारंटी का आन्दोलन सरकार और पूँजीवाद के खिलाफ है, लेकिन इसमें एक खामी है. इसमें सरकार के लिय एक अवसर भी दिया जा रहा है क़ानून का लोलीपोप देने का, आंदोलित जनता को शांत करने का अवसर दिया जा रहा है. बेरोजगार युवाओं के आन्दोलन का मकसद रोजगार गारंटी क़ानून नहीं रोजगार की गारंटी है. तो फिर वे अपने आन्दोलन के चरम में सरकार से रोजगार गारंटी क़ानून का लोलीपोप ले कर भला क्या करेगें? और फिर कितना इन्तजार किया जाए ? और आखिर २००५ के क़ानून की तरह और कितने रोजगार सम्बन्धित क़ानून का लोलीपोप जीतने के बाद हम लोगो को बताये गें कि रोजगार गारंटी क़ानून पास होने के बाद भी इस पूँजीवाद में रोजगार की गारंटी मुमकिन नहीं है?

लेकिन फिर भी अगर किसी को अब भी इस पूंजीवादी राज्य और पूंजीवादी व्यवस्था पर भरोसा है और वह इन दोनों मांगो- रोजगार गारंटी और रोजगार गारंटी क़ानून- को उठाना चाहता है तो इसका हम विरोध किस आधार पर कर सकते है? उसका भी भरोसा एक दिन टूटे गा ही, इसमें घबराने या नाराज होने की क्या जरूरत है?. अगर किसी का भरोसा नहीं टूटा है तो उस पर जबरदस्ती करने का क्या मतलब है?

लेकिन एक दूसरी स्थिति भी हो सकती है. हो सकता है कि किसी संगठन के कुछ आगे बढे हुए लोगो का इस पूंजीवादी सरकार से भरोसा उठ गया हो, लेकिन उनके साथ जो जनता है उसका भरोसा नहीं उठा हो. ऐसी स्थिति में या तो वे दोनों मांगो- रोजगार गारंटी और रोजगार गारंटी क़ानून- के साथ आन्दोलन में उतरे और साथ साथ इस भ्रम का भी पर्दाफास करे कि क़ानून पास होने से भी क्यों पूंजीवादी व्यवस्था में रोजगार की गारंटी मुमकिन नहीं है, जनता को अपने प्रचार सामग्री में यह बताये कि कैसे शिक्षित किया जा सकता है? . लेकिन ऐसी जनता को कैसे कहा जाए कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में कुछ नहीं मिलेगा? बिगुल के साथी सत्यानारण सोचते है कि अगर आप जनता को बोलेंगे कि लड़ेंगे तो सही पर कुछ मिलेगा नहीं तो जनता बोलेगी कि फिर लड़ ही क्‍यों रहे हैं. उनका यह सोचना है कि कम से कम इस बात की सम्भावना तो है कि उनका भरोसा लड़ने के बाद टूट जाए, संघर्ष के दौरान हुए प्रचार से सीख जाए. विगुल के साथी मुकेश असीम ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में साथी खूसबू के साथ बहस में अपने विचार कुछ इस प्रकार रखा है :

“पूंजीवाद में सबको रोजगार मिलना मुमकिन नहीं, हम सब सहमत हैं| पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारी संगठनों की ओर से उसमें रोजगार की गारंटी मांगी जाये, गारंटी का कानून माँगा जाये, पूर्ण रोजगार माँगा जाये, गरिमापूर्ण रोजगार माँगा जाये, बेरोजगारी भत्ता मांगा जाये, ये सभी तात्कालिक आर्थिक सुधार की मांगें हैं जो पूंजीवाद में कभी पूरी नहीं हो सकतीं.| नहीं पूरा हो सकतीं तो एक क्रांतिकारी पार्टी इन्हें मेहनतकश जनता में पूंजीवाद विरोधी राजनीतिक प्रचार और शिक्षा के लिए प्रयोग करती है|
पर इनमें से गारंटी कानून की मांग ही क्यों सुधारवादी है और इसके विपरीत रोजगार गारंटी, पूर्ण या गरिमापूर्ण रोजगार की मांग कैसे क्रांतिकारी है, इसका कोई तार्किक आधार यहाँ नहीं रखा गया है|”

बिगुल के साथी मुकेश असीम ने बिलकुल स्पष्ट कर दिया है कि पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारी संगठनों की ओर से रोजगार की गारंटी मांगी जाये, गारंटी का कानून माँगा जाये, पूर्ण रोजगार माँगा जाये, गरिमापूर्ण रोजगार माँगा जाये, बेरोजगारी भत्ता मांगा जाये, ये सभी तात्कालिक आर्थिक सुधार की मांगें हैं जो पूंजीवाद में कभी पूरी नहीं हो सकतीं| अब मतभेद यहाँ यह है कि बिगुल के साथी मुकेश असीम के अनुसार रोजगार गारंटी क़ानून भी पूँजीवाद में नहीं मिल सकता जबकि, जैसा कि साथी अजय सर्वाहारा ने कहा है कि पूँजीवाद में कानून बनाने की जरूरत स्वयं पूंजीवादियों-सुधारवादियों को पड़ती है, चाहे वे कितने भी अप्रयाप्त हो, अगर बेरोजगारी बड़ा मुद्दा बन जायेगा तो पूँजीवादी व्यवस्था के रहनुमा कोई ऐसा कानून खुद ही ला सकते हैं. ऐसा पहले भी भारत के पूंजीवादी सरकार ने क़ानून पारित किया है.

इस तरह साथी खुसबू का उस रोजगार गारंटी क़ानून से भरोसा टूट गया है जो यह पूंजीवादी सरकार लोगो को धोखा देने के लिए संघर्ष के चरमोत्कर्ष के दौरान फिर से ला सकती है, जबकि बिगुल के साथी मुकेश असीम का इस बात का भरोसा ही नहीं है कि गारंटी का कानून माँगने पर सरकार दे भी सकती है. और इस लिए बिगुल के साथी मुकेस असीम के लिए यह बहुत स्क्भाविक है कि वे रोजगार गारंटी क़ानून और रोजगार गारंटी दोनों की मांग के साथ जाए. अब अगर बिगुल के साथी मुकेश असीम को भरोसा नहीं है कि रोजगार गारंटी क़ानून इस पूंजीवादी व्यवस्था में मिल सकता है तो वे तो इसी चेतना से ही नियंत्रित होंगे. और क्योंकि उनके अनुसार ये दोनों मांगे पूंजीवाद में कभी पूरी नहीं हो सकतीं इसीलिए तो एक क्रांतिकारी पार्टी इन्हें मेहनतकश जनता में पूंजीवाद विरोधी राजनीतिक प्रचार और शिक्षा के लिए प्रयोग करती है| तो क्या वे इस बात का प्रोपगंडा करेगे कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में रोजगार गारंटी और रोजगार गारंटी क़ानून दोनों क्यों नहीं मिल सकता है?

साथी खूसबू की मांग के साथ जाने में एक खतरा भी है, ये रोजगार की गारंटी मागं रही है जिसे देना किसी भी पूंजीवादी राज्य के लिए संभव नहीं है और इस लिए आन्दोलन के बढ़ने की स्थिति में यह मांग सीधे राज्य पर प्रहार करने वाला है, कुछ देने के लिए यह मांग राज्य के लिए कोई अवसर ही नहीं देता, इस लिए अगर यह संघर्ष आगे बढ़ता है तो इसके लिए पूंजीवादी दायरे के चौखटे में सीमित रहना सम्भव् प्रतीत नहीं होता है, क्योकि रोजगार की गारंटी पूँजीवाद में संभव हो ही नहीं सकता. इस लिए संघर्ष के दौरान साथी खूसबू के लिए मार्क्सवादी साहित्य के आलोक में यह प्रचारित करने के अवसर ही अवसर रहेगा कि पूँजीवाद में रोजगार की गारंटी क्यों मुमकिन नहीं है. जबकि बिगुल के साथी मुकेश के लिए यह यह मुश्किल होगा की इस पूंजीवादी समाज में रोजगार गारंटी क़ानून मिलना क्यों मुमकिन नहीं है. उनका या तो पूरा राजनैतिक प्रोपगंडा गड़बड़ हो जाए गा या फिर वे इस मुद्दे पर कोई राजनीतक प्रोपगंडा करने से बचते रहे गे.

बिगुल के साथी मुकेस का चुकि भरोसा है कि पूँजीवाद में रोजगार गारंटी और रोजगार गारंटी क़ानून नहीं मिल सकता. इस लिए उनका आन्दोलन इन दो मांगो - रोजगार गारंटी और रोजगार गारंटी क़ानून - के साथ इस भरोसे से आगे बढेगा कि ये दोनों मांगे इस पूंजीवादी व्यवस्था में मुमकिन नहीं है. लेकिन हम जानते है कि आन्दोलन के बहुत तेज होने पर सरकार कभी भी रोजगार गारंटी क़ानून का लोलीपोप थमा सकती है और फिर इस बात की सम्भावना है कि आन्दोलन बिखर जाए, लोग उस प्रस्तावित रोजगार गारंटी क़ानून की खामियों पर बहस में लग जाये. कहने का अर्थ है कि इस बात की अत्यधिक सम्भावना है कि रोजगार से सम्बंधित मांगो के लिए होने वाला बिगुल का आन्दोलन पूँजीवाद के चौखटे से बाहर जा ही नहीं पाए. इस लिए अगर कहा जाए तो जहां रोजगार सम्बंधित मांगो के लिए बिगुल का आन्दोलन पूंजीवादी चौखटे के भीतर सीमित होने के लिए अभिशप्त है वहीं PDYF के साथी खूसबू का रोजगार से सम्बंधित मांगो के लिए चलने वाला अभियान अगर आगे बढ़ता है तो इस बात की ज्यादा सम्भावना है कि उस अभियान को, उनके संघर्ष को पूँजीवाद के चौखट को लांघना पड़े या फिर राजकीय दमन का शिकार होना पड़े, इस बात की ज्यादा सम्भावना है कि उनका संघर्ष मिहनतकस जनता को शिक्षित कर सके कि क्यों पूँजीवाद में रोजगार की गारंटी मिलना संभव नहीं है, और उन्हें लाजिमी तौर पर समाजवाद के लिए संघर्ष के लिए, पूँजीवाद को सम्पूर्ण रूप से उखाड़ फेकने के लिए कमर कसना ही पड़ेगा.
लेकिन हमे पूरा भरोसा है कि बिगुल के साथी देर सवेर इस बात को समझ लेंगे और फिर जो मतभेद है वो दूर हो जाएगा.